Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Inspirational

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

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परिचय - तुकाराम

परिचय - तुकाराम

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परिचय - तुकारामतब वारासिवनी का कोई घर ऐसा नहीं था जहाँ हरिशंकर जी अग्रवाल, अपोलो एवं सत्कार होटल के मिठाई-नमकीन आदि लाए एवं खाए न गए हों। ऐसा कोई घर नहीं था जिसके निर्माण में हेमचंद जी जैन की दुकान का लोहा न लगा हो। पढ़ने वाला ऐसा कोई बच्चा नहीं था जो टिहली बाई शासकीय विद्यालय न गया हो। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था जो तारा को नहीं जानता हो। कोई व्यक्ति नहीं था जिसका कभी उपचार डॉ. पी सी रावत ने न किया हो। और कोई न था जिसने सुराना मेडिकल या चतर्भुज भाई निर्मल जी की शॉप से दवाई खरीद कर न खाई हो। 

भूमिका में इतने उल्लेख के बाद, आज मेरे लिखे जा रहे परिचय के, विषय वस्तु तुकाराम जी हैं। मैं समझता हूँ कि तब वारासिवनी में ऐसा कोई व्यक्ति भी न रहा होगा, जिसने आप के ठेले की कुल्फी या चाट न खाई हो। 

शायद आप साठ के दशक के पहले से भी वारासिवनी की गली सड़कों पर घूमा करते थे। मैंने समझ आने के बाद, आपको 1966-67 से पहचाना था। आप हमारे घर-दुकान के सामने से नित दिन निकला करते थे। 

यह मेरा अनुमान है कि आप तीस के दशक में, किसी दिन वारासिवनी में ही जन्मे थे। 

मैंने आपको अलग अलग मौसम में, चार अलग अलग तरह की खाद्य सामग्रियां बेच कर (खिला-पिला कर) अपनी आजीविका उपार्जित करते हुए देखा था। 

मैं याद करता हूँ तो हर वर्ष होली के पहले, आप कुल्फी का ठेला लेकर घूमना शुरू करते थे। इस हाथ ठेले में, लाल कपड़े में लपेट कर, एक अत्यंत बड़ा मटका (मिट्टी का घड़ा) रखा होता था। आइस कैंडी की एक क्वालिटी स्टील के ठंडे बॉक्स में साँचों में बनाई जाती थी। यह सस्ती होती थी। इनके साथ ही ठेले में एक पेटी रखी होती थी। इस पेटी में आप अपने वसूले मूल्य के चिल्हर पैसे/रुपए रखते थे। वह सस्ते का समय था। एक डॉलर 6 रुपए का था और चिल्हर पैसों में बहुत सी समाग्रियों का मूल्य अदा किया जा सकता था। 

आपके ठेले में ऊपर टीन चादर की छत होती थी एवं इस छत से झूलती एक घंटी लगी होती थी। जो गली/सड़क में घूमते हुए, ग्राहक को आकर्षित करने के लिए, आपके द्वारा बीच बीच में बजा दी जाती थी। आपके मटके के अंदर छोटे बड़े साँचों में जमाई गई कुल्फी होती थी। जिस साँचे की कुल्फी निकल जाती (बिक जाती) उसमें साथ के बर्तन में रखे कंडेंस्ड मिल्क से आप पुनः भरते और मटके में डाल देते थे। मटका बर्फ के कारण अंदर ठंडा होता था। (देशी फ्रिज)

आपकी आवाज भी बुलंद थी। जिस समय आपके ठेले पर ग्राहक नहीं होता था तब आप आवाज लगाते जाते थे - “कुल्फी, मटके वाली कुल्फी!

होली के दिन आपकी कुल्फी दो रंगों की हो जाती थी। एक रंग हमेशा वाला, हल्का पीलापन लिए हुए सफेद और दूसरा - हरा। 

हरे रंग की कुल्फी आप बच्चों को नहीं देते थे। मुझे बाद में पता चला था यह दूध में भाँग मिलाकर, जमाई गई कुल्फी होती थी। आप इसे शायद सिर्फ होली वाले दिन बेचा करते थे। 

आपकी कुल्फी का ठेला शायद मार्च द्वितीय पखवाड़े से जून तक चलता था। तब ग्रीष्म काल की असहनीय भीषण गर्मी के कारण, सूनी पड़ी गली/सड़कों में आप घूमा करते थे। इन महीनों की दोपहर इतनी गर्म होती थी कि लोग अपने घर एवं दुकानों में खस की टकटियों में पानी सींच सींच कर भीतर ही रहा करते थे। सब आपकी आवाज या आपके ठेले की घंटी से परिचित हुआ करते थे। जिन्हें कुल्फी खानी होती वे आपकी आवाज सुनने के बाद, बाहर निकलकर आपके ठेले पर आते थे। 

स्पष्ट है यह आपके परिवार के लिए आजीविका का प्रश्न था जो आपको दिन दिन भर की गर्मी में वारासिवनी की सड़कें नपवाने को मजबूर करता था।  

जुलाई महीने से आपका ठेला और पेटी तो यही होते मगर इसमें काँच पार्टीशन वाले रैक लग जाते थे और इसमें विभिन्न तरह की चाट-फुलकी रखे होते थे। साथ ही कुछ चीनी मिट्टी की बरनियाँ भी होतीं थीं, जिनमें इमली आदि की चटनियाँ , दही, पुदीना पानी, उबले आलू, चना आदि होते थे। नमक मसाले का डिब्बा और जूठी प्लेट धोने के लिए, ठेले से झूलती एक बाल्टी और पीने के पानी से भरी स्टील की टंकी होती थी। 

इन सब सामग्रियों के होने से आपके ठेले पर भार अधिक हो जाता था। तब ठेला धकेलने में आपको अधिक जोर लगाना होता था, यह मैं देखता था। जुलाई से अक्टूबर तक आप नगर की सड़कों पर ठेला घुमा घुमा के, चटोरे नगरवासियों की जीभ को शांत किया करते थे। 

मेरी जीभ भी आपकी बनाई दही-इमली चटनी के खस्ता (और जगह कुछ और कहते होंगे) की प्लेट देख, गपागप खाने को मचलती थी।  

ये साढ़े सात महीने आपके हाथों को शायद थका देते थे। तब भी आप एवं आपके आश्रितों की अनवरत लग जाने वाली पेट की भूख, आप पर दया नहीं करती थी। 

अब नवंबर महीने की गुलाबी ठंड पड़ना शुरू हो जाती थी। अब आप बिना बाँह का एक काला कोट और धारण कर लेते थे। आप, अपने हाथों को तो आराम देते मगर अपने कंधे पर भार बड़ा लेते थे। अब लाल कपड़े में लपेटा हुआ, एक तिरछा कटा हुआ टिन आपके कंधे पर लटका होता था। इस टिन के एक भाग में चपटे चने भरे होते थे एवं छोटे अन्य भाग में एक चाकू, नीबू एवं नमक मसाला होते थे।

ठेले की घंटी न होने से, ग्राहकों का ध्यान आकर्षित करने के लिए अब आपको ऊँची आवाज में चिल्लाना होता था - ‘चना जोर गरम’ - ‘चना जोर गरम’ !!

इसका पूरा स्लोगन यूँ होता था जिसे गाते हुए आप कहते जाते थे - 

"चना जोर गरम बाबू

मैं लाया मजेदार

खाना चार यार मिलकर

मजा आए चने के अंदर"

दिसंबर जनवरी में जब दूध अच्छा मिलने लगता था तब आप ठेले पर मावे (खोआ) की मिठाइयाँ लेकर निकलते थे। घंटी के साथ आप आवाज लगाया करते - “खेल का खेल खाने का खाना - आम के आम गुठलियों के दाम” !!

मिठाई वाला गेम ऐसा होता था - 

आप छोटी और बड़ी 20-25 प्रकार की मिठाई बनाकर ठेले पर रखी ग्लास पेटी में रखते थे। इन मिठाइयों का आकार अलग-अलग फल के रूप का होता था। आप एक थैली में उन फलों के नाम की पर्ची रखते थे। 

तय कीमत अदा करने पर क्रय कर्ता को, थैली में से एक पर्ची निकालनी होती थी। उसकी निकाली गई पर्ची में, लिखे फल के (नाम) अनुसार उसकी अदा की गई कीमत से छोटी या बड़ी मिठाई मिलती थी। 

यह हमारा (क्रय कर्ता का) उस क्षण में, भाग्य होता था कि उतने पैसे में छोटी या बड़ी मिठाई, क्या खाने मिलती है। 

हमने आपके ठेले पर चाट एवं कुल्फियाँ तो खाईं थीं मगर मुझे स्मरण नहीं कि मैंने यह मिठाई कभी खाई थी या नहीं। 

कुछ बार मैंने आपको बुढ्ढी के बाल (चाशनी के रेशों का गुलाबी रंग का गुच्छा) बेचते हुए भी देखा था। आप आवाज लगाते थे “बुढ्ढी के बाल”! मुझे पता नहीं कहीं और भी इन्हें इस नाम से जाना जाता था या वारासिवनी में, इसे यह नाम आपने दिया था। 

ऐसे हर वर्ष, बारह महिनों गर्मी, बरसात एवं ठंड के मौसमों में, आप नगर की गलियों-सड़कों पर होते थे। 

मैंने आपको शायद अस्सी के दशक के अंत तक आजीविका के लिए ऐसे चक्कर में घूमते देखा था। आगे का मुझे याद नहीं है। मेरा वारासिवनी में रहना भी तब तक कम होने लगा था। 

मैं यह जानता हूँ कि मोहनलाल हरगोविन्ददास के बीड़ी कारखाने के पास की गली में आप निवास करते थे। मुझे लगता है, आपके परिवार ने आपका ऐसा अथक परिश्रम देख कर, अच्छे संस्कार एवं प्रेरणा ग्रहण की होगी। आपके बेटे-बेटी कितने थे, मैं यह नहीं जानता मगर मुझे आशा है कि उन्होंने आपकी वृद्धावस्था को, आदर और सेवा भाव से निभाया होगा। साथ ही आपसे अधिक अच्छी तरह से जीवन यापन किया होगा (या/और कर रहे होंगे)।

आगे के समय में आपके एक बेटे, राजू ने यह पैतृक पेशा किया था। हालांकि आप जितनी पहचान आपके बेटे को नहीं मिल सकी थी। तब तक वारासिवनी में इस तरह के ठेले से आजीविका कमाने वाले लोग बढ़ गए थे। 

आपकी पहचान कई दशकों तक आपकी छानी गई वारासिवनी की धूल से बनी थी। 

अब के फुरसत के दिनों में, मैं वारासिवनी के महान लोगों का स्मरण किया करता हूँ। 

एक साधारण दृष्टि आपको तुकाराम देखती थी। मेरी दृष्टि आज आपको ‘तुकाराम महान’ देखती है। वह महान तुकाराम जो अपने परिवार के उदर पोषण के लिए, अथक परिश्रम करते हुए दशकों तक हमारे “वारासिवनी” की सेवा किया करता था। 

कोई माने या न माने मगर ‘वारासिवनी’ ऋणी है आपका’!

शत शत नमन।  


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