Vinita Shukla

Inspirational

4.5  

Vinita Shukla

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योगदान

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 ऋतम्भरा जी, बैठक से उठकर, अपने शयन- कक्ष में, चली आयी थीं। लिविंग- रूम के ९५ इंच वाले वॉल टी. वी. पर, कोई राजनैतिक- बहस छिड़ी हुई थी। विभिन्न पार्टियों के कार्यकर्ता, एक- दूसरे पर, लांछन लगाते हुए, चीख- चिल्ला रहे थे। कार्यक्रम की सूत्रधार, उनसे शांति की अपील, कर रही थी, किन्तु अपनी टी.आर. पी. का लिहाज कर, यदा- कदा, आग में, तेल छिड़क देती! ऋतम्भरा जी का मन, यह देख- सुनकर, खीज उठा। उनका बेटा, अपने दोस्तों के साथ बैठकर, इस तमाशे पर हंस रहा था, किन्तु उन्हें हंसी नहीं आयी। वर्तमान राजनैतिक- परिदृश्य, चिंताजनक था। स्वतन्त्रता के बाद, राष्ट्रीय-गरिमा का विचार करने वाली जनचेतना, सो गयी थी।   

   उनका हृदय, तिक्तता से भर उठा। व्यंग्य भरी टेढ़ी मुस्कान, चेहरे पर पसर गई। स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान, उमड़ने वाली, देशभक्ति की लहर, कबकी मंद पड़ चुकी थी। वह उत्साह…सागर में उठने वाले ज्वार सा… ठंडा पड़ गया।

देश के नाम पर, हंसते-हंसते, प्राणाहुति देने वाले वीर, इतिहास बन गये थे। अब तो निजी स्वार्थ, देशहित पर हावी थे। गरीबी, महंगाई, भ्रष्टाचार, अनाचार, क्षेत्रवाद, जातिवाद तथा निरक्षरता आदि विविध समस्याएं, सुरसा की तरह, मुंह फाड़े खड़ी थीं।

धर्म के नाम पर तांडव तो, देश के विभाजन के समय भी हुआ, आतंकवाद तथा असहिष्णुता के रूप में- वही दुर्भावना, अस्थिरता फैला रही थी!

    वे सायास, अपने विचारों से बाहर आयीं। यह तो अच्छा था कि जनजागरण के लिए, आजादी का अमृत- महोत्सव, मनाने का प्रस्ताव हुआ। सम्प्रति एक अवसर था- अपनी बुराइयों पर मनन करने का....उनके खिलाफ लड़ने का....७५ बरसों की स्वतंत्रता के इतिहास में, अपनी उपलब्धियों और विफलताओं को जानने का।

   ऋतंभरा जी, अपने युवाकाल को याद करने लगीं, जब सामाजिक- कार्यकर्ता के रूप में, उनकी एक प्रतिष्ठा थी। उनकी गतिविधियाँ, आमजन के कल्याण पर, केन्द्रित रहतीं। उनके भावी पति भी उन्हें, उनके ऐसे ही कार्यकलापों के कारण, जानने लगे थे। प्रशासनिक अधिकारी अमन की पत्नी बनकर, वे फूली नहीं समाई थीं। यह बात दूसरी है कि गृहस्थी में उलझकर, सामाजिक सरोकारों से, उनका कोई वास्ता ना रहा। यदि वे कुछ और समय तक, अविवाहित रहतीं तो देश की, किसी नामी राजनीतिक पार्टी का, टिकट पा जातीं। अपने स्वतंत्रता- सेनानी पिता से, उन्हें विरासत में मिली जागरूकता....उस जागरूकता का शतांश भी, नई पीढ़ी में नहीं है। उनके पोते- पोतियाँ, अपने स्कूल- कॉलेज, दोस्तों और छद्म- संस्कृति के दायरे में बंधे हैं.... उनकी सोच, इन सबसे, उबर नहीं पाती!

   “दादी....!” उनकी दोहती समिधा ने, उनके कंधे पर, सर रख दिया। इस अप्रत्याशित अनुग्रह का कारण, समझ ना आया। “क्या बात है , बिटिया....आज दादी की याद कैसे आ गई?!” हालांकि यह ऋतंभरा जी ने, हंसते हुए, सहज भाव से कहा था, परन्तु उनका प्रश्न सुनकर, कन्या सकुचा गयी। सच ही तो था, पढ़ाई- लिखाई के बोझ तले दबकर, करियर की चुनौतियों से जूझते हुए....स्कूल और कोचिंग से मिला, गृहकार्य निपटाते हुए.... वह किशोरी, किसी के लिए, समय नहीं निकाल पाती। यदि समय मिलता भी.... तो जिम जाकर, वर्जिश करने में और सहेलियों के साथ, अंतरजाल में, ‘चैटिंग’ करते हुए, ‘फुर्र’ हो जाता। दादी की उन कहानियों को, वह लगभग भूल ही चुकी जो बचपन में उनसे, बहुत चाव से, सुना करती थी,  विशेषकर, आज़ादी की लड़ाई में- दादी के, सत्याग्रही पिताजी से, जुड़े किस्से।

  “सुमू....क्या हुआ बच्ची??” दादी ने, उसे प्यार के नाम से पुकारा तो वह होश में आयी । “दादी अम्माँ....!” उसने चाटुकारी भरे स्वर में कहा, “आई नीड योर हेल्प....प्लीज़.... मेरी मदद कर दीजिये”

“हाँ हाँ....क्यों नहीं....बोलो सुमू!”

“अभी पिछले हफ्ते....हमारी क्लास- मिस ने बताया कि देश में, आजादी का अमृत- महोत्सव मनाया जा रहा है....” कहते हुए उसने, दादी अम्माँ को, चोर दृष्टि से देखा। ऋतंभरा जी के, हाव- भाव से, स्पष्ट था कि वे बिन कहे ही, बहुत कुछ समझ चुकी थीं!

“उन्होंने अमृत महोत्सव पर, लेख लिखने को बोला है?” ऋतंभरा जी ने प्रतिप्रश्न किया। “नहीं....अमृत महोत्सव के बारे में तो उन्होंने, खुद हमें बताया।” समिधा अब, अपना प्रयोजन, स्पष्ट कर देना चाहती थी, “हमारा डिस्कशन था- आजादी के ७५ सालों में, हमने क्या कुछ खोया और पाया”

“चर्चा के, मुख्य विचार....आई मीन- डिस्कशन के, मेन पॉइंट क्या थे?” ऋतंभरा जी, सुमू को परीक्षार्थी और स्वयं को मूल्यांकनकर्ता की, भूमिका में, देख रही थीं।

“हमने जो पाया उसमें- फर्स्ट ऑफ़ आल.... ग्रॉस जी. डी. पी. में बहुत ग्रोथ हुई है, हमने साइंस और टेक्नोलॉजी में काफी कुछ अचीव किया है....दूसरी फ़ील्ड्स में भी....”

“तुम्हारा मतलब- सकल घरेलू उत्पाद का ग्राफ, तेजी से बढ़ा है....विज्ञान और तकनीक में भी ऊँचे पायदान तक पहुँचे हैं और दूसरे कई क्षेत्रों में भी उन्नति और विकास हुआ है”

“जी....” दादी के, हिन्दी तजुर्मे को सुनकर, सुमू, अपने भीतर, कुछ और सिकुड़ गयी। ऋतंभरा जी के चेहरे पर एक मार्मिक मुस्कान थी, “पाने की सूची बहुत लम्बी है लेकिन अपनी उपलब्धियाँ गिनाने को भी, हमारे युवा वर्ग को, उसी अंग्रेजी का सहारा लेना पड़ता है, जो गुलाम भारत की अधिकारिक भाषा थी....गुलामी ने हमें कई साल पीछे धकेल दिया....विज्ञान और तकनीक की.... शब्दावली भी, हिन्दी में विकसित नहीं हो सकी....इस कारण आज भी उच्च शिक्षा, अंग्रेजी की मोहताज है”

“जी दादी....लेकिन सारे इंडियन- स्टेट्स, हिन्दी- स्पीकिंग नहीं हैं....उन्हें कनेक्ट करने के लिए, कोई कॉमन लैंग्वेज नहीं, इस कारण भी इंग्लिश की वैल्यू, बरकरार है” समिधा ने किसी भांति, साहस करके कहा, “एनीहाऊ....स्प्रिचुअल और ह्यूमन- वैल्यूज के मामले में, हम अभी भी अंग्रेजों से आगे हैं....हमारी कल्चरल हेरिटेज भी....” उसे आगे कहने के लिए, शब्द नहीं मिल रहे थे।

 “आध्यात्मिक और मानवीय- मूल्य ही क्यों....जीवन का कोई भी आयाम, हमारे विद्वानों से अछूता नहीं था....विश्वगुरु रहा है, हमारा भारत!!” कहते- कहते, दादी को लगा कि वे विषय से, भटक रही थीं। उन्होंने स्वयं को, नियंत्रित करते हुए, पूछा, “तुम कोई अनुरोध....कोई रिक्वेस्ट, लेकर आई थीं....”

“जी....हमारी अचीवमेंट वाली, लिस्ट के अलावा, जो दूसरी लिस्ट है....” सुमू पुनः, अपनी बात रखने के लिए, शब्दों को संयोजित, नहीं कर पा रही थी। “आजादी के ७५ वर्षों में हमने जो खोया- उसकी फेहरिस्त?” ऋतंभरा जी ने पोती की, मदद करते हुए, कहा। “एग्ज़ेक्टली!” पोती, अपनी दादी की, समझ से, चमत्कृत थी। “व्हाट अबाउट दैट लिस्ट?” इस बार, ऋतंभरा ने, समिधा के ही अंदाज़ में, सवाल किया।

“अमृत महोत्सव में, हमें अपना कुछ कॉन्ट्रिब्यूशन देना है....ताकि हमने जो खोया, उसे थोड़ा ही सही....रिकवर कर सकें”

“आजादी के महाउत्सव में योगदान .... महायज्ञ में, तुच्छ, तदपि अनिवार्य आहुति !” ऋतंभरा जी ने, रोमांच और अचम्भे के, मिले- जुले संवेग का, अनुभव किया, तदनन्तर संभलते हुए बोलीं, “अभी तुम जाओ....मैं कुछ सोचकर बताती हूँ”

“फॉर श्योर?!”

“यस....! फॉर श्योर, माय डिअर!!”

 इस बात को, मुश्किल से, दो ही दिन हुए होंगे.... दादी और पोती, सुबह- सबेरे, इंदौर से महेश्वर, लॉन्ग ड्राइव पर निकल गईं। रास्ते में दादी अपनी दुलारी पोती को, उनके गन्तव्य के बारे में, बताती रहीं। उन्हें महेश्वर किले तक जाना था, जहाँ इंदौर के, अंतिम महाराजा के, बेटे द्वारा स्थापित, ‘रेवा सोसाइटी’ थी। वहाँ- जहां हाथ से बुनी, अद्भुत कारीगरी वाली साड़ियों की बहार थी....हस्तशिल्प की गौरवमयी परम्परा व २५० वर्षों पुराना कुटीर- उद्योग- जिसे होल्कर वंश की महान शासक, अहिल्याबाई होल्कर का प्रश्रय मिला।

“हम वहाँ क्यों जा रहे हैं?” समिधा ने, किसी जिज्ञासु शिशु की भाँति प्रश्न किया। उस भोली सी जिज्ञासा ने, दादी ऋतंभरा को, गुदगुदा दिया। वे हंसकर बोलीं, “हम भी उन सुंदर साड़ियों को देखेंगे और अपनी पसंद की कुछ साड़ियाँ खरीदेंगे”

“बट.... व्हाट इट हैज़ टु डू, विद माय स्कूल- प्रोजेक्ट ?” सुमू बेचैन हो उठी।

“इट हैज़ एवरीथिंग टु डू, विद योर प्रोजेक्ट....हैव पेशेंस समिधा!” दादी की, त्वरित प्रतिक्रिया थी। समिधा की बढ़ती बेचैनी को, भांपकर, वे प्रेम से उसे समझाने लगीं, “अच्छा बताओ, विदेशी कपड़ों की होली क्यों जलाई गई?”

समिधा ने ध्यान से सोचा तो इतिहास के पाठ्यक्रम का, वह तथाकथित अध्याय, स्मृति में पुनर्जीवित हो उठा। उसने ऋतंभरा जी को बताया, “अंग्रेजों की फैक्ट्रियों में बने कपड़े.... हमारे देश की, कॉटेज इंडस्ट्री के लिए.... ख़तरा बन गये थे....”

“एग्जैक्टली!” ऋतंभरा जी उत्साह से भर गईं, “कुछ वैसा ही खतरा, आज भी, हमारे लघु उद्योगों....आई मीन, कॉटेज इंडस्ट्री पर मंडरा रहा है” सुमू ने आश्चर्य से भरकर, उन्हें देखा। ऋतंभरा, दोहती की व्यग्रता को, पढ़कर भी, तटस्थ बनी रहीं। उन्होंने गुरु गंभीर भाव से कहा, “तुम जो विदेशी ब्रांड की ड्रेसें पहनती हो, उस तरह का एक आउटफिट.... बीस हजार रूपये के, आसपास होता है” कहते हुए, उन्होंने सुमू पर, सवाल दाग दिया, “ऍम आई राईट?” समिधा की मूक सहमति पाकर, वे आगे बोलीं, “उतने में तो, अच्छी वाली, दस महेश्वरी साड़ियाँ आ जाएँ !”

सुमू निरुत्तर हो गई, वह दादी का आशय समझ गई थी।

चार दिन बाद, सुमू का जन्मदिन था। वह रेवा सोसाइटी से खरीदी हुई, साड़ी पहनकर, बर्थडे केक काटने के लिए, तैयार थी। उसकी सहेलियाँ, उसे इस परिधान में देखकर, हैरान थीं। उनमें से एक कह उठी, “व्हाट इस दिस समिधा? इतना ओल्ड- स्कूल फैशन....बहनजी टाइप....दैट टू, फॉर योर ओन बर्थडे?”

सुमू ने तमककर जवाब दिया, “व्हाट आर यू सेइंग? दिस इज़ एवरग्रीन फैशन। नथिंग कैन बीट द ग्रेस ऑफ़ अ साड़ी....हमारी लेट पी. एम. इंदिरा गाँधी जी और बांग्लादेश की प्राइम मिनिस्टर शेख- हसीना जी.... यही तो पहनती रहीं....इसने तो अब्रॉड कन्ट्रीज में भी....धूम मचा रखी है!”

“कहाँ से ली?” एक दूसरी सखी ने प्रश्न किया जो समिधा की, वेशभूषा में आये, क्रांतिकारी बदलाव को, पचा नहीं पा रही थी! “दिस इस फ्रॉम, फेमस रेवा सोसाइटी!” दादी और पोती की नजरें मिलीं। दोनों आँखों ही आँखों में मुस्कराईं।

कक्षा- परियोजना की, समय- सीमा, समाप्त हो गई। सभी छात्राएँ, अमृत- महोत्सव के संदर्भ में, प्रस्तुतिकरण के लिए, तत्पर थीं। सुमू की सहपाठिनों ने, असाइनमेंट पूरा करने को, अपने- अपने स्तर पर, प्रयत्न किये। किसी ने विधवाश्रम तो किसी ने, अनाथाश्रम को दिए गये, अनुदान की रसीदें दिखाईं। एक छात्रा ने, भ्रष्टाचार की प्रक्रिया पर, सचित्र चार्ट बनाया था। कोई दूसरी, अमृत महोत्सव पर, भाषण लिख लाई। उनमें से एक ने, सस्वर, देशभक्ति गीत, सुना दिया। समिधा की बारी आयी तो उसने रेवा सोसाइटी जाने का, सम्पूर्ण ब्यौरा, प्रस्तुत किया। उसमें फोटो- एल्बम के साथ, घटनाक्रम का विवरण था।

सबके प्रोजेक्टों पर गौर कर, कक्षाध्यापिका ने कहा, “आप सभी के प्रयास सराहनीय हैं, पर समिधा के प्रयास की, मैं विशेष तौर पर, सराहना करूँगी। आप सबने, अमृत- महोत्सव के, लक्ष्य को, सुगम बनाया जबकि समिधा ने, उसमें निहित आदर्श को- खुद अपने, जीवन में, उतार लिया!”

घर लौटते हुए, सुमू का मन, उमंग से छलक रहा था। उसने आते ही, ऋतंभरा जी को, गलबहियाँ डाल दीं और चहककर बोली, “धन्यवाद दादी माँ!” ऋतंभरा चौंक गईं, “आज थैंक यू के बजाय- धन्यवाद! सूरज पश्चिम से निकला है क्या?!”

“नहीं....लेकिन वादा करती हूँ कि अबसे हिन्दी में ही, बात करने की, कोशिश करूँगी, और अपनी परम्पराओं का सम्मान करूँगी!” समिधा के स्वर में दृढ़ता थी।

दादी ने निहाल होकर, पोती को, गले से लगा लिया।


  


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