Savita Negi

Inspirational

4.6  

Savita Negi

Inspirational

प्रायश्चित

प्रायश्चित

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सूखे बेजान पत्ते अपनी पकड़ छोडकर सड़क में इधर- उधर बिखरे पड़े थे। शुष्क हवा का झोंका उन्हें बार- बार सड़क किनारे धकेल रहा था। परंतु वृक्ष की जड़े नए कोंपलों के स्वागत की तैयारी में डटीं थीं ।कुछ दिनों बाद ये मुरझाए हुए वृक्ष फिर से आबाद हो जाएंगे। और एक बार फिर से इन पर पक्षीयों का झुरमुट अपने घरौंदे बुनने लौट आएगा।

रिश्तों को भी इन वृक्षों की जडों की तरह अपनी नस्लों को प्रेम रूपी पानी से सींचते रहना चाहिए जिससे कभी भी रिश्ते मुरझाए नहीं।

टैक्सी रुकने के झटके से शेखर अचानक अपनी सोच से बाहर आया। 

"आपका गाँव आ गया साब। थोड़ा सा पैदल चलना पड़ेगा आपको। गांव तक सड़क नहीं बनी है। बनाएगा भी कौन गिने चुने लोग रहते है गांव में बाकी सब तो गांव छोड़ शहर जा बसे ।"

पंद्रह वर्षो बाद शेखर ने अपने गांव में कदम रखा था। 

अपने चश्मे को ठीक करता हुआ शेखर होले- होले कदमो से सँभलते हुए ढलान में उतर रहा था। जिन पगडंडियों में उछलते कूदते उसका बचपन बीता , जवानी में जिन वृक्षों की ठंडी छांव में अनगिनत सपने बुने इतने वर्षों बाद भी उनमें वैसा ही अपनापन बरकरार था।

आस -पास के खेत बंजर पड़े थे। घर का रास्ता भी ठीक से समझ नहीं आ रहा था। 

"भाई साब वो गांव में एक पीपल का वृक्ष था ,वहीं पर सोहन लाल जी का घर हुआ करता था क्या बता सकते हैं कहाँ से जाना होगा?" 

"जी सोहनलाल तो पता नहीं कौन थे लेकिन पीपल के पेड़ के पास वाले घर को तो सब भूतिया घर बोलते हैं। सब डरते हैं वहाँ जाने से।"

ये सुनते ही शेखर चौंक गया। भूतिया घर? जब उसने अपना घर देखा तो अपने ही घर को पहचान न सका । इंसान तो थे नहीं रहने को घर मे , जंगली झाड़ियों ने अपना डेरा डाल दिया था। छत भी टूट गई थी। अंदर जाने तक का रास्ता नहीं था। जंगली लताएँ सर्प की भांति पूरे घर में लिपटी पड़ी थी। घर के नाम पर बस ईंट गारे का ढाँचा खड़ा था। जिस आँगन में कभी जमघट लगा रहता था वहाँ ऊँची- ऊँची झाड़ियां जम गई थी। सच में अजीब सा सन्नाटा पसरा था । पीपल का वृक्ष भी पुरानी पत्तियों को त्याग कर नग्न खड़ा था। 

शेखर को लग रहा था मानो अभी छज्जे से माँ, पल्लू से आँसू पोंछते हुए अचानक आवाज़ देगी "रुक जा शेखू मत जा , तू भी चला गया तो हम दोनों बूढ़ों को कौन देखेगा ? और बाऊजी उदास मुँह लटकाये सीढ़ियों में बैठे होंगे।

अपने- अपने हिस्से और शहर जा बसने की ललक ने एक हंसते खेलते परिवार को बिखेर कर रख दिया। सोहनलाल जी के चार पुत्र थे। सबसे बड़ा शेखर, मनोज , अनूप और राजू । सभी भाई नौकरी करते थे कोई गांव के पास तो कोई शहर में और सबके परिवार गांव में ही रहते थे।

 घर का आंगन बच्चों की किलकारियों से गूँजता रहता था। छुट्टियों में सारा परिवार इकट्ठा होता था तो सोहनलाल और उनकी पत्नी का खुशी का ठिकाना नहीं रहता था। अपने बेटों को देख सोहनलाल की छाती गर्व से चौड़ी हो जाती थी। कुल मिलाकर सब कुछ अच्छा था। 

परंतु एक गलत सोच ने सब कुछ ख़त्म कर दिया। मनोज की पत्नी ने अपना हिस्सा माँगते हुए शहर बसने की इच्छा जताई। उसकी ज़िद और कोहराम की वजह से मजबूरीवश सोहनलाल जी ने उन्हें हिस्सा दे दिया। सोचा था बात यहीं पर खत्म हो जाएगी। परंतु अब धीरे- धीरे दबी आवाज में बाकी भी हिस्से की बात करने लगे । शहर का बंधनमुक्त एकाकी जीवन , चकाचौध , बच्चों की अच्छी पढ़ाई , सबको अपनी ओर खींच रही थी।

सोहनलाल जी ने जो जिंदगी भर कमाया आज उनके अंश उसका अंश माँग रहे थे। 

सोहनलाल जी को थोड़ी उम्मीद बड़े बेटे शेखर से थी। परंतु 

शेखर की पत्नी भी कब तक चुप रहती। महान तो वो भी नहीं थी। अलग रहने की ललक ने उसको भी जकड़ लिया था लिहाज़ा एक आख़िरी सहारा भी घर छोड़ने को तैयार खड़ा था। 

उस दिन शेखर को भी जाते हुए देख माँ पल्लू से आँसू पौंछते हुए छज्जे से आवाज़ देती रह गयी। सोहनलाल अपने घर के हुए टुकड़ों से इतने दुखी थे कि उन्होंने अपने सभी बेटों से रिश्ता समाप्त कर लिया था ।साथ ही हिदायत दी थी कि अब लौटकर गाँव मत आना।

समय बीतने के साथ सभी अपनी जिंदगियों में व्यस्त होते चले गए । चारों ने गाँव नहीं छोड़ा था बल्कि भाइयों के बीच का प्रेम भी छूट गया था।

 गांव का बड़ा घर अब वीरान पड़ा रहता था और घर के बुजुर्ग अपनों के आने के इंतजार में पूरा दिन छज्जे में ही निकाल देते थे। सोहनलाल बेटो के लिए क्रोध बाहर से ही दिखाते थे अंदर से तो अपने पोते पोतियों के लिए तरसते थे। बेटे अपने पास बुलाते तो थे परंतु उन्हें अपनी मिट्टी को छोड़कर जाना गंवारा नहीं था।

समय, बुढापा और बीमारी की मार से सोहनलाल और उनकी पत्नी भी अछूती नहीं रही। और शरीर छोड़कर आत्मा के साथ दूसरे लोक में जा बसे।

उनकी मृत्यु के बाद से ही गाँव का घर वीरान पड़ा था। अपने बुजुर्गों की निशानी को यूँ ही बेसहारा छोड़ कर सभी शहर की भाग दौड़ में गुम हो गए थे। 

ये ही बात शेखर को दिन रात परेशान करती थी । मां बाप का रोता हुआ चेहरा हमेशा उसकी आँखों के सामने घूमता रहता था। उसको लगता था कि अभी भी उसके माँ बाप की आत्माएं अपनों के इंतजार में भटक रही है।

अपनी तरफ से अपने माँ बाप के श्राद्ध में पूरे विधि विधान से तर्पण करता था परंतु न जाने क्यों खुद संतुष्ट नहीं हो पाता था। उसे अपने द्वारा किया तर्पण अधूरा सा लगता था। 

उसे ऐसा लगता था मानो जीते जी तो उनको छोड़ ही दिया था उनकी मृत्यु के बाद भी छोड़ ही रखा है। वो आज भी गाँव के घर के छज्जे में बैठे अपने बेटों की प्रतीक्षा करते होंगे की वो आएंगे और अपने बुजुर्गों की इस धरोहर को संभालेंगे। असल मायने में वही सच्चा तर्पण होगा। उसी दिन उनकी आत्मा को शांति मिलेगी।

अपने किये के लिए क्षमा तो माँग नहीं सकते थे लेकिन प्रायश्चित जरूर कर सकते थे , इस घर को फिर से आबाद करके। 

उसने अपने भाइयों से बात की। फिर से उन्हें एक होने का आग्रह किया। सब ने मिलकर माँ बाऊजी के घर को ठीक किया। उनकी कोठरी में जाते ही चारों की आँखों से पश्ययाताप के आँसू बहने लगे। कुछ ही महीनों बाद माँ बाऊजी की निशानी फिर से गौरवान्वित खड़ी थी।

 उस वीरान आंगन में फिर से चहलकदमी होने लगी। पीपल का पेड़ भी फिर से नई पत्तीयों से ढक गया था ,पक्षी फिर से लौट आये थे उसमे अपना घरौंदा बनाने। चारों भाइयों ने तय किया कि बच्चे कहीं भी रहे वो सब अब गाँव मे ही रहेंगे । 

इस बार के श्राद्ध में माँ बाऊजी का पूरा परिवार सम्मिलित था। उनकी प्रतीक्षा का अंत हुआ और अपनों से तर्पण पाकर उनकी आत्मा भी खुशी खुशी इन पंद्रह दिनों की यात्रा करके हमेशा के लिए मुक्त हो गयी।


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