मरीचिका
मरीचिका
ललित ने कॉलेज के दिनों से ही, उस मनमोहिनी छवि को, दिल में बसा रखा था। अफ़सोस इस बात का कि वे उन दिनों, बेहद दब्बू किस्म के, हुआ करते थे। उर्मि से, अपनी चाहत का इज़हार कर पाना, उनके बस में नहीं था। ललित ने एक बार, उसे गुंडों से भी बचाया था। उस घटना के बाद, उर्मि , उनसे मित्रवत व्यवहार करने लगी थी। उन्होंने चाहा था कि वह सिलसिला, दोस्ती से भी एक कदम आगे बढ़े....परन्तु दुर्भाग्य....! ऐसा न हो सका।
एक दिन उर्मि, अपने मंगेतर साकेत को, उनसे मिलवाने ले आई थी। ललित को अपने भीतर, कुछ चटकता हुआ सा लगा; उनके हालेदिल से, उर्मि बिलकुल बेखबर रही....! उसके विवाह का निमंत्रण- पत्र, उन्होंने आग में झोंक दिया था! हाँलांकि बाद में पछताए थे; शादी का कार्ड नहीं जलाते तो उर्मि के बदले हुए उपनाम और ठौर- ठिकाने की जानकारी मिल सकती थी।
ललित ने, खुद को समझा लिया- जिस राह जाना नहीं, उसका पता क्या पूछना! समय बीतता रहा। उनको सुंदर, सुशील रश्मि का, साथ मिला। परन्तु मन में, एक अजानी मरीचिका ने, घर कर रखा था। पत्नी की तुलना, अनचाहे ही, वे उर्मि से कर बैठते। रश्मि में, वैसा चुम्बकीय आकर्षण कहाँ था!
एक रोज, उर्मि से आमना- सामना, हो ही गया। वे किसी आयोजन में, सपत्नीक पधारे थे। साकेत और उर्मि भी वहाँ पहुँचे। उनकी और साकेत की, औपचारिक बातचीत होने लगी और उर्मि....! वह तो रश्मि से, ऐसे मिली, मानो मेले में बिछड़ी बहन हो! दोनों स्त्रीसुलभ बतकही में लिप्त हो गईं। ललित ने कनखियों से, पत्नी संग बतियाने वाली महिला को देखा। थुलथुल देह वाली वह स्त्री, घर- परिवार, बच्चों और दुनियादारी की बातें कर रही थी। वह एक माँ, एक घरैतिन....एक पत्नी थी; उनकी ‘स्वप्नसुन्दरी’ तो कदापि नहीं! वे मरीचिका से उबर रहे थे!!