SHWETA GUPTA

Drama

4  

SHWETA GUPTA

Drama

घुटन

घुटन

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घुटन हो रही थी सपना को। थायराईड बढ़ा हुआ था, रक्त-चाप भी उच्च था, डाक्टर ने आराम करने को कहा था। पर आराम था कहाँ! फरवरी का महीना था। स्कूल में परीक्षा, बिटिया की परीक्षा; दोनों ही जरूरी थे। न स्कूल से छुट्टी ले सकती थी, न बिटिया को पढ़ाने से। और घर का काम- खाना बनाना, कपड़े धोना और फिर तह लगाकर सलीके से अलमारी में रखना आदि, आदि, आदि....... । क्या इनसे किसी स्त्री को मुक्ति मिली है जो सपना को मिल पाती! आराम की हार्दिक चाह लिए उनींदी आँखों से आज सपना रोज़ की तरह ही उठ खड़ी हुई। परन्तु खड़े होते ही लड़खड़ाकर गिर पड़ी। क्या हुआ था अचानक ?

"ओह ! इस चप्पल को भी अभी टूटना था। अच्छा हुआ ज्यादा ज़ोर से नहीं गिरी।" कुर्सी का सहारा लेकर उठते हुए सपना सोच रही थी। वैसे भी उस समय उसे सहारा देकर उठाने वाला कोई नहीं था। सुबह के चार बजे थे और घर पर सभी सुबह के रुपहले सपनों में खोए हुए थे। आज से दस वर्ष पहले तक सपना भी तो ऐसी ही थी। वह कहाँ जल्दी उठती थी? अगर कोई उससे पूछता कि उसके शौक क्या- क्या हैं तो वह हँसकर कहती, "सोना। जी हाँ, सोना। आखिर सोए बिना सपना कहाँ दिखता है।" और यह कहकर अपनो आदत के अनुसार खिलखिला कर हँस पड़ती। और आज सपना, सपनों के लिए तरसती रहती थी। जब तक रात को बिस्तर नसीब होता था, तब तक इतना थक जाती थी कि लेटते ही वह गहरी निद्रा में डूब जाती थी, अगली सुबह चार बजे उठने के लिए। अरे! इस चप्पल के कारण पूरे दस मिनट खराब हो गए, हाथ जल्दी- जल्दी चलाना पड़ेगा। यह सोचते हुए सपना स्नानघर की ओर भागी।

स्नान के पश्चात् रोज़ की तरह मंदिर में दिया जगाया। अभी भी मौसम ठंडा ही था, इसलिए चाय की चाह लाज़मी थी। पर अभी चाह कर भी आधा घंटा और चाय नहीं पी सकती थी। "हे प्रभु! यह थायराईड की दवाई ठंड में खूब परीक्षा लेती है। " यह सोच सपना ने झटपट सब्जी छोंकी और दाल चढ़ाई। फिर शीघ्रता से आटा गूंथे के बाद परांठे बनाने लगी। सबका खाना बनाने के बाद जल्दी से 'यथार्थ' का लंच पैक किया। आज बिटिया ने पोहा ले जाने की फ़रमाइश की थी। वह बनाकर उसे चाय की सुधि आई। मन कर रहा था कि कोई चाय बना दे। पर मन तो बावरा होता है! सुबह के छः बजे थे, आज की पहली जंग तो समय से जीत ली थी सपने ने। अगली चुनौती बहुत कठिन होने वाली थी।

अगले एक घंटे चक्करघिन्नी की तरह घूमती रही सपना। बिटिया को उठाना, तैयार करना, यथार्थ के लिए काॅफी बनाना, आदि, आदि... सात बजे घड़ी का अलार्म बज उठा। "आज भी दो पल बैठ नहीं पाई।" यह सोच फटाफट साड़ी बाँध कर तैयार हो गई और रोज़ की तरह थकान को दरकिनार कर चहरे पर मुस्कान सजाई। (थकान और दर्द केवल अकेलेपन के साथी थे। सब के बीच तो मुस्काना ज़रूरी था।) कुछ सोचने का समय था ही नहीं, बिटिया को गले लगाया, यथार्थ को बाॅय किया, स्कूटी की चाबी उठाई और चल दी अपनी रोज़ की यात्रा पर। सात पैंतालीस पर वह स्कूल में थी। "आभार भगवन्! आज भी आपने रेड- मार्क लगने से बचा लिया।" मन ही मन में ईश्वर का धन्यवाद कर वह आगे बढ़ने लगी।

क्या आज तक किसी मनुष्य की जीवन रफ्तार थमी थी जो सपना की थमती? मन ही मन एक धुन गुनगुनाते हुए वह कक्षा की ओर चल पड़ी। अगले ही दिन से परीक्षा आरंभ होनी थी इसलिए छात्र नहीं थे। अलमारी से कुछ निकालकर वह न जाने क्या सोच कर वहाँ कुर्सी पर बैठ गई। क्या कारण उसके बिना किसी से मिले वहाँ चुप चाप बैठ जाने का? अचानक कुछ सोचकर, जैसे ही वह उठी उसका पैर लड़खड़ा गया और उसकी दर्द भरी चीख निकल गई। सुबह से दूसरी बार गिरी थी वह। अगले कमरे में बैठी उसकी सह अध्यापिका ने जैसे ही सपना की चीख सुनी वैसे ही वह उसके कमरे की ओर दौड़ी। पर यह क्या सपना उठ ही नहीं पा रही थी। कुछ ही पलों में उसकी एड़ी में सूजन आ गई थी। प्रिंसिपल मैम को बताया गया और सपना को पास के अस्पताल ले जाया गया। उसकी हड्डी में फ्रैक्चर हो गया था। प्रिंसिपल मैम ने उसे बड़े ही अपनेपन से सांत्वना दी। डाॅक्टर की सलह अनुसार उसे आराम करने को कहा। सपना की आँखों में उदासी देखते हुए वह बोली, "चिंता न करो, तुम्हारी मेडिकल लीव लगेगी। सैलेरी नहीं कटेगी।" सपना को प्रिंसिपल मैम को धन्यवाद भी न कह सकी। वह समझ ही नहीं पा रही थी कि उसे ऐसे में क्या कहना चाहिए। यथार्थ को सपना का हाल फोन करके बताया गया। वह आफिस न जा सीधा सपना के पास पहुँचा और उसे घर ले आया। 

घर पहुँचते ही सपना की आँखों से आँसू बह निकले। वह समझ नहीं पा रही थी कि अब घर का काम, बिटिया को पढ़ाना आदि कैसे होगा। यथार्थ ने उसे समझाया कि यह नीला प्लास्टर कास्ट फाइबर का बना होता है। इसे पहन कर सपना चल सकती है। हाँ, थोड़ी परेशानी तो होगी पर घबराने जैसी कोई बात नहीं है। यथार्थ की बातों से सपना को कुछ तसल्ली बंधी ही थी कि अचानक डोर बैल बजी। यथार्थ ने दरवाज़ा खोला तो जीविका ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी, "पापा आप इस समय घर पर? सब ठीक है न? माँ की स्कूटी भी नहीं है ? आज तो माँ जल्दी आने वाली थी ? अरे ! आप कुछ बोल क्यों नहीं रहे?" "मेरी बातूनी गुड़िया, तू चुप हो तभी तो मैं कुछ बोलूँ, " यथार्थ यह कहकर मुस्कुरा दिए। फिर बोले, "माँ अंदर हैं, जाकर देख ले।" सपना को लेटा देख कर हैरान थी जीविका। पर जैसे ही उसकी नज़र प्लास्टर पर पड़ी वह बोली, "कब सीखोगी अपना ख्याल रखना, माँ। आप चिंता न करो, मैं हूँ न। सात वर्ष की जीविका की यह बात सुनकर सपना और यथार्थ हँसे बिना न रह सके। (अध्याय 7) यथार्थ ने दो सप्ताह की छुट्टी ले ली।

अब घर की सारी जिम्मेदारी यथार्थ के कंधों पर थी। अगले दिन न तो जीविका स्कूल जा सकी, न उसे दूध ही समय पर मिला। इसलिए सुबह- सुबह ही वह रोने लगी। बेचारा यथार्थ न समय पर नाश्ता बना पाया, न ही दोपहर का भोजन। शाम की चाय भी सात बजे नसीब हुई। आफिस का एक सक्षम मैनेजर पहले ही दिन घर में असहाय नज़र आया। इसलिए रात का खाना बाहर से मँगवाया गया। और यह सोचा गया कि कुछ दिनों के लिए खाना बनाने वाली मेड रख ली जाए। अगले ही दिन मेड रख यथार्थ ने चैन की साँस ली। पर जिसे घर संभालना हो उसे चैन कहाँ मिल पाता है! अभी कपड़े धोना, उन्हें सुखाना, फिर उठाना, तह लगाना, अलमारी में रखना ये सब भी तो करने हैं। जीविका की भी पल पल में होने वाली फ़रमाइश यथार्थ की मुश्किलें बढ़ा रहीं थीं। और... और ...

सपना को दवाई देना यह भी तो यथार्थ के लिए एक काम ही था। उसके ऊपर सपना का चाय का शौक बेचारे यथार्थ को पल भर की फुर्सत नहीं लेने दे रहा था। नए दिन की नई शुरुआत थी कपड़े धोने वाली मेड की खोज। कहते हैं के ढूँढने से भगवान भी मिल जाते हैं तो मेड तो मिलनी ही थी। खैर किसी तरह, डेढ़ महीने का समय बीत गया। सपना का प्लास्टर कट गया। यथार्थ ने अगले ही दिन आफिस जाने का मन बना लिया था। क्यों ? क्योंकि घर की असीमित जिम्मेदारियों से घिरा यथार्थ स्वयं को रोबोट महसूस कर रहा था, जिस कारण घुटन हो रही थी यथार्थ को।


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