परछाईं
परछाईं
तुमने मेरा साथ नहीं दिया।
- कैसे ?' साथ चलती आकृति ने सवाल किया।
' मैंने तुम पर बहुत भरोसा किया।
' फिर क्या ?'
- मुझे कोई फायदा नहीं हुआ। '
' कैसा फायदा मेरे भाई ?'
'अरे तुमने साथ देने की बात की थी।
' कि साथ चलने की ?'
' वही हुआ न ?'
' वही कैसे ?'
' क्यों नहीं ?'
' साथ चलना,साथ देना होता है क्या ?'
' तो क्या नहीं होता ?'
' बिलकुल नहीं। हां,कभी कभार की बात दीगर है। '
' तो समझ लो,कभी कभार। '
' पर तुम चाहते क्या हो ?'
' सफलता,शुरुरात ... और क्या ?'
' तो फिर समस्या क्या है ?'
' सफल होते होते रह जाता हूं। ओहदा मिलता है, पर छिन जाता है। शुहरत धूमिल हो जाती है। '
' क्षणिक प्राप्ति को तुम सफलता और फिर शुहरत का पर्याय समझ लेते हो। '
' हां,यह तो सही है। '
' इतना ही नहीं,तुम कुछ पाने के लिए कुछ भी करने पर उतारू हो जाते हो,कर गुजरते हो। यह तुम्हें भ्रम जाल में फंसा देता है। '
' फिर क्या करूं ?'
' ध्येय के साथ साथ प्रेय का भी ध्यान रखो। क्या करना है और क्या नहीं करना है,इसका ख्याल हमेशा रखना चाहिए। क्या आदमी वह सब करता है,जो जानवर करते हैं ? बता ओ तो। '
' नहीं। '
' तो फिर अपनी करनी का दोष मुझे क्यों देते हो कि मैंने साथ नहीं दिया ?'
' लगा कि मेरे कर्म - कुकर्म सबमें तुम मेरे साथ हो। '
' मैं कभी किसीके साथ नहीं होता। लोग मेरे साथ होना चाहते हैं। मुझे अपने साथ समझ लेते हैं,अपने कर्म का कुफल मेरे मत्थे मढ़ने के लिए। हां, यह भी सुना जाता है कि फलां व्यक्ति का समय आजकल अच्छा चल रहा है। '
' मैं साथ नहीं होता मतलब ? तुम तो .....परछाईं हो....स्त्री हो....फिर पुरुषत्व का प्रदर्शन क्यों... ?'
' हां, वह परछाईं है मेरी। मेरी आवाज है। ' तीसरी आवाज से मित्र चौंक गया।
' कौन हो तुम ?'
'समय, मैं समय हूं। अनवरत चलता हूं। लोग मेरी परछाईं को पकड़ने का यत्न करते रहते हैं। '