परपुरुष
परपुरुष
समिधा का हाल, कुछ दिनों से, विचित्र सा हो गया। वह अस्त- व्यस्त रहने लगी थी। यह जरूर था कि समिधा, घर के रखरखाव का ध्यान रखती और अपने पति मिलिंद के भोजन की व्यवस्था भी, सुचारु रूप से, करती थी।
किन्तु इन दिनों वह, देर रात तक जागकर, लैपटॉप पर, कुछ लिखती पढ़ती रहती। शयनकक्ष में पतिदेव को, उसके दर्शन नहीं होते।
मिलिंद को आभास हो रहा था कि समिधा, उनसे कटने लगी थी. एक दिन उन्होंने पत्नी का घेराव, कर ही डाला, "क्या बात है...आजकल तुम बहुत व्यस्त रहती हो। मेरे लिए, तुम्हारे पास, जरा भी समय नहीं।"
"तो क्या हुआ ? आपका समय, यूँ भी मेरे लिए नहीं है। उस पर , किसी और का नाम लिखा है। " समिधा का इशारा, अपनी मौसेरी बहन नीरजा की तरफ था।
"पहेलियाँ मत बुझाओ। मुझे घुमा- फिराकर बात करना, सख्त नापसंद है। बेडरूम, बीबी के लिए होता है और तुम रोज ही लिविंग- रूम में सोने लगी हो।" मिलिंद ने ढीठ बनते हुए कहा।
"तो फिर..." समिधा ने दृढ़तापूर्वक, बात आगे बढ़ाई, "आपको मैंने अंतिम चेतावनी दी थी कि नीरजा से बातचीत और मिलना- जुलना...सब छोड़ना होगा...नहीं तो...!"
"नहीं तो... ?! अरे श्रीमतीजी, साली से, हंसी-मजाक की अनुमति तो समाज भी देता है...इसमें आपत्ति जैसी क्या बात है ? और फिर मैं ही एक ऐसा इंसान हूँ जो उसके शादी न करने पर, सवाल नहीं उठाता...उसे इरिटेट नहीं करता"
"ऐसा सवाल आप उठायेंगे ही क्यों..." कहते- कहते समिधा के स्वर में, व्यंग्य उतर आया, " आप तो चाहेंगे, शादी-विवाह के पचड़े से वह दूर ही रहे...ताकि आप दोनों बेखौफ होकर, रंगरेलियाँ मनाते फिरें"
" माइंड योअर लैंग्वेज! बोलने की छूट क्या मिल गई...कुछ भी बकती जा रही हो। थोड़ी-बहुत फ्लर्टिंग, जरूरी होती है, जिंदगी को दिलचस्प बनाए रखने के लिए..."
"जो काम छुपकर करना पड़े...उसे फ्लर्टिंग नहीं...फरेब कहते हैं...धोखा कहते हैं और अब तो आपके हौसले इतने बढ़ गए हैं कि खुल्लम-खुल्ला उस पर, प्यार जताने लगते हो ...वह भी आप जैसी है...दोनों मिलकर बेअदबी करते हो!" समिधा की बरसों की भड़ास, एक बार में, निकल आने को थी।
"तुम आखिर चाहती क्या हो ? बोलो..." मिलिंद ने धमकाने वाले अंदाज में कहा।
"यही कि उसके साथ, 'गुटरगूं' करनी हो तो कहीं और जाकर करें...आपकी हरकतों का मेरे बच्चों पर, बहुत बुरा असर पड़ रहा है"
बच्चों का जिक्र आते ही, पतिदेव कुछ नर्म पड़े और बोले, " देखो डिअर...नीरजा तुमसे कहीं बेहतर 'मैरिज- मैटीरियल' है"
थोड़ा रुककर, अपनी बात पर दार्शनिकता का मुलम्मा चढ़ाते हुए उन्होंने कहा, " कभीकभार अफसोस होता है कि उससे मेरी शादी क्यों न हुई...पर तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं...तुम इतने बरसों से मेरी पत्नी हो...मेरे बच्चों की माँ हो...तुम्हारी हैसियत बिलकुल पुख्ता है"
इस पर पत्नी ने, प्रतिप्रश्न किया, "अच्छा बतायें, कोई सुहागन, अपनी निष्ठा...अपनी देह को पति के लिए सुरक्षित रखती है तो क्या यह गलत है ? "
"नहीं...यही तो उसकी मर्यादा है और कर्तव्य भी"
"जब हमारी शादी हुई...आपके कई दोस्त मेरी सुंदरता पर लट्टू थे...उनमें से कुछ आपसे कहीं बेहतर 'मैरिज- मैटीरियल' थे"
" व्हाट डू यू मीन ?!" यह चोट, पति के मर्म को लगी।
"मेरा मतलब साफ है ...आपका मन, नीरजा को जीवन-संगिनी के रूप में देखता है...शायद शरीर ने भी समर्पण..."
मिलिंद विस्फारित नेत्रों से, पत्नी को देख रहे थे। वह कहती जा रही थी, "इस हिसाब से आप मेरे नहीं...उसके पति हो...मेरे लिए परपुरुष ....औेर मेरी मर्यादा, मुझे एक परपुरुष के साथ, सोने से रोकती है !"
मिलिंद से जवाब देते न बना।