प्रभु के भक्ति में ही शक्ति
प्रभु के भक्ति में ही शक्ति
उतरि ठाढ़ भए सुरसरि रेता।
सीय रामुगुह लखन समेता॥
केवट उतरि दंडवत कीन्हा।
प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा॥
#भावार्थ:- निषादराज और लक्ष्मणजी सहित श्री सीताजी और श्री रामचन्द्रजी (नाव से) उतरकर गंगाजी की रेत (बालू) में खड़े हो गए। तब केवट ने उतरकर दण्डवत की। (उसको दण्डवत करते देखकर) प्रभु को संकोच हुआ कि इसको कुछ दिया नहीं॥
पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुदरी मन मुदित उतारी॥
कहेउ कृपाल लेहि उतराई।
केवट चरन गहे अकुलाई॥
#भावार्थ:-पति के हृदय की जानने वाली सीताजी ने आनंद भरे मन से अपनी रत्न जडि़त अँगूठी (अँगुली से) उतारी। कृपालु श्री रामचन्द्रजी ने केवट से कहा, नाव की उतराई लो। केवट ने व्याकुल होकर चरण पकड़ लिए॥
नाथ आजु मैं काह न पावा।
मिटे दोष दुख दारिद दावा॥
बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी।
आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी॥
#भावार्थ:-(उसने कहा-) हे नाथ! आज मैंने क्या नहीं पाया! मेरे दोष, दुःख और दरिद्रता की आग आज बुझ गई है। मैंने बहुत समय तक मजदूरी की। विधाता ने आज बहुत अच्छी भरपूर मजदूरी दे दी॥
प्रभु के बार बार कहने पर भी केवट ने कुछ नहीं लिया तब जाकर प्रभु ने उसे भक्ति प्रदान की। हनुमान जी को जानकी माता ने अनेको वरदान दिए - बल, बुद्धि, सिद्धि, अमरत्व आदि परंतु उन्होंने कुछ प्रसन्नता नहीं दिखाई।
अंत में जानकी जी और प्रभु श्रीराम ने अपने प्रेम और अखंड भक्ति का वर दिया।
प्रभु की भक्ति में ही शक्ति है और शक्ति से ही जीवन में मोक्ष प्राप्त हो सकता है। अगर मन में लगन है तो हम क्या कुछ नहीं पा सकते हैं।
जय श्री राम ।
