सिसकती अरमान
सिसकती अरमान
अभिराम बङे ही भव्यता के साथ अपने शादी की बारहवीं साल गिरह मना रहे थे । अपनी पत्नी अभिलाषा से ज्यादा व्यवहारिक अभिराम हरेक चीज को बङे ही बारीक निगाह से देखते हुए त्रुटिविहीन इस समारोह को यादगार बनाने में कोई यतन ना छोङना चाहते थे । नये मकान में गृह प्रवेश का उत्सव और शादी की यह बारहवीं साल गिरह दोनों एक साथ ही संपन्न हो रहा था ।
मेहमानों का आना जाना और सुंदर सुंदर सुस्वादु व्यंजन का लुत्फ उठाना मनोरंजक माहौल में चलता जा रहा है ।'स्वर्ग से सुंदर सपनों से प्यारा ,है ये घर द्वार हमारा ' स्टेज पर इस गीत के साथ गीतकार थिरकते हुए चहलकदमी कर रहे थे -- वाकई बेहतरीन घर , सजावट और कार्यक्रम था यह।
समय बीतते गया अभिराम और अभिलाषा नये घर को स्वर्ग से भी सुंदर बनाने में अपने स्तर से हर संभव प्रयास हर रोज करते रहते थे । अभिराम आफिस जाने आने के क्रम में हर रोज एक भिखारीन द्वारा गौर से उसे देखे जाने को महसूस कर रहा था , लेकिन हर रोज आफिस जल्दी पहुँचने की हङबङी और घर आते समय शारीरिक और मानसिक थकानी के वजह से , तकरीबन तीन महिने बीत जाने के बाद भी कभी भी वो रूक करके ना उस भिखारीन से कुछ पूछ पाये और ना ही कभी गंभीरता से विचार कर पाए ।
भिखारीन एक गाना निरंतर गुनगुनाती थी-- 'किसी का घर बार ना छूटे ,हो हो हो ,ये प्यारा संसार ना रूठे -----!
अभिराम अपनी पत्नी अभिलाषा से उक्त बातों को बङे ही हल्के अँदाज में रखते हुए आफिस से आने के बाद चाय की चुस्की लेते हुए कहता है ।" अरे ---अरे ,उ----डायन होगी बुढ़िया --,उधर से तुम अपना रास्ता बदल लो नहीं तो कभी भी परेशानी में पङ जाओगे --- अच्छा कल देखती हूँ उस बुढ़िया को ,अगर कल मिल गयी तो उसका खैर नहीं, बड़ी चली है तुमको देखने" --कहते हुए ढेर सारी बातें अभिलाषा बोल गयीं--जो अन्दर से अभिराम को अच्छा नहीं लगा ।
"अरे छोङो ना, क्या ऐसी बातों में अपना समय खराब करती हो उस बुढीया के लिए क्या सोचना" ---कहते हुए मुश्किल से अभिराम उसे समझा पाया और उसकी मुँह बन्द हुई।
अभिराम भी शिवपुरी स्थित अपनी आफिस को जाने आने का रास्ता लगभग बदल सा लिया था । हर रोज तकरीबन दो से ढाई किलोमीटर उसे शारदा सिनेमा होकर घूमकर जाना पङ रहा था --लेकिन जब कुछ ज्यादा जल्दबाजी और ट्रैफिक जाम का चक्कर रहता तो उसे अपना पुराना सार्ट-कर्ट रास्ता दिलबागगार्डेन होकर ही जाना पङता था ।
इसी क्रम में एक दिन वो बुढ़िया हाथ में लाठी का सहारा लिये अभिराम की घर के तरफ आ रहा था --रास्ते में ही अभिराम उसे मिल गया---
ऐ बाबू--ऐ बाबू ---थोङा सुनि लिजिए हमको।
"हां, कहल जाईं"--अभिराम ने अपने कदम धीमा करते हुए कहा।
"बाबू आपके घर में एक मन्दिर है--मेरा निवेदन है --मुझको वहाँ कल शामपूजा के लिए प्रवेश करने दिया जाय एक दीपक जलाऊन्गी और दस मिनट मौन प्रार्थना करूँगी ।"
"मेरे घर में मन्दिर कहाँ है"--अभिराम कहता है ।
"है ना दूसरे मंजिल पर पूरब दिशा में एक कमरा के बाद --शिव जी का ।"
"आपको कैइसे पता है ये सब" --अभिराम कहता है।
"बाबू मैं पहले उसी घर में नौकरानी थी --और मेरा मालिक हमको छोङ चला गया । मुझे मंदिर जाने दोगे ना---!"
"हाँ-- हाँ कल दस बजे के आस पास आ जाना ।"
बड़े ही कठिनाई से अभिलाषा को इस हेतु मना पाये अभिराम -- लेकिन मन ही मन कई सोच अभिराम के दिमाग मे चलने लगा।अगले दिन आफिस से अभिराम छुट्टी ले लेता है --। बुढिया दस बजे के आस पास लाठी का सहारे लिए घर पर कालवेल बजाती है ---बमुश्किल अपने ऑसू रोकते हुए ,ठगमगाते कदमो से बुढिया सीधे पूजा रूम पहुंच जाती है ऐसा मानिए की उसे कही कोई संदेह नही है यह रास्ता उसका चीर परीचित रोज के आने जाने का रास्ता हो। दीपक जलाती है और हाथ जोङे ऑख बंद किये मौन धारण कर ही कुछ भगवान से विनती करने लगती है, लेकिन अपने ऑसू रोक ना पायी और अश्रू धारा सी निकल पङी।बिना किसी को एक शब्द बोले वह चारो ओर वह निहारती है और फिर अपने कदम बढाते हुए जल्द ही मकान से बाहर आ जाती हैअभिराम से रहा न गया और वह बोल उठा "आप रूकिये कुछ खा कर जाइयेगा ।" और अभिलाषा को कुछ नाश्ता वगैरह का ईशारा देता है।
सहानुभूति भरे इस आवाज ने बुढिया के हर्दयतल की गहराई को छू लिया -- वह मकान के बाहर ही जमीन पर बैठ गयी । बात चीत के दौरान एक नौकरानी और भिखारिन की तरह व्यवहार और सम्मान पा कर उनकी रूह कांप सी उठी ।वह बोल पङी "मेरा ईस संसार मे कोई नही है , मौत मुझे नसीब नही हो रही"यही मकान कभी 'आसरा' के नाम से इस जगह की खुबसूरती थी --जिसे आपलोग "सहारा" नाम दिये हुए हैं । मेरे पति ने इसे कङी मशक्क्त कर बनवाया था । एक एक ईट मेरे आखो के सामने जुटा --इसे सजाया और अपना 'आसरा' बनाया था , लेकिन गुन्ङो -को ,इस शहर के प्रोपटी ङिलर को , यह देखा नही गया - --! मै भारत से विस्थापित होकर पाकिस्तान आयी थी और मेरे पति, अपनी संपूर्ण सम्पति इसी मकान को बनाने मे खर्च कर दिये । फिर एक दिन दंगा की भेंट चढ गये मेरे पति और मैं बच गयी -- एक गुमनाम होकर ।मै कभी इस मकान की मालकिन थी -- आप दोनो का आभार ,बहुत बहुत धन्यवाद मुझे यहा पूजा कर मेरे पति के नाम एक दीपक जलाने दिये --आज उनका निर्वाण दिवस है।"
अपना सर्वस्व कहकर वो चली गयी ।
अभिराम और अभिलाषा दोनो ने एक दो दिन इस बात की पूरी तहकीकात की और खतरे की सभी संभावनाओ से निश्चिन्त होकर ,बात की सत्यता को तर्क की कसौटी पर देखकर उस बुढिया को सस्मान अपने साथ रखने की आपसी सहमती बनायी और एक घर को बना लिया स्वर्ग।--
