SHWETA GUPTA

Drama

5.0  

SHWETA GUPTA

Drama

वो नौ महीने

वो नौ महीने

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सर्दी में भी गर्मी का अहसास, यह वाक्य कटाक्ष सा प्रतीत होता था। ऐसा लगता मानो कोई उसके सर्द जीवन पर तंज कस रहा हो। न जाने क्यों अपराजिता यह सुनते ही क्रोधाग्नि में जलने लगती और अंदर ही अंदर सुलगती रहती ?

आज सुबह जब वह उठी तो एक पल तो घबरा गई, घड़ी आठ बजने का इशारा कर रही थी। ऐसा कैसे हो गया ? वह इतनी देर तक कभी नहीं सोई थी। खिड़की पर से पर्दा हटाया तो बाहर सूर्य देव ने दर्शन नहीं दिए। बाहर धुंध छाई हुई थी। एक सौ बीस साल बाद, हड्डी गला देने वाली बर्फीली सर्दी, ऐसे में ठिठुरना तो वाजिब था।

उनींदी आँखों को खोलने की कोशिश करते हुए उसने रसोई गैस जलाई और चाय का पानी चढ़ाया। आज मैं आराम से चाय पीऊँगीं, यह ख्याल ही बहुत मधुरम् था। तभी उसे टी.वी. पर वह वाक्य सुनाई दिया और वह आगबबूला हो गई। गुस्से में अपराजिता का एक नया ही रूप होता था। वह यकायक चुप हो जाती, मानो साँप सूंघ गया हो।

संजीव समझ गए और घर में गूंजती टी.वी. की आवाज़ शांत हो गई। एक अजीब सा खालीपन छा गया था।

चाय बना कर वह उसे पीने बैठ गई, संजीव बस उसका मुँह ताकते हुए बोले, "मैंने भी आज चाय नहीं पी थी, सोचा था साथ में पीऐंगें।" "साथ में चाय !" हैरान हो अपराजिता सोचने लगी के पहले ऐसा कब हुआ था। कुछ याद नहीं था उसे, क्या वह सच में भूलने लगी थी ?

कुछ कहना बेकार था इसलिए चुपचाप एक कप चाय बना संजीव को दे दी। संजीव अपराजिता की भावनाओं और संवेदनाओं को समझ रहे थे। अभी पिछले ही वर्ष उनकी भी तो यही स्थिति थी, अंतर केवल इतना ही था के वे अकेले थे और आज उनके साथ होते हुए भी अपराजिता अकेलापन महसूस कर रही है। कैसे समझाएँ, क्या कहें ? विगत कुछ वर्षों से वार्तालाप लगभग बंद था। उन्होंने सोचा था, वर्षों बाद वे आज साथ चाय पीऐंगें, एक दूसरे का हाथ थाम बैठेंगें।

सोच के बेलगाम घोड़े पर कब किसका काबू रहा है, पर हर सोची हुई बात पूरी हो जाए यह आवश्यक नहीं है।

दिसंबर का सर्द मौसम और अपराजिता का सर्द व्यवहार दोनों ही संजीव की ठिठुरन के कारण थे।

आज भी चाय ठंडी हो गई ! न जाने कब से गर्म चाय पी ही नहीं थी। सच तो यह है कि अपराजिता गर्म चाय का स्वाद ही भूल चुकी थी।

रोज़ सुबह जल्दी जल्दी काम करने वाली अपराजिता, आज बंद घड़ी के जैसे रुक सी गई थी। न स्नान, न ध्यान। न सूर्य को अर्घ्य, न मंदिर में दिया-बाती।

संजीव ने पूछना चाहा, पर हिम्मत न जुटा सके। अपराजिता उठी और टी.वी. चला लिया। आज सूर्य ग्रहण था, वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वाली अपराजिता से तो आज नाश्ता बनाने की आशा रखना व्यर्थ था। वह टी. वी. पर इस खगोलीय घटना का आनंद लेगी।

पेट के चूहों के लिए क्या सूर्य ग्रहण और क्या चंद्र ग्रहण !

गत एक वर्ष में संजीव को अपना नाश्ता स्वयं बनाने की आदत हो गई थी। वे बिना कुछ कहे रसोई घर की ओर जाने लगे। उन्हे उठता देख आखिर अपराजिता ने सुबह के पहले दो शब्द बोले, "कहाँ चले ?" व्याकरण के ज्ञाता संजीव को यह प्रश्न कम विस्मयादिबोधक अधिक लगा। वे जानते थे कि अपराजिता को उत्तर की अपेक्षा नहीं थी। बहुत स्नेह से उन्होंने पोहा बनाया, दूध गर्म किया, ट्रे में रखा और पलंग पर बैठी अपराजिता को दे दिया। अपराजिता खाने लगी और संजीव अपलक उसे देखते रहे।

कभी वह वाचाल थी, चुप रहना तो जैसे उसे आता ही नहीं था। पर थी बहुत सौम्य, बहुत शालीन, बहुत सुघड़, बहुत ........... "तुम्हारी तारीफ़ नहीं करता, शब्द कम पड़ जाते हैं।" सदा वे यही कहते थे जब अल्हड़पन में कभी अपराजिता उनसे बहुत मनुहार करती थी।

दरवाज़े पर घंटी बजी तो संजीव सपनों की दुनिया से बाहर आए। मन ही मन बुदबुदाए, "कैलाश होगी। रोज़ इसी समय आती है आजकल।" उठकर दरवाज़ा खोला और जाकर आराम कुर्सी पर बैठ गए। कहने को आराम था पर सच तो यह था कि वे इस बहाने बीचों बीच बैठ कैलाश पर नज़र रखते थे।

"आटा कितना गूँथना है ? कौन सी सब्जी काटनी है ?", कैलाश के इन प्रश्नों से संजीव की तंद्रा टूटी। पहले सोचा कहें कि अंदर जाकर अपराजिता से पूछ लो, पर पिछले एक वर्ष से यह तो उनका काम था, इसलिए उन्होंने प्याज और टमाटर काटने के लिए कहा। नान के लिए मैदा गूँथने का निर्देश दिया। उनका आज शाही पनीर और नान बनाने का विचार था। अपराजिता के लिए आज के दिन वे इतना तो कर ही सकते थे।

दो बजे गए थे, अपराजिता को न नहाने की सुध थी, न ही खाने की।

आखिरकार वह उठी, जब तक वह तैयार हुई उसका पसंदीदा खाना तैयार था। वह खाने बैठ गई और जब तक संजीव खाना शुरू करते वह खा चुकी थी। जल्दी- जल्दी खाने की आदत हो गई थी उसे। खाने का स्वाद लेना तो वह भूल ही चुकी थी। खाना खाने के बाद संजीव ने जब अपराजिता को कुल्फी दी तो वह बोली, "दिसंबर है, बीमार पड़ जाऊँगी।" फिर न जाने क्या सोचकर खाने लगी !

संजीव का कोई भी प्रयास अपराजिता की न तो चुप्पी ही तोड़ पाया, न ही वह मुस्कुराई।

ऐसा क्या हुआ था ?

समय का पहिया अपनी चाल चलता रहा और शाम हो गई। "बाज़ार जा रहा हूँ, तुम्हे कुछ मँगवाना है ? चाय मत बनाना, मैं आकर काॅफी बनाऊँगा।" यह कहकर संजीव चले गए।

अपराजिता कहना चाह रही थी मैं भी चलूँ , पर कह नहीं पाई। कहती भी तो किससे, संजीव रुके ही कहाँ थे। पहले कैसे ज़िद करते थे साथ चलने के लिए। "अभी नहीं आज बहुत काम है, कभी फुर्सत में चलूँगी" यह कहकर हमेशा अपराजिता मना कर दिया करती थी। आज फुर्सत थी पर पूछने वाला कोई नहीं। नित नए खेल दिखाता है समय भी।

आधे घंटे बाद संजीव समोसे और जलेबी लेकर लौटे। वे सोच रहे थे अपराजिता खुशी से उछल पड़ेगी, पर..... कितनी शांत हो गई थी वह ! हँसना, खिलखिलाना तो जैसे भूल ही गई थी।

सर्दी में रात होती भी जल्दी है। दोनों के पास कोई काम भी नहीं था, यकायक जीवन में किसी समुद्र की भांति अथाह खालीपन आ गया था। कच्ची हल्दी का दूध पीकर दोनों सोने चले गए।

उस रात दोनों की आँखों में नींद नहीं थी। अपराजिता सोच रही थी, कल क्या करेगी ? दिन कैसे बीतेगा ? आज तो टी. वी. के बहाने दिन कट गया, पर कल...... यह सब सोचते सोचते न जाने कब उसकी आँख लग गई।

स्वभाव से धीर गंभीर संजीव आज रात बहुत अधीर थे, क्या उन्हे पहल करनी चाहिए ? क्या उन्हे अपना हाथ पहले बढ़ाना चाहिए ? अपराजिता क्या सोचेगी उनके बारे में ? कहीं गलत न समझ ले ! बहुत पसंद करते थे वे अपराजिता को।

(पहली ही मुलाकात में उसकी तस्वीर उनके दिल में बस गई थी। इस तस्वीर पर वे अपना नाम लिखना चाहते थे। यही सोचकर उन्होंने शादी का प्रस्ताव रखा था।)

आज का दिन कुछ ज्यादा ही सर्द था; सर्द मौसम, सर्द कुल्फी, सर्द अहसास और.....

संजीव स्वयं को दोषी मान रहे थे। उन्ही के कारण तो अपराजिता की हँसी इतिहास बनी थी।

कैसे भूल सकते थे वे वह रात जिसने सब कुछ बदल दिया था ?

सफेद झिलमिलाती साड़ी, लंबे खुले बाल ! साक्षात चांदनी लग रही थी अपराजिता। संजीव को रोहित (ऋषि कपूर) की तरह दिखना था।

जाते हुए सास माँ ने स्नेह भरा हाथ रखा तो वह मन ही मन गुनगुनाने लगी थी। सास नहीं थीं वे, वे तो अपराजिता की सबसे प्यारी सखी थीं। कितनी खुशनसीब थी वह !

जाते हुए उन्होंने हँसते हुए कहा, चांदनी अपने रोहित का धयान रखना। 'चांदनी और रोहित' बनने की सलाह उनकी ही थी। वे बहुत अच्छी तरह समझती थीं कि संजीव को अपराजिता सफेद कपड़ो में बहुत अच्छी लगती थी। वे कोई परंपरागत सास नहीं थी, वे नए जमाने की नई सास थीं।

उस रात संजीव के मित्र के घर 'बाॅलीवुड थीम' पार्टी थी। संजीव अपनी नई नवेली दुल्हन अपराजिता के साथ गए थे। सबकी निगाहें उन दोनों पर ही टिकी हुईं थी। एक तरफ सब उनसे बात कर रहे थे तो दूसरी तरफ वे भीड़ में भी एकांत पल तलाश रहे थे।

नव यौवन के नव प्रेम से परिपूर्ण नव युगल नव वर्ष के नव स्वागत के लिए आतुर था। जैसे ही घड़ी ने बारह बजने का इशारा किया, "हैप्पी न्यू ईयर" का शोर हुआ। वे दोनों घर जाना चाह रहे थे। पर वहाँ से निकल पाना उनके वश में नहीं था। आखिरकार दो बजे दोनों का इंतजार पूरा हुआ। संजीव की मोटर साइकिल पर बैठ अपराजिता स्वयं को चांदनी ही महसूस कर रही थी।

दोनों एक दूसरे के प्यार में खोए थे, फिर क्या हुआ दोनों को ही याद नहीं था ! सुबह जब आँख खुली तो अपराजिता ने स्वयं को अस्पताल में पाया। हाथ पर पट्टी बंधी थी। "संजीव, संजीव कहाँ हो तुम ?", वह बोली। पास बैठी उसकी माँ ने कहा, "आॅपरेशन चल रहा है।" यह सच था, या कोई भयावह सपना अपराजिता कुछ समझ नहीं पा रही थी।

अपराजिता को अधिक चोट नहीं लगी थी। पर संजीव ......

संजीव अस्पताल में नौ दिन रहे। ये नौ दिन अपराजिता के लिए नौ महीनों के समान थे। संजीव के शरीर के निचले भाग पर चोट लगी थी। रक्त प्रवाह कम होने के कारण लकवा जैसे लक्षण थे।

कब चलेंगें, डाॅक्टरों के पास कोई उत्तर नहीं था। इसी के साथ शुरू हुआ था अपराजिता के संघर्ष का सफर। किसी ने शनि की साढ़ेसाती कहा, तो किसी ने काल सर्प दोष, कुछ लोगों ने तो अपराजिता की सफेद साड़ी को ही दोष दे दिया। जितने मुँह उतनी बातें। बस जिसने कुछ नहीं कहा तो वो थीं अपराजिता की सबसे प्रिय सखी, उसकी सास माँ। वे उसकी प्रेरणा थीं। वे ही उसकी साथी थीं। वे नहीं होतीं तो .....

अपराजिता व्यवहारिक थी, रोना उसने सीखा ही नहीं था। उसने संजीव के लिए नर्स रखी और फिर से बैंक जाना शुरू कर दिया। हर जरूरत बातों से पूरी कैसे हो सकती थी ! दवाइयों के लिए, आगे की चिकित्सा के लिए रुपये चाहिए थे। कोई पेड़ होता तो तोड़ लेती !

एक महीना बीत गया था, संजीव की हालत में कोई सुधार नहीं दिख रहा था। कोई आशा भी नज़र नहीं आ रही थी। सास माँ अपराजिता की पीड़ा समझ रहीं थीं। वे उससे बोलीं, "अभी उम्र का लंबा सफर है, तुम दूसरी शादी कर लो। मैंने वैधव्य सहा है पर यह तो उससे भी कठिन है।"

"माँ मैंने संजीव के मन से प्रेम किया है, तन से नहीं।" अपराजिता बस इतना ही बोली। माँ यह नहीं समझ पा रहीं थीं कि उसे प्यार करें या अपनी बात की अवहेलना करने पर उसे धिक्कारें।

ये अपराजिता के प्रेम की पराकाष्ठा थी और उसके मौन की शुरूआत।

वह मौन हो गई। आत्मग्लानि के बोझ के तले दबी हुई थी वह। सदा साथ निभाने का वचन दिया था और वह संजीव को छोड़ बैंक चली जाती है। उन्ही दिनों बैंकों में कम्प्यूटरीकरण की शुरूआत हुई। अपना दुःख अपराजिता ने बैंक में कम्प्यूटर के पीछे छिपा लिया था।

विधि का विधान कोई नहीं जानता। आज अपराजिता को ज्ञात हुआ कि वह माँ बनने वाली है। पहले वाली अपराजिता होती तो नाचती- गाती। संजीव से बाहर जाने के लिए कहती। माँ की गोद में मुँह छिपा लेती। पर समय बदल गया था और अपराजिता भी। जिन आँखों में रुपहले सपने होने चाहिए थे, वे आज स्थिर थी। जिन पैरों को चंचल उड़ान भरनी चाहिए थीं, वे घर और बैंक के बीच का रास्ता नाप रहे थे। जिस आवाज़ में खनक होनी चाहिए थी, वह शांत थी।

घर में किलकारी गूंजी, लक्ष्मी का आगमन हुआ। संजिता: संजीव और अपराजिता के प्रेम पुष्प का यह नाम अपराजिता ने ही तो सुझाया था। दादी माँ के स्नेह की छाया में संजिता बड़ी होने लगी। शांत घर पुनः जीवंत हो गया था। संजीव बैठकर जब नन्ही संजिता को गोद में लेते तो उसकी मुस्कान उनका मन मोह लेती।

अपराजिता की मशीनी जिंदगी में संजिता भी कोई रंग न भर सकी। खर्च बढ़ गया था और संघर्ष भी।

अन्ततः वह दिन आ ही गया। आज कितनी खुश थी अपराजिता। संजीव के पैर में थोड़ी सी हरकत हुई थी। मन करा जाकर उनसे लिपट जाए। पर ईश्वर को यह भी नामंजूर था। "आह !" माँ की आवाज़ आई, माँ ने गलती से संजिता की गेंद पर पैर रख दिया था और वे गिर गईं थीं।

कर्तव्यनिष्ठ अपराजिता ने माँ को उठाया। "उम्र हो चली है मेरी, थक चुकी हूँ मैं।" वे कहना चाह रहीं थीं, पर डरती थीं कि कहीं अपराजिता की हिम्मत टूट न जाए।

चार वर्ष बाद संजीव ने बैसाखी के सहारे चलना शुरू कर दिया था। सब कुछ कितना अविश्वसनीय था, पर यही संजीव और अपराजिता की सच्चाई थी। बीते हुए इन कठिन दिनों को याद करते करते संजीव की आँखें नम हो गईं।

घड़ी में पाँच बजे थे। आखिर नींद ने संजीव को अपने आगोश में ले ही लिया।

जब संजीव आँख खुली तो अपराजिता बाल संवार रही थी। पूरे साठ वर्ष की थी पर न बालों में सफेदी थी, न चेहरे पर क्षीणता। आज भी वह संजीव के साथ हुई पहली मुलाकात सी ही थी।

संजीव को अपनी ओर देखते देख, वह बोली आज सेवा निवृत्त हुए पूरा एक दिन बीत गया। चलो आज बेटी के घर चलतें हैं। नन्ही 'परी' की बहुत याद आ रही है। (उसको गोद में ले संजिता को समय न दे पाने का दुःख कम हो जाता था।)

सर्दी के कारण संजीव कहीं जाना नहीं चाहते थे, पर अपराजिता को मना करना उनके लिए संभव नहीं था।

तभी फोन की घंटी बजी। अच्युत जी का फोन था। वे खुश भी थे और परेशान भी। उन्होंने बताया कि वह नौ महीने के लिए अमेरिका जा रहे थे और इसलिए परी और संजिता उसी दिन जयपुर जा रहे थे। अचानक ही यह आदेश मिला था और दो दिन में जाना था।

संजिता ने अपराजिता से बात करते हुए कहा, "माँ आज मैं बहुत खुश हूँ, शादी के बाद कभी भी माँ- पापा के पास रहने का समय ही नहीं मिला, मैं इतना सुंदर अवसर कैसे छोड़ सकती थी, सही किया न मैंने, माँ ?" संजिता बोल रही थी, अपराजिता का मौन ही उसकी स्वीकृति था।

अपराजिता कहना चाहती थी इतनी दूर जयपुर क्यों, हम भी तो हैं, पर बेटी को उसके ससुराल वालों से दूर करें न उसके ऐसे संस्कार थे, न ही उसने बेटी को यह सिखाया था।

जब संजीव नाश्ता बनाकर लाए अपराजिता निढाल सी बैठी थी। उसकी आँख से निकले मोती को संजीव ने शीघ्रता से अपनी हथेली पर ले लिया। वह आँसू बहुत मूल्यवान था, संजीव ने कभी भी अपराजिता को रोते हुए नहीं देखा था, न विदा होते हुए और न ही बेटी को विदा करते हुए।

संजीव फिर से यादों के समुद्र में गोता लगाने लगे। जब अपनी विदाई पर अपराजिता नहीं रोई थी तब कैसे उसकी बहन ने चुटकी ली थी, "प्रेम विवाह में रोता ही कौन है !"

काॅलेज में अपराजिता संजीव की जूनियर थी। उन्होंने जब पहली बार उसे देखा था तो बस देखते ही रह गए थे। सफेद चूड़ीदार- कुर्ता और सफेद ही दुपट्टा, सादगी की मूरत लग रही थी, अपराजिता।

अपराजिता ने भी महसूस किया था के संजीव उसे एकटक देख रहे थे, पर उनकी आँखों में अपनापन था, वहशीपन नहीं, शायद इसलिए उसे बुरा नहीं लगा। धीरे धीरे बातचीत होने लगी। यह बातचीत कब मित्रता से प्रेम में परिवर्तित हो गई दोनों को पता ही नहीं चला था।

अजीब प्रेम था उनका, अपराजिता बोलती रहती, संजीव सुनते रहते। न कभी हाथ पकड़ा, न गुलाब दिया, न कोई और उपहार। प्रेम के इन दिखावों से दोनों कोसों दूर थे।सर्दी हो या गर्मी, बस हर बार वे दोनों कुल्फी जरूर खाते थे। अपराजिता को बहुत पसंद थी। सर्दी में जब संजीव मना करते तो वह हँसते हुए कहती, "सर्द मौसम, सर्द कुल्फी, वाह ! दो नकारात्मक एक सकारात्मक बनाते हैं।"

दो वर्ष कब बीत गए पता ही नहीं चला। संजीव अब बैंक परीक्षा की तैयारी में लग गए और अपराजिता अंतिम वर्ष की पढ़ाई में। पर मिलना बरकरार था। आज की तरह तब मोबाइल फोन नहीं थे, इसलिए हर पल की खबर नहीं होती थी। विश्वास प्रेम का आधार था।

संजीव ने बैंक की परीक्षा पास कर ली। बैंक में नौकरी भी लग गई थी।

अब वे विवाह करना चाहते थे, अपनी अपराजिता से। बस कह नहीं पा रहे थे। उधर अपराजिता अपनी माँ को संजीव के बारे में सब बता चुकी थी। सब कुछ था उनमें जो एक माता पिता अपनी पुत्री के वर में चाहते हैं। अप्रतिम कद- काठी, सरकारी नौकरी, कोई जिम्मेदारी नहीं, इसलिए माँ ने भी कोई विरोध नहीं किया था। "उचित समय देख तुम्हारे पापा से बात करूँगी," बस इतना कहा।

अपराजिता भी बैंक परीक्षा की तैयारी में लग गई। वह संजीव का साथ हर पल चाहती थी। एक वर्ष और बीत गया, अब अपराजिता की भी उसी बैंक में नौकरी लग गई। शांत संजीव से अपराजिता बोली, "आज मुझे घर ले चलो", माँ समझ जाएँगीं।"

संजीव के साथ अपराजिता को देख माँ ने उसे बाहों में भर लिया। जल्दी ही बड़ों की स्वीकृति से उनके परिणय की मधुर बेला आ गई।

दरवाज़े की घंटी ने संजीव को वर्तमान में लाकर खड़ा कर दिया। आज दरवाज़ा अपराजिता ने खोला। संजीव को सुनाई दी वही चिर-परिचित पदचाप, जो कैलाश के आने का इशारा कर रही थी।

"मेरे लिए दलिया चढ़ा देना। मटर छील देना, बथुआ साफ करके धो देना।" अपराजिता बोलती रही और कैलाश बुदबुदाती रही ,"अब रोज़ इन्हें झेलना पड़ेगा।" "अपनी आंटी के लिए अगर कुछ बोला तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा," संजीव चिल्लाते हुए रसोई घर की ओर चल दिए "एक दो दिन में सब ठीक हो जाएगा, " संजीव ने कैलाश से धीरे से कहा। वे जानते थे सर्दियों में दूसरी नौकरानी मिलना मुश्किल था।

"चलो छत पर धूप में बैठतें हैं," यह कहकर संजीव चले गए। आज अपराजिता भी न चाहते हुए चलने लगी। धूप में बैठे हुए एक अरसा हो गया था। दिमाग पर जोर दिया तो अपराजिता को भी काॅलेज के दिनों की याद आ गई, कैसे वे सर्दियों के मौसम में काॅलेज के भीड़ भरे मैदान में भी अकेलापन ढूँढ लेते थे, और आज अकेले हैं पर..... इस 'पर' का कोई उत्तर नहीं था।

सहसा अपराजिता की नज़र 'अपराजिता' की बेल पर जा पड़ी। आज भी हरी थी, सर्द मौसम से बेअसर। पर न जाने क्यों, वह भी खिलना भूल चुकी थी ! बहुत सालों से बांझ सी थी, कोई फूल नहीं खिला था। माली हर बार उसे उखाड़ने के लिए कहता और अपराजिता मना कर देती थी। उससे भावनात्मक रूप से जुड़ी हुई थी वह।

दोनों ने ही जीवन के हर मौसम को बखूबी झेल स्वयं के नाम को सच साबित किया था। दोनों ही अपराजिता थीं।

अपराजिता को गर्मी लगने लगी। शायद धूप में तपिश थी। उसने शाॅल उतार समेट कर खाली कुर्सी पर रख दिया। धीरे-धीरे उसकी घबराहट बढ़ने लगी। पानी पीने के लिए वह उठी तो......

'धम्म' यह आवाज़ सुनकर संजीव ने उस ओर देखा। अपराजिता जमीन पर गिरी हुई थी। वे उठे, अपराजिता के मुँह पर पानी छिड़का तो उसने आँखें खोलीं। उसे पानी पिला कर नीचे ले आए।

अपराजिता ने सुबह नाश्ता भी ठीक से नहीं किया था, यह सोच संजीव ने शीघ्रता से उसके लिए उसकी पसंद का वेज-दलिया बनाया। वह भी अपराजिता ने अनमने मन से खाया।

संजीव सोच रहे थे कि वे क्या करें ? यह खालीपन था, या उदासी, अजीब कशमकश थी। वह उसे ऐसा कैसे छोड़ सकते थे। उनकी संगिनी थी वह। हर कठिनाई में साथ निभाया था। नहीं वे गलत थे, उसने तो हर कठिनाई का वार स्वयं पर सहा था। यदि वह नहीं होती या उसे छोड़ कर चली जाती तो ! माँ ने अपने अंतिम समय में संजीव को सब बताया था। माँ तो उसे सावित्री कहतीं थीं।

याद था उन्हें के पूरे छः वर्ष के बाद जब उन्होंने बैंक जाना शुरू किया था तो अपराजिता साथ ही जाती थी।

वह होती तो संजीव को बैसाखी की आवश्यकता महसूस नहीं होती थी। बैसाखी को पकड़े वह यही सोचते कि उनकी वजह से अपराजिता की जिंदगी बर्बाद हो गई थी। वह स्वयं को अपराजिता का दोषी मानते थे। संजीव के स्थानांतरण के बाद सब बदल गया। अब उन्हें अपराजिता से दूर रहने का बहाना मिल गया था। उनकी ओर से दूरियाँ बढ़ती रहीं। धीरे-धीरे बैसाखी ने भी साथ छोड़ दिया।

संजीव सोचते थे शायद उनके दूर रहने से अपराजिता की जिंदगी बदल जाए। अपराजिता ने कभी कोई शिकायत नहीं की।

इतने में ही जब अपराजिता ने पानी पीने के लिए गिलास हाथ में लिया तो, वह गिर गया। तौलिया निकालने के लिए जब उन्होंने अपराजिता की अलमारी खोली तो, वह स्तबध रह गए। हर साड़ी सफेद थी। उन्होंने कभी ध्यान ही नहीं दिया था। वह तो आज भी उनकी चांदनी ही थी। शायद वे ही रोहित नहीं बन पाए।

देर करना ठीक नहीं था, धीरे से संजीव ने अपना हाथ अपराजिता के हाथ की ओर बढ़ाया, पर यह क्या ! वह तो पसीने में भीगी हुई थी।

संजीव ने एकदम डाॅक्टर को फोन किया। डाॅक्टर ने अस्पताल आने के लिए कहा। अपराजिता मना करती रही पर उन्होंने उसकी बात नहीं मानी। डाॅक्टर ने प्रारंभिक जाँच के बाद कुछ टेस्ट लिख दिए।

क्या हुआ था अपराजिता को ?

अगले दिन के साथ उनके जीवन में एक और अध्याय आरंभ हुआ।

कुछ टेस्ट, फिर कुछ और टेस्ट, और फिर कुछ और......

अपराजिता को कैंसर है, यह जान संजीव टूट गए। पर अपने नाम के अनुरूप अपराजिता ने हार नहीं मानी, वह आज भी विजेता थी।

वह डाॅक्टर से प्रश्न पर प्रश्न पूछने लगी। हर रिपोर्ट पढ़ती। अपनी बीमारी के हर पहलू को समझने की कोशिश कर रही थी।

"ऑपरेशन के बाद लगभग कितना जीवन बाकी होता है ?" उसके इस आखिरी प्रश्न ने संजीव को झकझोर दिया। कितनी निर्दयी थी अपराजिता की जिंदगी !

वह संजिता को फोन करने की सोच ही रहे थे, पर अपराजिता ने मना कर दिया। "अभी पंद्रह दिन पहले ही तो वहाँ गई थी वह, उसे वहाँ रहना चाहिए। इसी बहाने परी को भी दादा- दादी का प्यार मिलेगा।"

दूरियाँ नज़दीकियों में बदलने लगीं थीं। जिस साथ की आशा में अपराजिता ने अड़तीस वर्ष बिताए थे, आज वह मिल गया। साथ तो मिला, पर उसके साथ मिली संजीव की घबराहट। वह उन्हें ऐसे टूटने नहीं दे सकती थी।

संजीव का जन्मदिन था, अपराजिता ने फिल्म देखने की इच्छा की। बाहर खाना मना था, दोनों ने घर आकर खिचड़ी खाई। खाते- खाते संजीव बोले, "तुम लक्ष्मी (फिल्म का मुख्य किरदार) नहीं तुम तो महा- लक्ष्मी हो, अपनी लड़ाई लड़ना सरल है पर दूसरे की जंग को जीतना- यह सिर्फ तुम ही कर सकती हो।" यह सुन अपराजिता खिलखिलाकर हँस पड़ी। (अपने रोहित की खुशी के लिए इतना तो वह कर ही सकती थी।) संजीव को काॅलेज वाली अपराजिता याद आ गई।

रात में वही डर पुनः लौट आया। "अगर अपराजिता को कुछ हो गया तो !", घबराहट में संजीव पसीना- पसीना हो गए। अपराजिता के करवट बदलने से भी आँख खुल जाती थी संजीव की।

मैडिकल टैक्नोलोजी बहुत आगे बढ़ चुकी थी। कुछ नहीं होने देंगे वे अपनी चांदनी को। दवाइयाँ दी जा रहीं थीं। फरवरी में आॅपरेशन था।

संजीव सोच रहे थे, "क्या वे अपनी सावित्री के सत्यवान बन पाएँगें ?"

बसंत ऋतु का आगमन हुआ था। मौसम सुहाना हो गया था। हर ओर रंग बिखरे हुए थे। हर ओर खुशबू थी।

यह ऋतु अपराजिता और संजीव के जीवन में नया रंग और नई खुशबू लेकर आई। रक्त का लाल रंग, अस्पताल की खुशबू। अपराजिता अस्पताल में भर्ती हो गई थी। दो दिन बाद आॅपरेशन था। इसलिए नए टेस्टों और रिपोर्टों का सिलसिला शुरू हो गया। सुबह- शाम रक्तचाप की जाँच हो रही थी। जिन हालातों में मरीज़ धीरज खो देता है, उन हालातों में अपराजिता की सहनशक्ति क़ाबिले तारीफ़ थी। न चिड़चिड़ापन, न गुस्सा और न ही दवाई लेने में आनाकानी। उसको देख डाॅक्टर और नर्स स्तब्ध रह जाते थे, बस निस्तब्ध थे तो संजीव।

आॅपरेशन वाली सुबह अपराजिता ने संजिता को वीडियो- काल किया। माँ को अस्पताल के कपड़ों में देख संजिता घबरा गई। उसने कारण पूछा तो हँसकर अपराजिता ने बुढ़ापे को ताना दे दिया। वह आना चाह रही थी पर अपराजिता ने मना कर दिया। फिर परी से बात की। समधन जी का कुशलक्षेम पूछा। शीघ्र मिलने का वादा किया।

अपनी जिंदगी के इस तूफान की वह स्वयं ही नाविक थी। एक कुशल नाविक। जिसे हर हाल में अपने प्रकाशस्तंभ, अपने संजीव तक पहुँचा था।

वह स्ट्रेचर पर लेट जब आॅपरेशन थिएटर की ओर जा रही थी, संजीव की आँखें नम थीं। अपराजिता ने देखा तो वह हौले से मुस्काई। आँसू नहीं देख सकती थी वह संजीव की आँखों में। उसने कभी कहा नहीं था, पर संजीव ही थे उसके जीवन का स्रोत। संजीव ही थे उसके संजीव (जीवन)।

अस्पताल के वेटिंग रूम में बैठे संजीव की नज़र टी. वी. पर गई। हर ओर कितनी उथल-पुथल थी। एक तरफ विधान सभा चुनाव के नतीजे आने थे, नए राजनैतिक समीकरण बनने थे तो दूसरी तरफ थी संजीव की बेचैनी। क्या पिछले दो महीनों से संजीव के जीवन के उतार चढ़ाव और राजनीति की बदलते स्वरूप में कुछ समानता थी ?

अचानक फोन की घंटी बजी। उधर से किसी ने कहा, "अपराजिता का आॅपरेशन हो गया है। आप उन्हें देख सकते हैं।"

संजीव भागे, उनकी चाल में अब भी लंगड़ापन था। बैसाखी तो छूट गई थी, पर हर सर्दियों में माँस- पेशियों में खिंचाव लौट आता था। हर साल, हर रात अपराजिता फिटकरी डालकर गर्म पानी देती थी। पर उसे तकलीफ़ न हो इसलिए इस बार उन्होंने इस दर्द का जिक्र भी नहीं किया था।

अपराजिता ठीक थी। कुछ ही देर में वह अपने कमरे में आ गई। बेहोश अपराजिता से आज संजीव ने दिल खोलकर बातें की। पिछले अड़तीस वर्षों की सारी बातें कुछ ही घंटों में करना चाहते थे।

"पा.....", होश आने पर बस इतना ही बोल पाई अपराजिता। संजीव ने उसे चम्मच से दो घूँट पानी दिया। नर्स को बुलाया। नर्स के आने से पहले ही अपराजिता पुनः सो चुकी थी। नर्स ने संजीव को समझाया कि घबराने की कोई बात नहीं है, एक- दो घंटे में होश आ जाएगा।

माँ का हाल पूछने के लिए जब संजिता ने शाम को फोन किया तो वह हैरान नहीं हुई। जानती थी अपनी माँ की आत्म- शक्ति को। पर पापा से गुस्सा होने का पूरा हक था, वह बोली, "बेटी हूँ इसलिए नहीं बताया, बेटा होता तो !" कोई उत्तर नहीं था संजीव के पास, उन्होंनें कभी यह सोचा ही नहीं था के उनके कोई बेटा नहीं था।

पापा से बात कर, फोन रख संजिता बैठ गई। क्या करे ? क्या माँ उसे दिल्ली जाने देंगी। फिर कुछ सोच संजिता ने माँ को आवाज़ लगाई। वे रसोई में चाय बना रहीं थीं। अपराजिता का कैंसर का आॅपरेशन ! वह अवाक हो गईं। वे स्वयं तो हल्के से बुखार में भी घर सिर पर उठा लेतीं थीं। कितनी गलत थीं वह, जो यह सोचतीं थीं कि समधन को अपने रूप और नौकरी का घमंड था।

"संजिता कपड़े पैक करो, हम कल सुबह ही दिल्ली जाएँगें।" कड़क आवाज़ में उन्होंने आदेश दिया। जाना तो तभी चाहतीं थीं, पर हर रोज़ लड़कियों के साथ दरिंदगी के समाचारों के कारण ही यह उनका फैसला था। ड्राइवर भी नया था, कैसे पूरी तरह भरोसा करतीं !

उधर अपराजिता को होश आ गया था। संजीव ने उसे सूप पिलाया। अभी खाने की मनाही थी।

अगले दिन संजिता और उसकी सास जब अस्पताल पहुँची तो संजिता जल्दी से माँ के गले लगना चाहती थी। सास माँ ने जब हाथ पकड़कर उसे रोका तो वह रुक गई। समधन से गले मिलते हुए वह रो रहीं थीं, उनके आँसुओं के साथ सारे गिले- शिकवे भी धुल गए। अपराजिता ने राहत की सांस ली, एक यही रिश्ता था जिसमें वह हारी थी, आज वहाँ भी वह विजयी हुई। संजिता मन ही मन मुस्कुरा रही थी। जानती थी ये एक खूबसूरत रिश्ते की शुरूआत थी। डेढ़ महीने में अपनी सास माँ को इतना तो समझ ही चुकी थी।

संजिता ने अच्युत को कुछ नहीं बताया था। वह उन्हें परेशान नहीं करना चाहती थी। पर सास माँ को कैसे रोकती ! सारी बात सुनकर अच्युत केवल इतना ही बोले, "माँ संजिता अपनी माँ की परछाई है, धीरे-धीरे आप यह भी समझ जाएँगीं।

अपराजिता घर आ चुकी थी। संजिता और उसकी सास माँ को वापस जयपुर जाना था। जाते हुए अपनी समधन से अपराजिता बोली, "इस बार होली पर गुजिया साथ बनाएँगे।"उन्होंने हँस कर कहा, "और दही भल्ले भी।" समधन को विदा कर संजीव आराम करना चाह रहे थे। पर अपराजिता की दवाई का समय था।

अब रोज़ का यही सिलसिला था। एक- एक करके दिन बीत रहे थे। दिनचर्या में कोई भी परिवर्तन नहीं था। संजिता होली पर आ नहीं सकी। नन्ही परी को माता (चिकन पाॅक्स) निकल आई थी।

मार्च से अप्रेल, अप्रेल से मई कब बीत गया पता ही नहीं चला। अपराजिता और संजीव कभी बच्चों की तरह लूडो खेलते तो कभी अपने पसंदीदा गाने सुनते।

बीच-बीच में कभी संजिता, तो कभी उसकी सास माँ आते रहे। अच्युत जी का रोज़ फोन आने लगा। संजीव भी हर पल ध्यान रखते थे।

पर अब होनी थी संजीव के प्रेम की असली परीक्षा। रेडियोथेरेपी शुरू हो गई थी। चांदनी सी अपराजिता काजल सी काली हो गई। उसका गोरा रंग श्याम हो गया। लंबे बाल झड़ना शुरू हो गए। शांत अपराजिता कभी गुस्सा करती, तो कभी फूट- फूटकर रोती। सब बदल रहा था, नहीं बदला था तो वह था संजीव का प्यार, उनका साथ। वह तो अमावस्या के चाँद से पूर्णिमा के चाँद तक के सफर की तरह दिनों- दिन बढ़ता जा रहा था। फिर कीमोथेरेपी हुई। दर्द में तड़प जाती थी अपराजिता। यह दर्द उसके जीवन का अभिन्न अंग सा बन गया था।

समय ने करवट बदली। अपराजिता की हालत में धीरे-धीरे सुधार होने लगा।

सितम्बर का महीना आ गया था। संजिता के जन्मदिन पर अच्युत जी, अमेरिका से वापस लौट आए थे। दोनों के मधुर मिलन को देख दोनों माँओं ने उन्हें स्नेहाशीष दिया था। तीन दिन माँ के साथ रहने के बाद संजिता अपने घर चली गई थी। अब जयपुर का घर बंद था। परी अब दादा-दादी के स्नेह की छाया में बड़ी होने वाली थी।

वैसे तो दिल्ली की गर्मी कुछ अधिक ही सताती है पर इस बार तो गर्मी थी के कम होने का नाम नहीं ले रही थी। दिनभर ए.सी. चलता रहता था। शाम को संजीव बंद कर देते थे। आज वे थक कर सो गए थे, अपराजिता को ठंड लग रही थी। उसने अपना हाथ संजीव के हाथ पर रख दिया। वर्षों बाद हुआ था उसे सर्दी में गर्मी काअहसास। उसी दिन अपराजिता की बेल पर भी बहुत वर्षों बाद पुष्प खिला था।


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