प्रायश्चित
प्रायश्चित
बात उन दिनों की है जब मैं राँची अपने काम से गया था। काम खत्म होने के बाद ट्रेन की टिकट कंफर्म न होने के कारण बस का सहारा लेना पड़ा। वैसे तो मैं कभी दूर का सफ़र बस से नहीं करता लेकिन मजबूरी में बस करना पड़ा। ख़ैर मन तो नहीं था लेकिन मैंने बस का टिकट लिया और बीच वाली सीट पर बैठ गया। बस अपने नियत समय से खुली।
मेरे बगल वाली सीट पर एक लड़का बैठा था जो थोड़ा परेशान दिख रहा था। मैंने उससे पूछा तो बताया कि मैं पटना जा रहा हूँ। कुछ जरूरी काम है। मैंने फिर पूछा कि इतने परेशान क्यों हो ? उसने कुछ नहीं बताया। ख़ैर, फिर मैंने दबाव नहीं दिया और सीट पर ही सो गया।
लगभग रात के 2 बजे के आसपास उसे मैंने फ़ोन पर पैसे देने की बात करते सुना। फिर मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उसकी बात खत्म होने के बाद उससे पूछ ही लिया। जो उसनें बताया सुनकर मैं दंग रह गया। वास्तव में वो किडनी डोनेट कर पापा के लिए कर्जे को उतारना चाह रहा था। चूंकि कर्ज लेकर ही उसे मेडिकल पढ़ाया गया था लेकिन वो असफल रहा।
मैंने सोचा की आज भी ऐसे लड़के है जो इतना तक सोच सकते है। इतनी हद तक जा सकते है ! मैंने उसे बहुत समझाया, फिर घर पर बात भी कराई। वो सुबह पटना उतरा। उसे वापसी का बस पकड़वाया।
इस सफ़र ने एक चीज मुझे भी सिखाया की आखिर हम वो परिस्थिति सामने आने ही क्यों दें कि हमें खुद के नजरों में गिरना पड़े ? क्यों हम इतना बड़ा कदम उठाने पर विवश हो जाएं? अगर ईमानदारी और लगन से काम करें तो ऐसी नौबत आए ही नहीं। आखिर इस प्रकार का "प्रायश्चित" क्यों ? सोचियेगा इस बारे में...