Vinita Shukla

Romance

4.5  

Vinita Shukla

Romance

प्रेम के रंग

प्रेम के रंग

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“शोभित...” माधव दुबे ने अपने भतीजे को, बेचैनी भरे स्वर में पुकारा. चाचू के, बुलाने के अंदाज़ से, शोभित को लगा कि आज माधव चाचा, उसकी ‘क्लास’ लेने वाले थे. उसके ‘सिंगल स्टेटस’ को ‘मैरिड’ में बदलने के लिए, चाचू, जीतोड़ मशक्कत कर रहे थे...और वह...! उनके द्वारा सुझाए, हर रिश्ते की, अपने ढंग से पड़ताल कर... उसमें कोई न कोई खोट, निकाल ही देता! आजकल उन दोनों के बीच, इसे लेकर; छोटी- मोटी झड़प, हो ही जाती है. शोभित उर्फ़ शुभू ने, दिमाग पर जोर डाला. हाल- फिलहाल में तो उसने, ऐसा कोई ‘काण्ड’ नहीं किया. फिर काहे को, चाचू अनमने से हैं?! 

“क्या हुआ चाचू?”

“इधर आओ...जरा ये तस्वीर तो देखो”

शुभू ने, कुछ ऐसे पूर्वाग्रह पाल रखे थे, जिनके चलते, उससे अपनी बात मनवा पाना, कठिन था; किन्तु वह तस्वीर, भली सी लगी ...उस चेहरे में, कोई चुम्बकीय आकर्षण था; आँखों में, एक अनजान सी कशिश...! 

“लुक्स इंटरेस्टिंग...कौन है यह?!” 

“बात चलाऊँ?” चाचू तनिक आश्वस्त हुए. भतीजा हौले से मुस्कराया तो दुबे जी को, उनका जवाब मिल गया. उन्होंने, आनन-फानन में, अपने बड़े भाई, तुहिन को फोन लगाया; तुहिन यानी शोभित के पिता. 

“भाई...” माधव का स्वर, उत्साह से छलक रहा था, “लगता है बात बन गई”

“अच्छा!” दूसरे छोर से भी, जोश उमड़ पड़ा, “कौन है लड़की, शुभू को पसंद है?” 

“भैया...” इस बार, माधव हिचकिचा गये, “सुमन की बेटी...वल्लरी”

“सुमन...??”किसी अजाने दंश की पीड़ा, माहौल पर छा गयी, “किसकी बात कर रहे हो...?” तुहिन दुबे को, अपनी आवाज़, कांपती हुई सी लगी.

“सुमन उपाध्याय...” अनुज का झिझक भरा उत्तर, अग्रज को उद्वेलित कर गया, “क्या कह रहे हो...आर यू आउट ऑफ़ योर माइंड?!”

   “सुमन अब इस दुनिया में नहीं है...और वल्लरी... बिलकुल अपनी माँ पर गई है” माधव ने किसी तरह, बात पूरी की. इस पर, एक गहरा सन्नाटा खिंच गया. तुहिन ने बिना कुछ कहे, रिसीवर रख दिया था और माधव दुबे, सोच में पड़ गये. वे जानते थे, तुहिन, रिश्ते से इनकार, न कर सकेंगे; परन्तु इस क्रम में उन्हें, अतीत के अभिशप्त पल, दोबारा जीने होंगे! 

   वह भी तो साक्षी रहे, उस अविस्मरणीय समय के! कुछ घाव ऐसे होते हैं जो कभी नहीं भरते...वक्त के साथ, उनकी कसक, कम जरूर होती है. यह संयोग था कि भैया को, भारतीय कन्या ही, बहू के रूप में, स्वीकार्य थी. शुभू अमेरिका की, जानी- मानी कम्पनी में, काम करता था. कुछ सालों में, अमेरिकी नागरिकता, मिल जानी थी. वहाँ भारतीय मूल की वधू, तलाश सकते थे ; किन्तु उन अमरीकी बालाओं के रंग- ढंग, तुहिन भाई को, सही नहीं लगते. 

कंपनी के काम से, शुभू का, स्वदेश आना हुआ...मुंबई रहकर, काम निपटाना था. माधव का फ्लैट भी वहीं था; लिहाजा तुहिन, सपत्नीक वहां आकर, बेटे से मिल लिए. जाते- जाते, उन्होंने माधव को, लड़की ढूँढने की, ताकीद कर दी. छोटे भाई की पसंद पर, उन्हें पूरा विश्वास था; क्योंकि उसकी सोच, बहुत परिपक्व थी... पत्रकार जो ठहरा!

चाचू को, गंभीर चिन्तन में, डूबा हुआ पाकर, भतीजे ने पूछा, “व्हाट इज़ द इशू नाउ...अब तो मैंने ‘ग्रीन सिग्नल’ भी दे दिया...कल कितना ताना मार रहे थे- ‘ बिना डेट किये शादी कर लोगे तो दोस्त तुम्हारा मजाक उड़ायेंगे...वाह रे नई पीढ़ी! इनको बिरादिरी की दुहाई दो तो खिल्ली उड़ाने लग जाते हैं!’..”

   “कुछ गलत कहा?” माधव अपनी जड़ता से, उबर नहीं पा रहे थे. उनके विचार, कहीं उलझकर रह गये थे.

   “नहीं जी...आप गलत कैसे हो सकते हैं’’, शोभित तंज कसे बिना रह न सका, “आप ‘लिव- इन’ को पाप मानते हैं ...पर जरा सोचिये...करियर बनाने के चक्कर में, कितने साल लग जाते हैं...शरीर की भी कुछ मांगे होती हैं...”

   “जिन्हें शादी करके भी, पूरी कर सकते हैं” माधव ने, बीच में ही, बात काटी.

“हाँ...” शुभू ने, थोड़ा स्तब्ध होते हुए कहा, “पर उम्मीदें पहाड़ सी होती हैं...गले में पड़े फंदे जैसी...! उन पर खरे नहीं उतरे...तो शादीशुदा जीवन नरक...जो भी हो- मैं लड़की से, सारी बातें... स्पष्ट कर लूँगा”

“बिलकुल करना...तुम्हें रोका किसने है ?”

“मेरे दोस्त कहते हैं कि अरेंज- मैरिज में, एक- दूजे को आजमाने का, मौका ही नहीं मिलता” शोभित के मन में, अभी भी, थोड़ी हिचक बाकी थी.

 “आजमाने के लिए, देह का जुड़ना, जरूरी नहीं होता...आपस में, मन मिलने चाहियें...बातचीत करके, एक -दूसरे को, जाना जा सकता है...हमारे जमाने में तो ऐसे आचरण वालों को ...” दुबे जी, कुछ कहते- कहते, रुक गये थे.

  “आपके जमाने में क्या होता था? आप पड़ोस वाले अंकल से, कह रहे थे कि आपको, उस समय की... कई लव- स्टोरीज़, मालूम हैं. एक हमें भी सुनाइये ना!” शोभित ने चाचा के साथ, टकराव से, बचने के लिए, चर्चा का रुख, मोड़ दिया.

चाचू गंभीर हो गये, “प्यार और उससे जुड़े जोखिम की कहानियाँ, नौजवानों को भाती हैं... वे किस्से, दिलचस्प जरूर होते हैं; पर कभी- कभार... दिमाग घुमा देते हैं...”

“चाचू प्लीज़...पहेलियाँ मत बुझाइये!” शोभित अधीर होने लगा तो वे मुस्कराए, “चलो... तुम भी क्या याद करोगे...इश्क के, दांव- पेंच वाली, जोरदार कहानी सुनाता हूँ...हमारे ज़माने में इश्कबाजी कैसे हुआ करती थी...वे सारे गुर जान जाओगे”

“इंट्रेस्टिंग”शुभू चहक उठा और माधव पर, नजरें गड़ा दीं. माधव कुछ देर तो, अपने में ही खोये रहे फिर बोले, “बात हमारे मुहल्ले के मजनू, मनोहर की है. हम सब उसे, ‘मनोहर- कहानियों’ वाला, मनोहर कहते थे. वह निकटवर्ती आबादी का, जबर्दस्त खलनायक ठहरा! ‘मनोहर कहानियों’ में, भोली- भाली लड़कियों को, बहला- फुसलाकर, अपना उल्लू सीधा करने वाला किरदार, अक्सर हुआ करता- जीवन की, कड़वी सच्चाइयों का प्रतिनिधि. वह दूर- दूर तक, कुख्यात था; फिर भी... जाने क्यों, कोई ना कोई ‘मछली’ , उसके जाल में, फंस ही जाती...” कहते कहते दुबे जी ने, एक गहरी दृष्टि, शोभित पर डाली. उसकी आँखों में जिज्ञासा थी. 

वे आगे बढ़े, “इस तरह की खुराफातों को, हवा देने वाले, असामाजिक तत्व; पान की दुकानों पर, ‘जुगाली’ करते, पाए जाते! नालियों के ऊपर बनी पुलिया, चाय की टपरियों और सड़कछाप ढाबों की, झिलंगी चारपाइयों पर पसरे, नाकारा जीव... इधर- उधर की हांकते और परपंच करते रहते. उनके परपंच का केंद्र, अक्सर, कुंवारी कन्याएँ होती थीं. युवा परित्यक्ताओं और विधवाओं से लेकर, विवाहिताओं के बारे में भी.... आंकलन होता.

आने- जाने वाली स्त्रियों को देखकर, रसिकता से फुसफुसाना, उनकी आदत रही. हालांकि वे लौंडे- लपाड़े, अपने निजी जीवन में, विफल रहे; परन्तु उनकी कैंची जैसी जबानें, ‘नूतन कहानियों’ और ‘मनोहर कहानियों’ के समकक्ष व समानांतर... ‘अद्भुत’ कथाओं को सिरजने का, माद्दा रखतीं. मनोहर, उनका ‘रोल मॉडल’ हुआ करता! कई सुंदरियों का, प्रेमपात्र जो रह चुका! उन प्रेम- वृत्तांतों का, ‘श्रद्धापूर्वक’ बखान किया जाता. कुछ यूँ- जैसे हमारे बुजुर्ग, रामचरित मानस और गीता का करते हैं.”

“मनोहर ने उनको, ‘फ्लर्टिंग’ की, ‘टिप्स’ और ‘ट्रिक्स’ बताई थीं क्या?!” अब शोभित को भी, लुत्फ़ आने लगा था.

“वह तो उसके कारनामों से, खुदबखुद जुड़ जातीं. मिसाल के तौर पर, उसकी पहली गर्लफ्रेंड, उसे महज इसलिए पसंद करने लगी थी; क्योंकि वह उसके घर के सामने, रात की रानी के ...फूल चुनने आता. लड़की बालकोनी से उसे ताकती रहती. जागिंग करने वालों, पैदल चलने वालों और साइकिल- चालकों के लिए, सड़क के बीचोंबीच, एक अलग लेन बनी थी. वहीं एक बेंच के बगल में, रात की रानी का पेड़ था. लड़का बेंच पर बैठता... भूमि पर, चादर की तरह बिछे फूलों को, अपनी मुट्ठी में भरता और उनकी सुगंध, अपनी श्वास से, भीतर खींचता...फिर लड़की को देखता. आँखों ही आँखों में, कोई मौन संवाद होता.”

 “बिलकुल फ़िल्मी कहानी!” शोभित हंसा.

“इतना ही नहीं” चाचू ने खिलखिलाते हुए बताया, “जब उसका ब्रेक- अप हुआ तो वह किसी दूसरी कन्या की ‘शरण’ में चला गया. जल्द ही वहाँ से भी ब्रेक- अप...”

“पर ब्रेक- अप होता ही क्यों था??”

“अच्छा सवाल...! कभी लड़की का बाप विलेन बन जाता तो कभी भाई...कभी जात- बिरादिरी. उसकी आवारा टाइप हरकतें, आग में घी का काम करतीं... तिस पर उसका बदनाम पिता!”

“बदनाम पिता?”

“सुनते थे, स्मगलिंग करता था. मुहल्ले वालों के सामने, दिन- दहाड़े, किसी की हत्या कर दी . लोग, पर्दों की ओट से, देखते रहे. उस व्यक्ति को उसने, दौड़ा- दौड़ाकर मारा...पैसे और रसूख का जोर ऐसा - कि कोई गवाही देने, आगे नहीं आया”

“ओह!” कहानी में, एक अकथ सा रोमांच, समा गया था.

“फिर भी...” चाचू ने एक गहरी सांस भरी और कहानी को जारी रखा, “लड़के की हैसियत, सुंदरियों को, उसकी तरफ खींचती. अमीर बाप की औलाद होने के कारण, लड़कियों को आकर्षित करने वाले ‘साधन’, उसके पास इफरात में रहते; जैसे कि कीमती गॉगल्स, ब्राण्डेड कपड़े और चमचमाती हुई मोटर- बाइक.” शुभू ध्यानमग्न होकर, सुन रहा था. हवा में कोई, सनसनाहट सी थी.

  कथा, अपने ही लोच से, खिंचती जा रही थी, “चांडाल- चौकड़ी में, रोज ही बहस छिड़ जाती- मनोहर के, सूरतेहाल को लेकर. कोई कहता, ‘अपनी नई दोस्त को, अच्छी पट्टी पढ़ाई है. पुरानी वाली की, बेवफाई का जिकर किया...चार आंसू बहाए, बस छोकरी पिघल गयी’ . दूसरा बताता, ‘ तभी तो एक के बाद एक, गर्लफ्रेंड बनाता चला जाता है...किसी को पटाना, इतना आसान कहाँ...हजार अफ़साने हैं, इसके पास. बहाने गढ़ने में तो उस्ताद है. इसके पुराने ‘लफड़ों’ को जानकर भी, प्रेमिकायें, इसका साथ नहीं छोड़तीं...खुद को हालात का शिकार बताकर, उनकी हमदर्दी जीत लेता है ’

‘कुछ भी कहो; हीरो हैं अपना’ कोई तीसरा बन्दा, बोल पड़ता. उसके प्रेम- कौशल के कारण, वह, अधिकतर निकम्मों का, हीरो ही था...अंधेरों में राह दिखाने वाला, प्रेरणास्तम्भ!”

“फिर तो प्रकाश- स्तम्भ कहो चाचू...अंधेरों में राह जो दिखाता था” शोभित ने चुटकी ली. इस पर, माधव की हंसी छूट गयी. कुछ देर तक, चाचा- भतीजे के ठहाके, गूंजते रहे; फिर माधव ने, खुद को सहेजा और आगे कहना शुरू किया, “जैसा कि मैंने बताया था, चाय की टपरियाँ, पान की दुकानें आदि, उन नामुराद छोकरों का, अड्डा हुआ करती थीं. वहाँ से, मनोहर के, रूमानी- एडवेंचरों वाले अपडेट, मिल जाया करते!”

“जैसे?” शुभू थोड़ा चकरा गया था. माधव ने खंखारकर, गले को, साफ़ किया और भतीजे का ‘ज्ञानवर्धन’ करने लगे, “जैसे कि उसकी गतिविधियों की जानकारी. किसी महबूबा को, फूल की टोकरी भेजता तो किसी को, घर के पास वाली इमारत से, सन्देश भेजता. उन दिनों स्मार्टफोन तो होते नहीं थे. लिहाजा एस. एम. एस., व्हाट्सएप, वगैरा की सुविधा नहीं थी.” 

  “फिर सन्देश कैसे भेजता था?”

“पतंग से. पतंग पर, लड़की के नाम का पहला अक्षर , चमकीली स्याही से लिखा होता और नीचे दिल का आकार, लाल स्याही से...” 

 “हाऊ रोमांटिक!” शोभित विस्मय से भर गया. भतीजे के उत्साह से उत्साहित होकर, दुबे जी, अतीत की गलियों में विचरने लगे. उन्हें याद आये, उस इश्कबाज के पैंतरे... मिनी ट्रांजिस्टर लिए, गर्ल्स- कॉलेज के पास वाले, ऑटो- स्टैंड पर खड़ा रहता... रेडियो पर, गानों का कार्यक्रम, सुनता. कॉलेज छूटने के समय, प्रायः, किसी ना किसी चैनल पर, संगीत से जुड़ी वार्ता या फिर फरमाइशी गीत रहते. पास से गुजरने वाली ‘देवियों’ को सुनाते हुए, वह अपने साथी से कहता, “रफ़ी जी भी, क्या दिलदार इंसान थे...” या “लता दीदी का तो जवाब नहीं...या फिर , “यार हम तो किशोर दा के चेले हैं”. बंदे ने सुर भी अच्छा पाया था. ठीकठाक गुनगुना लेता. 

  अपनी प्रिया को, लैंडलाइन पर फ़ोन करता तो कूट- भाषा, प्रयोग में लाता. प्रेयसी के पिता के लिए ‘डॉन ’, माँ के लिए ‘मास्टरनी जी’ और भाई के लिए ‘नेता जी ’ जैसे शब्द, इस्तेमाल होते, ताकि पैरेलल- कनेक्शन से, उनकी बातें सुनकर, कोई उनका आशय, ना समझ सके. उसकी एक ‘सखी’ ने तो कमल के फूल को, छूकर देखने की, इच्छा जताई तो वह चढ़ावे के फूल, खरीदने के बहाने, मन्दिर हो आया. फूलवाली की दूकान तक, चक्कर भी लगा लिया ; पर जब कहीं से, ‘राष्ट्रीय पुष्प’ का, जुगाड़ न हो सका तो उसके फेर में, ‘बोटैनिकल- गार्डन’ के ताल में, जा कूदा. वहां से कमल चुराकर, भाग ही रहा था कि माली ने दौड़ा लिया.

  खैर...जूनून तो उसमें कूट- कूटकर भरा था. कागज में दिल का आकार बनाकर, उसे तीर से भेद देता और अपनी किसी ‘चाहनेवाली’ को पकड़ा देता. जो भी हो...प्रेमपत्र, अपनी हस्तलिपि में, लिखने का, दुस्साहस कभी नहीं किया. टाइपराइटर से छपे, सांकेतिक भाषा के अक्षर, कागज की पाती में रहते. उन दिनों कम्प्यूटर- प्रिंटिंग का भी, नया- नया चलन हुआ था; किन्तु कम्प्यूटर में, महारत हासिल करना, उस जैसों के लिए, आसान नहीं था. 

इश्क की बाजीगरी के, किस्से सुनाते हुए, चाचू, मुख्य मुद्दे पर आ गये. कॉलोनी में, एक कमसिन कन्या का, अवतरण हुआ था. बला की खूबसूरत थी, वह सुकुमारी. उसके आगमन के बाद, चाय की टपरियों, नालियों पर बनी पुलिया; सड़कछाप ढाबों और पान की दुकानों पर, खलबली सी मच गई. ‘लड़की का नाम कुछ रख लेते हैं”, माधव ने भतीजे को सुझाया, “ताकि उसकी कथा कहने में, सुविधा हो जाए” 

“उसका असली नाम, आपको याद नहीं?”, शुभू का त्वरित प्रश्न था. “याद क्यों नहीं...लेकिन किसी कुलीन स्त्री   की... निजता को उघाड़ना, ठीक नहीं...” इस पर शोभित, कोई प्रतिवाद, नहीं कर सका. चाचा ने गंभीरता से पूछा, “लड़की को पारो कहें...? उसके प्रेमी का भी, भला सा नाम रख लेते हैं; देव कैसा रहेगा?” 

“प्रेमी...?!” शुभू को झटका सा लगा. चाचा, परिहास के, लहजे में बोले,

“इब्तिदा- ए- इश्क है; रोता है क्या, 

आगे आगे देखिये, होता है क्या” 

शोभित को, कौतुहल में जकड़ा हुआ पाकर, दुबे जी ने बताया, “ देव एक भलामानुस था. उससे पहले, दुष्ट मनोहर ने भी...पारो संग, अपनी किस्मत आजमाई थी” “क्या?!” भतीजे को लगा कि चाचा तो लगातार, ‘बाउंसर’ फेके जा रहे हैं! पारो और देव की कहानी...शरदचन्द्र के उपन्यास, ‘देवदास’ के पात्रों का, एक बिलकुल, अलहदा संस्करण...वह- जिसमें नायक देव, संभवतः, शराबी नहीं, ‘गुड बॉय’ है! कथा की धारा, अविछिन्न, बहाव में थी, “उस दुष्ट के बारे में क्या- क्या सुनाऊँ ...! पहले तो उसने, खुद अपनी बहन को, पारो के घर भेजा...बहन ने पारो से दोस्ती गांठी; दोस्ती के नाम पर, उपहार भी पेश किये. सहेली का स्नेह देख, पारो, पहले तो उपहार लेने से, इनकार न कर सकी... किन्तु जब बार- बार ऐसा हुआ...तो हाथ जोड़ दिए!”

“फिर...??”अचम्भे में शुभू, बस इतना ही बोल सका.

“फिर, उसने हमारी नायिका के पिता को, शीशे में उतारना शुरू किया...इस बार, उस पर, इश्क का पक्का रंग चढ़ा था. वह पारो को ‘टाइम- पास’ की तरह नहीं, ‘लाइफ- पार्टनर’ के तौर पर, पाना चाहता था”

पत्नी जया को, आते हुए देखकर, माधव ने कथा को विराम दिया. जया , चाचा और भतीजे के लिए, चाय लेकर आयी थीं. शुभू ने टाइम- पीस पर, नज़र डाली. यूँ लगा मानों, घड़ी का काँटा, अटक गया हो...जया चाची, वहीं बैठकर, चाय की चुस्कियां भरने लगीं और उनकी उपस्थिति, चाचू को... आगे का वृत्तान्त, सुनाने से, रोक रही थी...उस मौन में, कोई रहस्य, गहरा रहा था ... व्यग्रता, उत्तरोत्तर, बढ़ती चली जाती थी. यह तो अच्छा हुआ कि जया चाची, स्वयं ही, वहाँ से उठ खड़ी हुईं. हो सकता है उन्हें, दो पुरुषों के बीच; चलने वाली, गुप्त वार्ता का, अनुमान हो गया हो. 

जया जाने लगीं तो चाचा और भतीजे की दृष्टि, आपस में टकराई. मूक प्रश्न और प्रतिप्रश्न हुए. चाचा से भतीजे की आतुरता, छुप ना सकी; वे जान गये कि शुभू, पूरा किस्सा, सुने बिना; उनको नहीं छोड़ने वाला. लिहाजा पूछ बैठे, “ तो मैं कहाँ था?’

“खलनायक, नायिका को, प्रभावित करना चाहता था” शुभू फट से, यों बोला; जैसे चाचा के सवाल का, जवाब देने को... तैयार बैठा हो! चाचू कहने लगे, “उसने लड़की के पिता को, अपने पैतृक व्यापार में, भागीदारी का, लालच दिया. उसके भाई को भी तरह- तरह के, सब्जबाग दिखाए”

“तो...?” शोभित की सपाट प्रतिक्रिया से, पहले तो वे, हतप्रभ हुए; फिर बोले, “तो क्या...?! युवतियों को बस में करना, उसे खूब आता था. पारो भी उसकी, ‘छलिया’ अदाओं से, अछूती न रह सकी. उसकी माँ को छोड़कर, घर के सभी लोग, मनोहर को, पसंद करने लगे थे. मनोहर ने भी सोच लिया कि अपनी ‘रासलीलाओं’ पर, अंकुश लगा देगा. अलबत्ता पारो को, यह भरोसा दिलाना था कि यदि वह उसे, पहले मिली होती; तो भूलकर भी, किसी दूसरी का, नाम नहीं लेता. यद्यपि उसका परिवार, जात- गोत के मामले में, पारो के कुनबे से, उन्नीस बैठता था; तथापि रिश्ते की संभावना से, इनकार नहीं किया जा सकता था. 

उसके डैड, खुद चाहते थे कि वह, किसी सीधी- सादी कन्या से, बंध जाए ...ताकि उसकी आवारागर्दी और छुट्टे सांड की तरह, घूमना- फिरना बंद हो...उसे अपनी जिम्मेदारियों का एहसास हो...लेकिन...!!”

“लेकिन?!”

“इससे पहले कि पारो और मनोहर के बीच, कोई सिलसिला, जोर पकड़ता; हमारा नायक, आ धमका!”

“क्या सही समय पर, एंट्री मारी!” शोभित कहे बिना, रह न सका. चाचू धीमे से मुस्काये. अगला परिदृश्य, उनके शब्दों में, झलकने लगा, “देव, पारो के मकान से सटे मकान में, अपनी मौसी के यहाँ, अस्थायी तौर पर रहने आया. साथ में, उसका छोटा भाई भी था. पहलेपहल उसके आने को, पान की दुकान, चाय की टपरियों, नालियों की पुलिया और सड़कछाप ढाबों वाले; उद्दंड युवकों ने, तटस्थ भाव से ग्रहण किया. उन्हें कहाँ मालूम था कि वह, उनके ‘चहेते’ का, प्रतिद्वंदी बन जाएगा.”

  चाचू ने पाया, शुभू की नजर, उन पर ही टिकी थी. लम्बे बखान से, उकताहट के बजाय, उत्सुकता बढ़ रही थी. बात चलती रही, “ देव, स्थानीय डिग्री कॉलेज में; भौतिकी के, प्रवक्ता- पद पर, नियुक्त हुआ था. एम. एस. सी. में, स्वर्ण- पदक मिलने के कारण, पी. एच. डी. किये बिना ही, उसे नियुक्ति मिल गयी. इस लिहाज से, वह अन्य प्रवक्ताओं से, उम्र में काफी छोटा था”

“मोस्ट एलेजिबिल बैचलर!” शोभित अपनी राय देने से, चूका नहीं.

“सही कहा...वह देखने में भी सुदर्शन था...किन्तु मनोहर जैसा रंगबाज़ नहीं, सुरुचिपूर्ण और सादगीपसन्द व्यक्तित्व का स्वामी...” माधव के मुख पर, एक अर्थपूर्ण, स्मित खिल गई. कथा, एक रोचक मोड़ पर, पहुँच चुकी थी, “हमारा नायक, एक दिन, भौतिक- विज्ञान की प्रयोगशाला, जा पहुँचा. उसकी वहाँ, ड्यूटी रही होगी.” 

“अच्छा...” शुभू ने वार्तालाप में, अपनी भागीदारी जताई. 

“वहाँ अच्छा ख़ासा, मछली- बाजार बना हुआ था. जिन छात्रों को, उपकरणों की कार्यप्रणाली, समझ नहीं आ रही थी; मित्रों से, जानने का प्रयत्न कर रहे थे; उनमें से कुछेक, सही आंकड़े, नहीं मिलने के कारण; अपने मन से, आंकड़े बनाकर, रिपोर्ट में, दर्ज करने की सोच रहे थे. कुछ उपकरण, सही से काम नहीं कर रहे थे. इस वजह से भी, चिल्लपों मची हुई थी . ऐसे में, लैब- सुपरवाइजर की हैसियत से, देव का प्रवेश हुआ. उसका काम, लैब में, छात्रों का सहयोग करना था.” शुभू को जान पड़ा; समूचे घटनाक्रम में, नाटकीयता का समावेश, होने वाला था... बिलकुल सही अटकल, लगाई थी उसने! 

 चाचू के विवरण से, इस बात की पुष्टि भी हुई, “ ‘चुप करो...शोर नहीं मचाओ’ देव ने चिल्लाकर, निर्देश दिया. पारो, उधर ही, कोई प्रयोग, कर रही थी. उसे लगा कि विज्ञान- वर्ग का ही कोई छात्र, अपनी दादागिरी दिखा रहा होगा. उसने ललकार भरे स्वर में, उत्तर दिया, ‘क्यों चुप करें...क्यों शोर नहीं मचाएं?’ उसके तेवर देख, देव सहम गया और चुपचाप वहाँ से खिसक लिया...”

“ओह...!” वातावरण में, मीठी सिहरन, उतर आई थी. चाचू ने उसके बाद, शोभित को, बहुत कुछ बताया. यह कि नायिका इस बात से, बहुत लज्जित हुई कि उसने अपने टीचर को, कमउमर का लड़का समझ, उनसे बेअदबी कर डाली. देव, जब तब, पढ़ाई में; पारो की मदद कर देता. उसकी मौसी को भी, उन दोनों की जोड़ी, अच्छी लगने लगी . समस्या यह थी कि अपनी ही छात्रा से, प्यार का इज़हार, शोभनीय नहीं था. फिर भी दिल की बात, देव को...किसी तरह, पारो तक पहुँचानी थी .

  “जानते हो, इस समस्या का हल, देव ने कैसे निकाला?” माधव ने शुभू पर, सवाल जड़ दिया. शोभित, चकराकर, उनको देखने लगा, तो वे कह उठे, “देव जिस प्रकार, पारो की सहायता, प्रयोगशाला में करता था; वे अनुग्रह भी, उसके निःशब्द प्रेम को, प्रकट करते थे...एक बार तो, बहुत मजे की घटना हुई”

भतीजे की भाव- भंगिमा से, उत्कंठा, झलक रही थी. चाचा ने पुनः, कहना शुरू किया, “एक बार, हमारी नायिका, दूरबीननुमा, बेढब यंत्र को थामे; लैब के पीछे वाली, बिल्डिंग की, ऊँचाई नापने के, फेर में रही. यह उसका असाइनमेंट भी था...वह लैब के, बाहर खड़ी थी. तेज़ धूप, आँखों में पड़कर, व्यतिक्रम पैदा कर रही थी...इतने में कला - संकाय के, कुछ मनचले, वहां से गुजरे. पसीने में नहाई, भारी- भरकम उपकरण सहेजे ... दूरबीन से ताकती पारो; उनको अजूबा लगी. ” घटना का रुचिकर, सरस वर्णन; शोभित को, बहुत भा रहा था. 

चाचू बोलते रहे, “उनमें से एक ने टिप्पणी की, ‘यार, यह क्या देख रही है?’    

‘जरूर से, शाहरुख़, सलमान, अमिताभ या संजू बाबा में से... कोई तो नज़र आ रहा होगा’ दूसरे लड़के ने, अकल के घोड़े दौड़ाए. इतने में देव, प्रयोगशाला से, निकला. उसने उन, बड़बुकों को, धमकाते हुए कहा, ‘अभी दिखाता हूँ, तुम सबको- अमिताभ, सलमान, शाहरुख़ और संजू...!’ इतना कहना था कि वे, सर पर पैर रखकर, उधर से भाग खड़े हुए ...हीरोइन जोरों से हंसी!”

“हंसी तो फंसी!”

“सच कहा...इसके बाद तो, उन दोनों के बीच; यदाकदा, बातचीत होने लगी. पारो, मौसी से मिलने के बहाने, देव के घर, आ जाती. देव का छोटा भाई, पारो की क्लास में था. वह यों ही पारो से, बड़े भैया के बारे में बताता, “पारो...भैया सन्डे को दस बजे, सोकर उठते हैं...फिर एक्सरसाइज करते हैं. उनका लंच और ब्रेकफ़ास्ट, एक साथ, हो जाता है. छुट्टी के दिन, लंच नहीं; ‘ब्रंच’ होता है उनका!” उसकी हर बात, पारो को, बहुत मीठी लगती. पारो की सहेली, जो मौसी की, परिचिता की बेटी थी; अक्सर मौसी से, ऊँची आवाज में बतियाती...ताकि देव भी सुन पाए. वह जानबूझकर, पारो के विषय में बतलाती.” शुभू का मन, पूरी तरह से; चाचू की दास्तान में, रम गया था. सवालिया निगाह, उस पर , टिकाते हुए, वे पूछ बैठे, “अब तक तो तुम समझ गये होगे कि नायक के छोटे भाई और नायिका की सहेली की, यहाँ, क्या भूमिका थी?

“ऑफ़ कोर्स...दे वर, लव- मैसेंजर्स...सो स्वीट!”

“हाँ...वे दोनों, प्रेमदूत ही थे! सब कुछ सही चल रहा था. घटनायें, इतने गुपचुप तरीके से, आकार ले रही थीं कि मनोहर और उसके ‘गुर्गों’ को, कानोंकान खबर ना हुई; लेकिन एक दिन तो... पता चलना ही था!!”

“ओह नो...तो फिर ?!”

“फिर खलनायक ने, देव को, तरह- तरह से धमकाया...लेकिन वह, टस से मस, नहीं हुआ. एक दिन तो हद हो गई...मनोहर ने, हमारे हीरो को ललकारा कि वह... पारो को, अपना बनाकर दिखा दे. हमारा हीरो भी कुछ कम न था. उसने डंके की चोट पर, वह चुनौती स्वीकार कर ली. घटना के साक्षी, मुहल्ले के, आवारा, नाकारा भी रहे.”  

अजब- गजब पड़ावों से गुजरती...कभी हंसाती, कभी चौंकाती तो कभी संशय में डालती हुई... दास्ताने- इश्क, अपना रंग जमा रही थी, “देव और पारो का प्यार, दिनोंदिन, परवान चढ़ने लगा. ब्याह तक बात, पहुँचने वाली ही थी...कि...”

“कि...?!”

“एक दिन जब देव, पारो के घर में, उसके संग, गपशप कर रहा था...वहाँ ना जाने कैसे, मनोहर आ पहुँचा ...शायद पारो के पिता, श्याम जी से मिलने...उन दो प्रेम- पंछियों को, साथ देखकर, उसके दिल में, कुटिलता आ गयी...!”

“तो फिर...क्या हुआ? व्हाट हैपन्ड एग्ज़ेक्टली??” स्थिति, लोमहर्षक हो चली.

“एग्ज़ेक्टली क्या हुआ...यह तो पता नहीं; परन्तु बहुत सहज होकर, वह देव से बोला, ‘मान गये दोस्त...प्यार की बाजी, तुम जीत गये!’ 

‘क्या! तुमने बाजी खेली है मुझ पर?’ पारो चिहुंक उठी. 

‘तुम बिलकुल गलत समझ रही हो ...उसने मुझे चैलेंज दिया...कि तुम्हें, अपना बनाकर दिखा दूँ...आई जस्ट एक्सेप्टेड दैट चैलेंज’

‘बाजी, शर्त, चैलेंज ...लव इज़, जस्ट अ गेम फॉर यू...और मैं दांव पर लगी गोट!’...”

“जब उनके बीच, इस तरह का संवाद, होने लगा...मनोहर चुपचाप, वहाँ से निकल गया...शातिर खिलाड़ी जो ठहरा...” चाचू ने ठंडी आह, भरते हुए बताया.

“दोनों के बीच, आग तो लगा ही चुका था”

“हाँ...बाद में हीरो ने, हीरोइन को, समझाने की कोशिश भी की थी...यह कि उस लफंगे के, कहे में आकर..वह भयंकर भूल कर रही थी; फिर भी... कुछ ऐसी खिचड़ी पकी...कि परिस्थितियाँ, देव के खिलाफ हो गईं. पारो का लोभी पिता श्याम जी, पहले ही, मनोहर के बस में था... पारो का भाई भी, मनोहर के, एहसान तले दबा था. धूर्त खलनायक की बहन... पारो की माँ को, देव की कमियाँ, गिनाती रही...किस- किसने, पारो के कान भरे होंगे, पता नहीं! सरल- स्वभाव वाला देव, इश्क में, पड़ी गिरह, सुलझा ना सका.”

शोभित हैरान था. इधर माधव दुबे, जाने किस धुन में, गुनगुना रहे थे- 

“किस कदर याद है, अपने थे सभी

किसने क्या चाल चली, याद नहीं 

शामे- गम कैसे कटी, याद नहीं 

 कब तलक शम्मा जली, याद नहीं ”

थोड़ी देर बार, वे संभलते हुए, शुभू से बोले, “तो यह थी हमारे समय की, प्रेमकथा...जो असफल होते हुए भी, मन को लुभाती थी’

“पुराना प्रेम- प्रसंग- कैसा अद्भुत ..खट्टे- मीठे, तजुर्बों की पिटारी” कहते हुए, शोभित, कुछ उदास हो गया. चाचू ने भतीजे की, उदासी को पढ़ लिया और तसल्ली देते हुए कहा, “हर कहानी में, कुछ न कुछ, अच्छा तो होता ही है...हीरो का भाई और हीरोइन की सहेली- जो प्रेमदूत बने थे, लव- मेसेंजर यू नो…याद है?”

“हाँ...” शोभित ने, मरियल सी आवाज में, उत्तर दिया. उसका जी, उखड़ने सा लगा था.

चाचू बोले, “देव और पारो के, सम्बन्ध- विच्छेद को लेकर...वह आपस में झगड़ने लगे. फिर उन्हें लगने लगा; वे बेकार ही, झगड़ रहे थे. नायक, नायिका के बीच हुई तकरार में, उनकी दूर दूर तक...कोई भूमिका नहीं थी”  

शुभू अब, माधव को, ध्यान से सुन रहा था. उन्होंने पुनः, कहना शुरू किया, “ लव- मेसेंजर्स की, आपसी खटपट बंद हुई . जान- पहचान तो पहले से थी...धीरे- धीरे दोस्ती भी बढ़ी और ...”

“और...??”

“यू नो, दे आर नाऊ हस्बैंड एंड वाइफ!”

“अरे...अच्छा!!” शोभित के लिए, यह, सुखद आश्चर्य था. 

“एक और अच्छी बात हुई, इस दास्ताँ में...वह काइयाँ मनोहर, पारो पर... अपना हक, नहीं जमा पाया. एक आपराधिक मामले में, उसे जेल हो गई.”

“गुड इनफ...” मनोहर का अंजाम जानकर, शोभित के दिल को, ठंडक पहुँची. उसने चाचा से, आख़िरी सवाल किया, “चाचू...इस स्टोरी के, किरदारों को...आप जानते तो होंगे...उनके बारे में..”

“सॉरी बेटा...मेरे एथिक्स...मेरी नैतिक- जिम्मेदारी...मुझे, किसी की, निजी - पहचान, जाहिर करने से रोकती है” माधव दुबे, एक मार्मिक मुसकुराहट, सजाते हुए बोले. वे भतीजे को, कैसे बताते कि स्वयं वे और उनकी पत्नी जया, ‘तथाकथित’ ‘लव मेसेंजर्स ’ हैं! तुहिन दुबे- यानी शुभू के पिता, देव ...और पारो- दिवंगत सुमन उपाध्याय थीं...सुमन उपाध्याय- वल्लरी की माँ...वही वल्लरी- जिससे शोभित, शादी के सिलसिले में, मिलने वाला था !


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