पर्दे
पर्दे


हमारे घर के अंदर आते ही सब समझ जाते थे कि हमारे घर से कोई न कोई किसी हॉस्पिटल में काम करता है। साफ-सफाई या फिनायल की खुशबू से नहीं, हमारे दरवाजों और खिड़कियों पर लटके हरे पर्दों से। दरअसल ये घर एक प्राइवेट हॉस्पिटल के चपरासी का है।
मुझे ऊब हो गयी थी सालों इन्ही पर्दों को देखते देखते । अब शर्म भी आने लगी थी। बाबा हॉस्पिटल के पुराने पड़ते हरे परदों को फिर हॉस्पिटल के ही थोड़े कम पुराने हरे परदों से बदल देते। और पुराने फटे पर्दे थैला बनाने में, घर की झाड़न या पोछे में इतेमाल हो जाते। सिर्फ अपने घर मे ही नही मां पास पड़ोस के घरों में भी सिल-सिल कर बांट आती। इस से मुझे और कोफ्त होती।
मां को अच्छी सिलाई आती थी । उनके पास सिलाई के लिए आस पास के मुहल्लों के इतने सारे कपड़े आते थे पर उन्होंने भी कभी नही सोचा की एक बार इन हरे होस्पिटली परदों की जगह कुछ गुलाबी नीले फूलों वाले पर्दे भी सिल कर घर को सजाया जाए।
बाबा से एक दिन कहा भी की ये अच्छे नही लगते तो टाल गए। बोले कि ये पर्दे मोटे कपड़े के बने होते हैं, पुराने होने पर भी कितने काम आते हैं,यही सही हैं। मैंने तब तैश में कहा था कि अपनी पहली तनख्वाह से अब मैं ही इस घर के पर्दे बदलूंगी और इन बेकार के परदों को उठा के कहीं फेंक आऊंगी। बाबा हंसते हुए कहकर हॉस्पिटल चले गए थे कि तब जैसी तुम्हारी मरजी हो कर लेना फिलहाल मेरी कमाई को सजे रहने दो।
बाबा रिटायर हो चुके थे और मेरी नई नई नौकरी लगी, पहली तनख्वाह से बाबा और मां के लिए कपड़े लिए और एक बड़ी सी दुकान में फूलों वाले खूबसूरत पर्दों का आर्डर दे दिया। घर पर आ कर कारीगर नाप जोख कर चला गया। बाबा-अम्मा खुश लग रहे थे। जिस दिन पर्दे लगे उस दिन घर का कलेवर ही जैसे बदल गया। एक दम से जैसे कोई बूढ़ा जवान हो जाये।
मां बाबा मुस्करा रहे थे। मैन उन हरे परदों को फेंकना चाहा पर मा बाबा ने फेंकने नही दिया । मां ने तह लगा कर संदूक में ऐसे सुरक्षित रख दिया मानो परदा न हुआ ब्लेंक चेक हो गया। दोनों को कह दिया है कि आज के बाद ये दिखने नहीं चाहिए वरना मुझसे बुरा कोई न होगा।
कुछ महीनों से शहर में भयानक बीमारी फैली है। सब तरफ डर का माहौल है। सरकार ने सबको घरों में बंद रहने को कहा है। बाजार में खाने पीने की हर चीज महंगी होने लगी है। मेरी भी नौकरी अब चली गयी है,पर मेरा ओवर टाइम का 1500/- रुपया बकाया है। महीने से ऊपर हो गया। घर मे थोड़े भी रुपये पैसे नहीं हैं। सरकार ने सुबह कुछ घंटों की ढील दी है। उसमे रोज अपने ऑफिस तकाजा करने जाती हूँ पर खाली हाथ ही आ रही हूँ। आज भी मेरे हाथ खाली हैं।
घर से कुछ लोग मुँह को लपेटे निकलते दिखे है। कौन है ? और ये क्यों आये थे ? सब ठीक तो है न ? माँ कुछ दिन से खामोश सी हैं, बाबा भी ज्यादा नहीं बोलते।
मैं घर मे घुसती हूँ, देखती हूँ मां की सिलाई मशीन चल रही है, बाबा हरे रंग के काफी मास्क किसी को दे रहे है और वह बदले में 2000/- रूपये दे रहा है। मां ने काफी सारे हरे रंग के मास्क सिल के बना दिये हैं। बाबा ने हिसाब लगाया है कि रोज किफायत से चलें तो डेली दो मास्क से गुजारा हो जाएगा। और एक मास्क बचत में चला जायेगा।
मां कह रही हैं कि संदूक में अभी भी हरे रंग के पुराने पर्दे बाकी है।