Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Inspirational

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

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परिचय - पिलंटु हलवाई

परिचय - पिलंटु हलवाई

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 साठ के दशक के उत्तरार्ध में (एवं सत्तर के दशक के प्रारंभ में) जब मुझे समझ आई थी। तब से मैंने अपने दादा-पिताजी की जूलरी शॉप के एक बाजू में अग्रवाल होटल देखी थी। 

हम बच्चों की चटोरी जीभ जब घर के बने पकवानों से भी तृप्त नहीं होती तो हमारे दादा जी इस होटल से हमें कभी समोसे, कभी भजिए कभी जलेबी और कभी रसगुल्ला - रसमलाई आदि दिलवाया करते थे। 

इस होटल के मिष्ठान्न, नमकीन, खोवा आदि बहुत सवेरे से लेकर संध्या काल तक बड़ी भट्टी पर पिलंटू नाम के मिस्त्री (हलवाई) बनाया करते थे। 

जब सबसे पहले बार मैंने आप (पिलंटू) को देखा तब आप की उम्र 55 वर्ष से कुछ अधिक ही रही होगी। चाहे कोई मौसम हो आप हमेशा पट्टे के डिज़ाइन वाली बड़ी चड्डी एवं सूती कपड़े की सिलाई की गई बनियान पहने अपने काम में लगे देखे जाते थे। 

आप धोती/पैजामा-कुर्ते में तब ही दिखाई देते थे जब छुट्टी में, अपने परिवार से मिलने गाँव जाया करते या गाँव से लौटकर आते थे।

आप, सुबह सबसे पहले एक बड़ी भट्टी में आलू पोहा बनाया करते थे। पोहा बनकर होटल के काउंटर में लग जाने के बाद, भट्टी पर उथली कढ़ाई में आपके द्वारा जलेबी तली जाने लगतीं थीं। कढ़ाई में से निकालकर जलेबी को आप अपने बाजू में रखी शीरे की कढ़ाई में तैरा देते थे। 

अब तक वारासिवनी के चटोरे लोग होटल में अपनी जीभ की माँग की पूर्ति करने के लिए, पोहा के साथ गरमा गरम जलेबी के सेवन की प्रतीक्षा में होटल में जमा हो जाते थे। आपके द्वारा जलेबी की खेप छोटी थाली में बार बार पहुँचाई जाती थी। मुझे याद है पहले जलेबी घी में बनाई जाती थी बाद में तेल में बनने लगीं थीं। तेल की जलेबी गर्म ही खाने पर अधिक स्वादिष्ट होती थी। 

पोहा जलेबी बना चुकने के बाद, अब तक आ चुके दूधवालों के कैन में से दूध आप भट्टी पर रखी बड़ी कढ़ाई में में पलटा कर, खोवा औटाने के काम में लग जाते थे। यह काम दो कारणों से होता, एक इस खोवे से आप बाद में गुलाब जामुन पेड़े एवं अन्य खोवे के मिष्टान्न बनाते थे। दूसरा, खोवे की मात्रा (वजन) अनुसार सुभाष जी (मालिक) दूधवालों का भुगतान करते थे। 

ग्यारह - साढ़े ग्यारह बजे तक आपके द्वारा इतने काम कर दिए जाते थे। इसके बाद मैं, आपको खाना खाते देखा करता था। यह खाना अन्य भट्टी पर दूसरा कोई कर्मचारी सभी काम करने वालों के लिए, अब तक बना लिया करता था। 

होटल में बिक्री के लिए आप यूँ तो अनेक प्रकार के नमकीन-पकवान बनाते मगर आपकी टाटी में (आप लोगों के मुख से थाली के लिए यही शब्द सुनता था) भोजन में हर बार मैं, बहुत सा भात (चाँवल), आलू की सूखी सब्जी, एक छिली प्याज एवं हरि मिर्चियाँ देखा करता था। 

मैंने कभी आपको पेड़ा, जलेबी या रसगुल्ला आदि खाते देखा हो यह मुझे स्मरण नहीं आता है। बरसात को छोड़ कर आप अपना भोजन खुले में ही करते थे। 

यहाँ मुझे स्वीकार करना होगा, घर की थाली में अधिक प्रकार के व्यंजन होने पर भी मेरे मुँह में पानी, इस रूखे सूखे खाने को देखकर भी आ जाया करता था। कदाचित् खा खाकर भी मैं हमेशा भूखा रहने वाला बालक था।  

शायद आप बीच में ऊँघ लिया करते थे। 

फिर दोपहर का समय चिवड़ा (कच्चा और पक्का) बनाने का होता था। साथ ही दालिया, दालमोंठ एवं सेव/पपड़ी आदि भी दिन बदल बदल कर आप बनाया करते थे। आप हर काम इसमें डूबकर बड़ी ही तल्लीनता से करते थे। 

इसके बाद का समय सबेरे बनाए गए खोवे से आपके द्वारा, पेड़े एवं केशर पेड़े बनाए जाने का होता था। यह काम भी आप खुले में बैठकर करते थे। मुझे स्मरण है कि आपके मुँह में, तब सुपाड़ी या इसी तरह का कुछ होता था। जो इस कार्य के साथ साथ चबाने के लिए चलता जाता था। इस खोवे से किसी दोपहरी में आप गुलाब जामुन भी बनाया करते थे। 

रसगुल्ला के लिए दूध फाड़ा करते हुए भी, मैं आपको देखा करता था। रसगुल्ला, रसमलाई एवं रबड़ी भी आप बनाते थे। 

नित दिन दैनिक क्रिया के लिए आप लोटा उठाकर हमारे घर के पीछे तरफ के छोटे तालाब की ओर जाते हुए देखे जाते थे। नियमित स्नान, आप हमारे घर के पास के बड़े कुँए पर किया करते थे। इसी समय आपके पिछले दिन के थोड़े से पहने हुए वस्त्र भी धुल जाया करते थे। 

सुभाष जी, अन्य होटल कर्मचारियों पर कभी कभी चिल्लाते हुए देखे जाते थे मगर मुझे स्मरण नहीं कि कभी आप पर किसी ने चिल्लाया हो। 

वर्षों तक इसी होटल में, आपके इसी क्रम का मैं साक्षी हुआ करता था। फिर मैं इंजीनियरिंग पढ़ने एवं इसके बाद जॉब में बाहर ही रहने लगा था। इस कारण मुझे स्मरण नहीं कि कब आप ने यह काम छोड़ा था। मुझे संदेह है कि अब 40-45 वर्ष बीत जाने के बाद आप जीवित भी हैं या नहीं! अगर आप अब भी जीवित होंगे तो 100 वर्ष से अधिक के होंगे। 

आप पर क्यों मैंने लिखा अब पाठकों को यह अवगत करने की बारी है। 

हम इस प्रतिष्ठित होटल में खाने के लिए कीमत भुगतान कर, अपने मन की स्वाद आकाँक्षा की पूर्ति कर लिया करते थे। हमें मतलब होटल एवं प्लेट्स में लगे इन पकवानों से रहता था। हम कभी विचार नहीं करते कि इसकी पृष्ठभूमि में, आप तरह के समर्पित व्यक्ति होते थे। जिनका कर्म, धर्म एवं परिवार यही होटल होती थी। 

हम सोचते हैं हमने कीमत भुगतान करके भोज्य पर अपना अधिकार कर लिया है। (आप तो एक प्रतीक हैं) हम नहीं सोचते हैं इसकी पृष्ठभूमि में आपके कितने महान त्याग छुपे होते हैं। 

जब हमें सिर्फ खाना ही नहीं चाहिए होता, हमें पढ़ना होता है, हम खेलते हैं, हमें मनोरंजन चाहिए होता है। हमें पर्यटन पर भी जाने का मन होता है। हमें नाम और प्रतिष्ठा भी चाहिए होती है। तब आप को उपरोक्त में से कुछ नहीं चाहिए होता है। आप को बहुत बड़ा वेतन भी नहीं चाहिए होता है। 

आपको इतना ही चाहिए था कि आपके पीछे के परिवार का उदर पोषण बस हो जाए। परिवार वाले भूखे नहीं सोएं। 

हम नहीं सोचते हैं कि इतनी सी अपेक्षाओं के साथ ही, अत्यंत संभावना युक्त मानव जीवन को कोई कैसे निभा लेता है। मैंने आपका बनाया नाना प्रकार का नमकीन मीठा खाया है। अपना जीवन जी चुकने पर अब जब यह लेखनी की अभिव्यक्ति मेरे भाग्य में आई है, उसमें यदि मैं आप पर ना लिखूँ तो मुझे लगता है यह आपके माध्यम से खाए नमक के प्रति निष्ठा नहीं होगी। 

तब इतने मोबाइल या कैमरे नहीं थे। आपकी मेरे पास कोई तस्वीर भी नहीं है। मैं चित्रकार होता तो अपने मन में बसी, आपकी तस्वीर का चित्र अवश्य खींच देता। मेरी भी कुछ सीमाएं हैं। पता नहीं शब्द के माध्यम से मैं आपकी कितनी सही तस्वीर प्रस्तुत कर पाया हूँ। 

आपके एहसान हैं हम पर कि मैं बिना अन्न उत्पादन किए और बिना पकाए जीवन भर सब खाता रहा हूँ। इन योगदानों के लिए आपकी महत्वाकांक्षाओं के बलिदान को मैं सिर झुककर अभिनंदन करता हूँ 

आपको एवं आपकी स्मृति को मेरा शत शत नमन! 


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