Anita Jain

Abstract

2.5  

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प्रीत की रीत

प्रीत की रीत

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मुश्किल हो गया संवारना

रिश्तों की तकदीर

कैसी अज़ब ये प्रीत की रीत

सब कहते है, कर ले मेरा विश्वास

मैं ही हूँ तेरा सच्चा मीत

इन रिश्तों की भीड़ में

हर कोई शायद  है अंदर से भयभीत

और ढूँढ रहा है सच्ची प्रीत

पतन सोच का हो रहा

लगे करने सब स्वार्थ सिद्ध

न जाने कौन, कब चला दे शमशीर

बन के सच्चा मीत

पर तुम नाज़ करो उन रिश्तों पर

मुश्किल घडी में बनकर सहारा

 बँधा ढाढस

जीवन तुम्हारा संवारा था |

यही प्रण इस

विश्वास -अविश्वास  रण में

तुम भी करो

भूल राग-द्वेष की बोली

विश्वास की हुंकार भरोगे

कैसी भी हो परिस्थिति

प्रीत की रीत निभाओगे

जीवन बगिया महकाओगे

तराने प्रीत के ही गुनगुनाओगे

आंचल प्रीत की रीत का

सदा ही लहराओगे

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 


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