प्रायश्चित
प्रायश्चित
संस्कार और स्वार्थ दो जूङवा भाई थे। वैसे समय में जब की बच्ची पैदा होना सामान्यतः घर के लिए सिरदर्द सा हो जाता है, उस सोच और मानसिकता वाले परिवेश में जूङवा बच्चा लङका के रूप में पैदा होना निश्चित रूप से सोने पे सुहागा जैसी बात की अनुभूति करा रहा था।
समय बीतता गया। दोनों ही बच्चे समयानुकूल बङते गये --- जब क्लास छठी सातवीं में बारह वर्ष के अवस्था में दोनों बच्चे पढ रहे थे तभी संस्कार गंभीर रूप से बीमार हो गया। अस्पताल में भर्ती के दसों दिन बीत गये। घर की अधिकतर सम्पत्ति महंगे ईलाज में बीक गये। तब जाकर कहीं संस्कार को हास्पीटल से छुट्टी मिली --लेकिन ङाक्टर ने जो कहा वह किसी भी मां --पिता के लिए कठिन पीड़ादायक होता। महंगे लम्बे असहनीय चिकित्सा खर्च करने के बाद पिता को जो ङाक्टर ने धीमे स्वर में कहा कि 'आपका बेटा --'हिजङा' है, वह सेक्सलेश है उनकी चिकित्सा हरदम कुछ अलग तरीके से ही संभव है।
समय बीतने के साथ यह खबर जल्द ही माता राम को भी पता चला। समाजिक लंछणा और पुरे समाज में यह चर्चे का विषय बने यह तो शायद किसी भी मां पिता को बर्दाश्त से बाहर होता --!
जल्द ही संपूर्ण परिवार द्वारा हरिद्वार - तीर्थयात्रा की योजना बनाई गयी। हरिद्वार गंगा स्नान में एक योजना के तहत नाटकीय अँदाज के तहत संस्कार - गंगा मैया को समर्पित कर दिया गया। कितना कठिन वह क्षण रहा होगा --जब समाज के कुलान्छण से बचने को एक मा-पिता अपने संतान को गंगा मैया में प्रवाहित कर रहा होगा---
हाय रे मानवीय सोच, कुछ जंगली जानवर अपनी क्षुधा तृप्ति हेतु अपने संतान का भक्षण कर जाता है,लेकिन यहाँ तो इज्जत बचाने एक जान कि बलि षङयंत्र के तहत --ओह यह किसी भी मानव के गलत काम करने की पराकाष्ठा ही होगा शायद।
संपूर्ण परिवार की घर वापसी हुई और परिवेश में इस नाटकीय घटनाक्रम को ईश्वरीय संयोग कहकर इति श्री कर दिया गया --एक हंसता खेलता हुआ मानव --मानव की इज्जत के खातिर भेंट कर दिया गया प्रवाहित
जल में----
अचानक से स्वार्थ के बढते स्वार्थ ने भी अपनी हद पार कर दी। मा--पिता वृद्ध हो चुके थे। स्वार्थ की शादी हो चुकी थी। बुढे मा--पिता की सेवा जब स्वार्थ को ही नहीं स्वीकार था तो उनकी पत्नी को कहाँ स्वीकार होता।
स्वार्थ अपनी पत्नी संग दौलतपुर रहने लगा। धीरे धीरे अपने माता पिता से संपर्क कम करते करते खत्म सा कर लिया।
जिस मा पिता ने कभी जूङवा बेटा पाकर परिवेश में लङ्ङू बंटवाया था, और अपने आप को सबसे ज्यादा ख़ुशनसीब सोचा था --आज वह भीङ भरी इस दुनिया में अकेले था उसकी सुध लेने वाला कोई ना था।
वृद्ध पत्नी अपने वृद्ध पति की सेवा करते थक सी गयी थी। तीन दिन से लगातार बुखार को झेल रहे यशोधर बाबू आज कुछ बोल भी नहीं पा रहे थे। घर में एक पैसा ना था तथा पास पङोस सब अब मदद के नाम पर भी हाथ खङा कर चूके थे। पास पङोस से अब तो कोई देखने भी नहीं आता था --- घर में खाने को एक दाना नहीं, यशोधर बाबू अपनी अँतिम साँस ले रहे थे और यशोधर की पत्नी का क्या हाल होगा इस परिस्थिति में आप सोच सकते हैं---मतलब बीच समुद्र में नाव ङूब सा रहा था जिसके सैलाब में पूर्ण समाहित होने का अपने आँखो इन्तजार हो रहा था सवारी यशोधर की पत्नी यशोदा द्वारा।
मन ही मन यशोदा सोच रही थी की ईश्वर मुझे मेरे कर्मों का फल दे रहा है, जो मैंने अपने संतान संस्कार के साथ किया था शायद उसी का प्रतिफल आज मुझे और मेरे पति को दे रहा है,---हे राम --मेरी सांसे बन्द कर दे।
तभी सफेद चमचमाती कार से युवा दम्पति अपने गोद में लिये छह मास के शिशु के साथ घर के अन्दर दाखिल होता है --दोनो पति पत्नी यशोदा के पैर पङता है, और नवजात शिशु उनके गोद दे देता है --मा मैं संस्कार --क्या हाल बना रखि है अपना --चल अभी पापा को ले चलते हैं हास्पीटल।
लगता है यशोदा और यशोधर ने अपने किये पाप के प्रायश्चित कर लिये थे। और अब महसूस कर रही थी यशोदा, की बीच समुद्र के भंवर में गोता खा रहे लहरों के साथ ङूब गयी नाव किनारा लग चुकी थी।