SHWETA GUPTA

Abstract

4.5  

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प्रेम का (अ)भाव

प्रेम का (अ)भाव

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अध्याय 1 "हृदय कहें या दिल यह मात्र एक मांसल अंग है, जिसका प्रेम, स्नेह, प्यार आदि शब्दों से कोई संबंध ही नहीं है। न जाने क्यों कवियों ने, कहानीकारों ने इसका रिश्ता भावनाओं एवं अनुभूतियों से जोड़ दिया। सच कहें तो प्रत्येक भावना अनुभवों के आधार पर बनती है और अनुभव मस्तिष्क का खेल है। बेचारा हृदय इसमें बेकार में ही घसीटा जाता है। अरे! भाई जन्म से मरण तक बिना रुके लगातार काम करने वाले हृदय को जीवन में प्रेम की हर परेशानी से मत जोड़ो। बेचारा नहीं है, थका हारा भी नहीं है; परंतु उसे यूँ न थकाओ! हाँ, यह अजीब लग रहा होगा, आप सबको, परंतु यही सच है।" अंतिमा यही कहती थी, जब भी कोई उससे पूछता कि उसके दिल में कौन रहता है।


***** अध्याय 2 कौन थी अंतिमा? उसकी बातें सभी को संसार से विरक्त साध्वी सी प्रतीत होती थीं, परंतु वह तो पूर्ण रूप से संसारिक थी। अहमदाबाद के एक समृद्ध परिवार की, माता- पिता के असीम प्रेम में पली- बढ़ी एक पढ़ी- लिखी लड़की थी। फिर उसकी इस दुनिया से पृथक् सोच का कारण क्या था? इस पहेली को बूझने की कोशिश करतें हैं। क्या वह एक चिकित्सक थी जो हृदय के विषय में सम्पूर्ण जानकारी रखती थी? या वह एक जीव विज्ञान की अध्यापिका थी? कदाचित् वह जीव विज्ञान की छात्रा भी हो सकती है। नहीं, यह भी नहीं था। जीव विज्ञान से उसका दूर- दूर तक कोई नाता नहीं था क्योंकि यह विषय तो उसने दसवीं कक्षा के उपरांत पढ़ा ही नहीं था। उसने ऐसा क्या अनुभव किया था जो उसकी इस संसार से विपरीत सोच थी?


***** अध्याय 3 कहीं ऐसा तो नहीं कि अंतिमा प्रेम के नाम पर छली गई थी? यदि हाँ, तो किसने किया था यह छल? हर बार प्रश्न के उत्तर में फिर प्रश्न। अजीब कशमकश है! समझ से परे, पर जिज्ञासा को बढ़ाती हुई। सबके साथ हँसने खिलखिलाने वाली अंतिमा की मनःस्थिति कोई नहीं जानता था, इसलिए उत्तर ढूँढ पाना जटिल हो रहा था। और इन प्रश्नों में हर दिन संदीप उलझता जा रहा था। वह अंतिमा को लगभग सात वर्षों से जानता था। नहीं; जानता तो नहीं था, केवल पहचानता था। अगर जानता तो ये प्रश्न उसे व्याकुल नहीं करते, उसे तो सब पता होता। क्या था अंतिमा का सच?


***** अध्याय 4 आज अंतिमा एक सफल वकील बनने की ओर अग्रसर थी। उसे प्रेम था, अपने पेशे से, अपनी कानून की किताबों से, और......... यह 'और' ही संदीप के लिए परिभाषित करना कठिन हो रहा था। आज से लगभग सात वर्ष पहले अंतिमा और संदीप ने मानकलाल नानावटी लाॅ काॅलेज में बी. ए. और एल. एल. बी. में प्रवेश लिया था। दोनों एक ही कक्षा में पढ़ते थे। वे प्रतिदिन मिलते थे। दोनों के समान मित्र थे। अंतिमा मित्र- मंडली की जान थी। सबसे अधिक बोलने वाली, सबसे अधिक मस्तमौला, परंतु उसकी आँखों की गहराई में एक तूफान दफ़न था। न जाने क्यों जो तूफान न अंतिमा के माता- पिता को दिखाई दिया, न किसी और को उसकी आहट संदीप को क्यों सुनाई दे रही थी?


***** अध्याय 5 एक बार मौका देखकर संदीप ने अंतिमा से जानने का प्रयास भी किया था पर उसने अपनी मुस्कान के पीछे जैसे कुछ छिपा लिया था। संदीप समझ गया कि जब अंतिमा किसी को बताना नहीं चाह रही तो उसे कुरेदना नहीं चाहिए। इस प्रकार पाँच वर्ष बीत गए, अब अंतिमा और संदीप दोनों ही स्नातक हो चुके थे। परंतु इस बीच न कभी अंतिमा ने कुछ कहा न कभी संदीप ने कभी कुछ पूछा। एक सफल वकील की पुत्री थी अंतिमा, उसका आगे एल. एल. एम. करने का विचार था। संदीप ने भी आगे की पढ़ाई ज़ारी रखने का फैसला लिया। संयुक्त विधि प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद अंतिमा और संदीप ने नैशनल लाॅ कालेज, गांधीनगर में प्रवेश लिया। साबरमती नदी के पश्चिमी तट पर स्थित गुजरात की राजधानी गांधीनगर यूँ तो अहमदाबाद से अधिक दूर नहीं है पर आने जाने में पढ़ने का समय नष्ट न हो इसलिए उन्होंने होस्टल में रहना उचित समझा। घर से दूर होने के कारण, आने वाले दो वर्षों में दोनों की मित्रता अधिक गहरी हो गई।


 ***** अध्याय 6 उनकी मित्रता बढ़ने के साथ बढ़ गया, अंतिमा और संदीप का भावनात्मक जुड़ाव। अब प्रति पल संदीप को अंतिमा की आँखों की उदासीनता सताने लगी। आज न जाने क्या हुआ था अंतिमा को? खाना खाते- खाते अचानक से उठ खड़ी हुई और कहीं चली गई। जल्दबाजी में वह अपना मोबाइल फोन खाने की मेज पर ही भूल गई। संदीप को लगा के उसके सभी प्रश्नों के उत्तर शायद मोबाइल फोन से मिल जाएँ, यह सोचकर उसने अंतिमा का फोन उठाया। पासवर्ड क्या हो सकता है! यह सोचा और अपनी जन्म तिथि डाल दी। फोन अनलाॅक हो गया। वाॅल पेपर पर उसके माता-पिता थे। इतने में ही अंतिमा आ गई, और बोली, "आज मेरे मम्मी पापा की मैरेज एनीवर्सरी है। उनसे सुबह से बात भी नहीं कर पाई। बात करके अभी आती हूँ। तुम कहीं मत जाना।"

***** अध्याय 7 अंतिमा जब आई तो खुश थी, परंतु संदीप उदास था। अंतिमा ने पूछा तो वह बोला, "आज मेरी माँ की पुण्यतिथि है। मेरे जन्म के एक वर्ष पश्चात ही मेरी माँ का निधन हो गया था।" "श्रीमान् कोटक जी, क्षमा करना मैं उन्हें पापा नहीं कहता, ने माँ के निधन के उपरांत दूसरा विवाह कर लिया था। तभी से मैं अपने ननिहाल देवगढ़ बारिया में रहता हूँ। सब कुछ है मेरे पास; नाना- नानी का स्नेह, मामा- मामी का लाड- दुलारे, पर एक अजीब सा खालीपन है।" "अरे! मैं यह क्या बातें करने लगा, जीवन और मृत्यु तो संसार का नियम है।" अंतिमा बस उसे देखती रही। दोपहर से शाम कब हो गई दोनों को पता ही नहीं चला। अब दोनों अपने- अपने होस्टल की ओर चल दिए।


***** अध्याय 8 अंतिमा ने आज पहली बार संदीप के दर्द को महसूस किया। उसने जाना जो खालीपन उसकी आँखों में है, वैसा ही सूनापन संदीप की आँखों में भी था। उस रात वह सो न सकी। वह तो खोई रही अपने बचपन की यादों में। याद आ रहा था, पापा के कंधे पर चढ़कर बैठना। वह तो उनके प्यार से परिपूर्ण नर्म कुर्सी थी! और माँ की गोद, तभी तो आज भी घर जाते ही वह माँ की गोद में अपना सिर रखकर सो जाती है। माँ के बनाए हुए कंसार को याद करते ही उसके मुँह में पानी आ गया। आज भी रविवार को माँ का बनाया हुआ फरसाण उसे तृप्त कर देता था। उसके पास यशोदा मैया थीं, नंद बाबा थे पर संदीप का दुःख तो उसके दर्द से भी बड़ा था। यह सोचकर वह फूट-फूटकर रोने लगी। उसने एक फैसला किया।


***** अध्याय 9 एक ओर अंतिमा विह्वल थी, तो दूसरी ओर संदीप ने होस्टल पहुँच कर संध्या- वंदना की। फिर माँ की तस्वीर उठाई, इस समय वह प्रतिदिन माँ से बात किया करता था। माँ से वह बोला, " माँ मुझे क्षमा करना, आज न जाने क्यों मैं अंतिमा के सामने कमज़ोर पड़ गया, शायद इसलिए कि उसकी आँखें बिलकुल आपके जैसी हैं। उतनी ही गहराई, उतनी ही उदासीनता।" "बस माँ मुझे एक वर्ष और दे दीजिए जल्द ही आपकी अंतिम इच्छा पूर्ण करूँगा।" माँ से बात कर वह पढ़ने बैठ गया।


***** अध्याय 10 सुबह होते ही अंतिमा ने संदीप को फोन किया। वह बोली, "मैं तुमसे अभी मिलना चाहती हूँ।" संदीप ने इंकार नहीं किया। दोनों ने काॅलेज के पास वाले रैस्टोरेंट में मिलने का निश्चय किया। मिलते ही अंतिमा बोली, "मैंने एक अहम फैसला लिया है। अपने पिताजी का पूरा नाम और पता दो मैं आज ही पापा से कहकर उन्हें नोटिस भिजवाती हूँ।" संदीप ने बताया कि लगभग दस वर्ष पहले सूरत में उनका मोटर दुर्घटना में निधन हो गया था। श्रीमान् कोटक; इस नाम से जो आस अंतिमा के मन में जगी थी, वह बुझ गई। अंतिमा समझ नहीं पा रही थी कि उसे क्या करना या कहना चाहिए इसलिए सिर दर्द का बहाना कर वह वापस होस्टल चली गई। संदीप भी अपने होस्टल लौट गया। जाते ही उसने अपनी माँ की डायरी निकाली और पढ़ने लगा। "आज मुझे अपने आप से घृणा हो रही है।" हर बार की तरह अपने जन्म के अगले दिन लिखे हुए इस वाक्य के आगे न पढ़ सका।


***** अध्याय 11 काल की गति कब रुकती है! समय अच्छा हो या बुरा गुज़र ही जाता है। भूतकाल की परिस्थितियाँ कहाँ किसी को रोक पाईं हैं, जो अंतिमा और संदीप को रोक पाती। दोनों ही अपने भूतकाल से वर्तमान और फिर भविष्य की ओर अग्रसर हो गए। कार्पोरेट लाॅ में एल. एल. एम. करने के कारण दोनों का ही कैम्पस प्लेसमेंट हो गया। आज दोनों की काॅलेज होस्टल से घर वापसी थी। हर बार की तरह अंतिमा के पापा ने कार भेजी थी। संदीप ने भी उसी कार में अहमदाबाद तक का सफर किया। अंतिमा के मम्मी- पापा से आशीर्वाद ले वह देवगढ़ बारिया चला गया, दो दिन बाद अहमदाबाद आने के लिए।


***** अध्याय 12 उस रात अंतिमा ने संदीप को फोन करके अगले दिन मिलने के लिए कहा। उसने यह भी कहा कि वह अपने जीवन के एक महत्वपूर्ण कार्य के लिए संदीप की मदद चाहती है। अगली सुबह संदीप ने अपनी बाइक ली और साढ़े तीन घंटे मे जा पहुँचा - कांकरिया लेक फ्रंट। जून का महीना था, गर्मी तेज थी इसलिए भीड़ नहीं थी। अंतिमा ने संदीप से कहा तो कुछ नहीं बस एक शपथ पत्र दिखाया। उसे पढ़कर संदीप सन्न रह गया। क्या था उस शपथ पत्र में? अगले दिन पुनः मिलने का वादा कर वह लौट गया।


***** अध्याय 13 अंतिमा कुछ समझ न सकी। संदीप पर अविश्वास का कोई कारण नहीं था इसलिए इसे ही नियति मान लिया। उधर संदीप ने माँ की डायरी पुनः निकाली। आज उसे साहस करना ही था। आज उसे डायरी को पढ़ना था। काँपते हाथों से डायरी खोली ही थी कि मामी की आवाज़ आई, "बेटा सुबह-सुबह बिना कुछ खाए-पिए कहाँ चले गए थे? गर्मी में बीमार पड़ जाओगे। और लोग तो मुझे ही बदनाम करेंगें, कहेंगें मामी थी न इसलिए ध्यान नहीं रखा, माँ होती तो......" संदीप ने मामी के आँसू पोंछे और माफी माँगी। माँ- बेटे के इस मधुर मिलन को देख संदीप के मामा की भी आँखे छलछला आईं। आज मामी ने कढ़ी, उंधियू बनाया था अपने लाड़ले के लिए। वे संदीप को बहुत प्यार से अपने हाथ से खिलाने लगीं।


***** अध्याय 14 खाने के उपरांत छोटे भाई ने पास के आइसक्रीम पार्लर जाने की हठ की। संदीप उसे मना कैसे करता, शाम को नानी ने बुला लिया। जैसे- जैसे समय बीत रहा था वैसे- वैसे संदीप की उद्विग्नता बढ़ती जा रही थी। बिना सच जाने किसी से कुछ कह नहीं सकता था। आखिरकार रात के भोजन के बाद वह अपने कमरे में गया। जाते ही सबसे पहले डायरी निकाली। शीघ्र पन्ने पलटने पर वह उसी पृष्ठ पर जा पहुँचा जिसके आगे वह कभी न पढ़ सका। उसमें लिखा था- विवाह के दो महीने बाद ही पता लगा कि मुझे ब्रेन ट्यूमर है, शायद साल- डेढ़ साल से अधिक न जी पाऊँ। मेरे पति ने मुझे मेरे माता-पिता के घर भेज दिया। यह जानकर भी के मैं माँ बनने वाली हूँ वह मुझसे मिलने नहीं आए। उनका मानना था कि मेरी बीमारी के कारण बच्चे भी बीमार ही होंगे। अब मैंने जाना हृदय कहें या दिल इसका प्रेम, स्नेह, प्यार आदि शब्दों से कोई संबंध ही नहीं है। प्रत्येक भावना अनुभवों के आधार पर बनती है और अनुभव मस्तिष्क का खेल है। आज सभी भावनाओं से ऊपर उठ मैंने अपनी कल जन्मी कन्या को अपनी प्यारी सहेली मृणालिनी को गोद दे दिया। उसके पति एक प्रसिद्ध वकील हैं, कल वे शपथ पत्र पर हस्ताक्षर करा लेंगें। पर मैं करती भी क्या, अपने बूढ़े माता-पिता और छोटे भाई पर दो बच्चों का बोझ नहीं डाल सकती थी। बहुत सोच समझकर बेटे को उन्हें सौंपने का निर्णय लिया और बेटी को सहेली को। सम्पन्न परिवार में रहेगी तो उसे भी कोई कष्ट नहीं होगा। इसके साथ ही मैंने एक बहन को उसके भाई से अलग कर दिया। हे ईश्वर! मेरे पाप को क्षमा करना। अब संदीप को समझ आया कि अंतिमा की आँखें माँ सी क्यों थीं, और उसका दर्द उसे अपना क्यों लगता था।


***** अध्याय 14 अगले पन्ने पर संदीप के लिए एक पत्र था जिसमें माँ ने उसे बहन के विषय में बताया था और उससे माफी माँगी थी। साथ ही यह भी लिखा था... ... इसके आगे पढ़ने की हिम्मत नहीं थी, पर आज तो पढ़ना ही था। मैंने मृणालिनी से कभी न मिलने का वादा लिया था। जब पहली बार तुम्हारे जन्म के बाद रक्षाबंधन का त्योहार आया तो मैं एक राखी लाई थी, वह तुम्हारे नाना जी के पास रखी है, अगर कभी बहन से मिल पाओ तो वह राखी अपनी सूनी कलाई पर उससे बंधवा लेना। संदीप की आँखों से निरंतर आँसू बह रहे थे, वह कहने लगा, "माँ नाना जी ने अहमदाबाद पढ़ने जाने से पहले ही मुझे मेरी बहन के बारे में बता दिया था। मैं ही अभागा था जो उसके इतने पास होकर भी उसे पहचान न पाया। अगली सुबह उसने मामी को सारी बात बताई और उनसे विदा माँगी। मामी ने जाने से पहले उसे एक छोटी सी डिबिया दी, और बोलीं अंतिमा से राखी बांधवाकर उसे देना। यह तुम दोनों की माँ की निशानी है। आज अहमदाबाद तक की दूरी बहुत अधिक लग रही थी। अंतिमा के घर पहुँचा तो उसकी मम्मी ने दरवाज़ा खोला। यकायक संदीप को देख वह हतप्रभ रह गईं। उनके चरण स्पर्श करके वह बोला, मैं संदीप आपकी सहेली चार्वी मेहता कोटक का बेटा। पिछले सात सालों से जानतीं थीं वह संदीप को, पर यह पहचान नई थी। अंतिमा के पापा भी तब तक वहाँ आ गए, उन्होंने बताया कि जब अंतिमा अठारह वर्ष की हुई थी तो उन्होंने अंतिमा को सच्चाई बता दी थी, वह तभी से अपने माता- पिता से मिलना चाहती थी। कहाँ हैं वे दोनों? इसका उत्तर देकर उसने अंतिमा से मिलने की इच्छा प्रकट की। अंतिमा आई पर एक सफल वकील की भांति प्रश्न करने लगी, "मैं कैसे तुम पर यकीन करूँ? क्या पता तुम झूठ बोल रहे हो? हो सकता है वह शपथ पत्र पढ़कर तुमने यह कहानी रची हो?" संदीप कुछ नहीं बोला बस माँ की तस्वीर अंतिमा को दे दी। "यह मेरी माँ हैं, कल तक मैं यह सोचता था कि इनकी गोद में मैं हूँ, कल शपथ पत्र पर यह तस्वीर देखकर पहली बार पता चला कि यह तो तुम हो। और हाँ, मेरी वकील बहन यह देखो मेरा आधार कार्ड चाहे तो मेरे माता-पिता का नाम पढ़ लो।" आज रक्षाबंधन नहीं था, पर संदीप की कलाई पर राखी थी। आज दोनों हमेशा की तरह बात नहीं कर रहे थे, बस देख रहे थे एक दूसरे की आँखों में कम होते हुए सूनेपन को। अब दोनों के जीवन में प्रेम का अभाव नहीं था, था तो केवल प्रेम का भाव ।


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