Pawan Mishra

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Pawan Mishra

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काकु

काकु

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सन् 1984 का भागलपुर दंगा किसे याद नहीं होगा--? बहुतों ने बहुत कुछ खोया तो किसी ने अपना सर्वस्व ही खो दिया। ऐसे ही थे शहर के धनाढ्य कृष्ण मुरारी उर्फ़ कृष्णा ।

सब कुछ खो दिया था कृष्णा ने इस भागलपुर दंगा में। माता- पिता , लाखों का कारोबार , गुलाब सी सुंदर और मनमोहक पत्नी , और इन सबसे भी अजीज ,जान से भी बढ़कर साक्षात् माता सरस्वती की प्रतिमूर्ति बेटी राधिका -- सबकुछ इस दंगा में अदृश्य -- लापता हो गया।बस बच गया तो कृष्णा की जान, और कारोबार निमित्त संग्रह शेष अकूत बैंक बैलेंस--------, जो शायद अब किसी काम न था।सांसारिक मोह माया से घोर विरक्ति और अकेलापन के साथ कृष्णा ने गया में फल्गु नदी के किनारे अपने परिवार जनों के आत्मा शांति के लिए पिंडदान किया ।

फल्गु नदी तट पर स्थित बिष्णुपद मंदिर में उनका हर रोज बैठना और काले पत्थर की मूर्ति - श्री बिष्णु भगवान जो मान्य रूप से संसार के पालन-पोषण कर्ता हैं,-----से एक ही सवाल रोज पुछता था, हजारों बार टकटकी लगाए ज़बाब पुछता था कि आखिर सबका आपने खात्मा कर दिया -? क्या दोष था मेरे परिवार का --? मुझे जिंदा क्यों रखे हो भगवन --? कहते हुए कभी चिल्लाता तो कभी बड़बड़ाता रहता था मंदिर में ।

मैं परेशान हूं और तु मौन है भगवन -- मुझे ज़बाब दो -- मुझे ज़बाब दो , वरना मैं तेरा दरबार सदैव के लिए छोड़ जाऊंगा। किसी अनहोनी कि आशंकाओं के बीच मंदिर के एक पंडा ने उनसे बात करना चाहा,--- तुलसी और चरणामृत प्रसाद स्वरूप देते हुए कहा इसे खा ले भक्त।परेशानीयों को समझने के बाद पंडा जी ने उसे उसी जगह चले जाने की सलाह दी जहां से वह आया था।

संसार के पालनहार श्री विष्णु से कृष्णा अपने परिवार के नरसंहार का कारण पुछ रहा था , ठीक वैसे ही जैसे दंत रोग विशेषज्ञ से एक नादान बेचैन बालक किड़नी की बिमारी का कारण पुछ रहा हो।संसार के पालनहार श्री विष्णु हैं , हरेक जीव के भोजन का इंतजाम कर्ता हैं - श्री बिष्णु , मौत , तांडव और संहार के कारक हैं शिव जी -- यह बात मंदिर के पंडा से समझते ही कृष्णा चल पड़ा वापस भागलपुर।

भागलपुर में गंगा घाट के तट पर बुढानाथ शिव मंदिर प्रांगन मे बैठकर कृष्णा हर रोज समय - बेसमय बस इसी प्रश्न के उत्तर की प्रतीक्षा करता रहता था , कि हे शिव आपने मुझे जिंदा ही क्यों रखा है--? मेरे परिवार का नरसंहार हो गया ,आखिर क्या गलती थी उन सब की---?

बेचैन कृष्णा के दिमाग में हर रोज आत्म हत्या के नये नये विचार आ रहे थे । अपने इन्हीं अप्रिय विचारों के उठते विविध दिमागी तरंगों के साथ गंगा तट पर स्थित बुढानाथ शिव मंदिर के संध्या कालीन‌ आरती का घंटा बज रहा था और मंदिर के पुजारी मंदिर बंद करने लगे थे। अनमने ढंग से सुस्त कदमों के साथ कृष्णा वहां से शहर की ओर निकल चला ।

    

'ऐ साहब चल न मेरे साथ - रात रंगीन कर दूँगी ---' एक तवायफ पायल की आवाज फिंजा में बिखेरती हुई लाल लिपिस्टिक वाली ओंठो से कृष्णा की ओर तेज चालों से आते हुए बोल रही थी।कृष्णा को समझते देर नहीं लगी कि वह बदनाम गली में घुस चुका है -- यह जगह समकालीन जोगसर का क्षेत्र था जहां तवायफ मनचलों और बिगड़ैल लड़कों को पैसे ले कर रात्रि मनचाहा मनोरंजन कराती थी।

     

नजायज सेक्स और नजायज पैसा किसी भी व्यक्तित्व के उत्कृष्टता को देखने के लिए सच मायने में कैरेटोमीटर जैसा होता है।कृष्णा ने बातों को नजरंदाज कर आगे की ओर कदम बढ़ा दिये थे।तभी पिछे से शहर के किसी रईसजादों ने राजदूत मोटर साइकिल को अनियंत्रित तेज चाल से चलाते हुए इस तवायफ को मानो धक्का देते हुए उधर से निकला ।

  

कृष्णा ने पिछ मुड़कर देखा--- वो गिरते गिरते मुश्किल से अपने आप को बचा पायी थी-- लेकिन दाहिने पैर की अंगुलियों में गहरी खरोंच भी आ गई थी और रक्तस्राव तेज था।कृष्णा ने उसे सहारा दिया -- और अपने गमछे के एक छोर को फाड़कर उसके पैरों में पट्टी सा बांध दिया।

"चल तुझे डाक्टर के पास ले चलता हूं" - कृष्णा ने कहा।

"नहीं साहब -- मैं इस काबील नहीं,,, मात्र तीन सौ लूंगी साहब -- रात रंगीन कर दूँगी -- आपकी सारी थकान और गम मैं पी जाऊंगी साहब चलो न--!"

रोम रोम में महकती सुंदरता -- लाल वस्त्रों में रंगीली यह युवती किसी परी की तरह कृष्णा को मोहित कर रही थी।

"क्या नाम है तेरा--" कृष्णा ने पुछा !

"राधिका'- हूं साहब"कुछ सोचते हुए हल्की सी मुस्कान के साथ कृष्णा ने कहा -- "अच्छा चलो।"

"पूरे तीन सौ लूंगी साहब -- एक पैसे कम नहीं--" राधिका बोली

तभी उधर से गुजर रहे एक रिक्शावाला को कृष्णा ने अंगुली से इशारों में हल्की सी आवाज के साथ बुलाया।कृष्णा ने राधिका को अपने बाजू का सहारा देते हुए रिक्शा पर बैठा लिया।

रोहित रंजन के मेडिकल क्लीनिक पर रिक्शा को रुकने के लिए बोला , और कुछ मिनटों में ही राधिका के चोट को देखकर कंपाउंडर ने कुछ मलहम पट्टी के साथ दवा खाने का भी निर्देश दिया। यहीं पर कृष्णा ने रात्रि खाने का कुछ समान‌ भी दुकान से पैक करवा लिया।कुछ मिनटों पश्चात ही कृष्णा राधिका को साथ लेकर अपने पुराने लगभग छोड़ चुके घर जो अब खंडहर रूप में था , उसमें प्रवेश‌ कर चुके थे।

बैठ जाओ राधिका -- "क्या पियोगी , चाय या ठंडा--?"

आज तक राधिका ने दरवाजा बंद होने के बाद - किसी के जुबान से यह शब्द नहीं सुने थे , हर जगह दरवाजा बंद होने के साथ ही ग्राहक उनके शरीर पर टूट पड़ते थे और ---!

"साहब आज तक किसी ने मेरी इच्छा नहीं पूछी -- आप मेरे जिंदगी में पहला ऐसा इंसान हो जो घंटों भर मेरे साथ रह चुके लेकिन, अभी तक ----- ---------

मैं पैसा कम नहीं लूंगी साहब -- पूरे तीन सौ चाहिए मुझे।"

कृष्णा उसे तीन सौ सौ के पत्ते ,उसके हाथ में दे चुके थे ।रूपये हाथ में आते ही राधिका बोली -- "साहब मैं पूरे रात के लिए आपकी हूं -- आपकी मर्जी ,आप चाहो जैसा कर लो।"

"तुम्हारी उम्र कितनी है राधिका"-- कृष्णा ने चाय राधिका की ओर देते हुए पुछे।

राधिका-- "साहब चौदह साल‌ की हूं मैं।"

बिल्कुल पास बैठते हुए कृष्णा ने आंखों में आंखें डाल राधिका की ओर मुस्काते पुछा -- "तेरे घर में कौन कौन हैं--?"

"साहब तीन सौ रूपये में कितना कुछ जानेंगे--? ये फीस तो सिर्फ मेरे शरीर के लिए है-----।"

"ले एक हजार पकड़ ,सब कुछ सच सच बताओ राधिका"-- कृष्णा ने सौ के दस पत्ते राधिका के हाथ में दे दिया।

"मेरे जैसों का कोई घर नहीं होता है साहब। हर रात मेरे लिए एक अजनबी आदमी और अंजान जगह ही मेरे लिए रात भर का घर होता है -- जहां मेरे शरीर को मनमाफिक आदमी खूब ---- ----------"कभी मेरा भी अपना घर था, मुझे हर कोई प्यार करता था", कहते हुए राधिका रूआंसी सी हो गई।

राधिका के कंधे पर हाथ डालते , सहलाते हुए कृष्णा ने पूछा -- "फिर घर से बेघर कैसे --?"

दस - बारह साल की थी मैं , तभी, अचानक से एक सुबह मैं ने अपने आप को मुन्नीबाई के कोठे पर पाई , मुझे नहीं पता मैं यहां कैसे आ गई - लेकिन महीनों भर मैं कैद खाने जैसे हालात में रही , -- और हर रोज ----------- ।"

"चलो कुछ खाना खाओ राधिका --।"

ठंडी हो चुकी चटपटी चाउमीन और चाट के पैकेट को खोलकर अपने हाथ से राधिका को खिलाने का प्रयास कृष्णा कर रहा था।"नहीं साहब अब मुझे इसकी आदत नहीं है -- बचपन में कभी मेरे काकु ऐसे ही कौर बांध भोजन कराते थे, वो भी कभी कभी चाऊमीन और चाट मेरे लिए लाते थे।"

"मैं जैसा करता हूं वैसा मुझे करने दे -- तुझे तेरा रूपैया मैं दे चुका हूं न ।"

"बिल्कुल साहब-- राधिका वचन की पक्की है। पूरी रात मैं तेरी हूं -- तेरी मर्जी।"

कृष्णा -- "तुम खुश हो इस काम से राधिका।"

"ये भी क्या बात हुई साहब -- मुझे ग्राहक को खुश करना होता है, मुझे खुशी है या नहीं इससे क्या फर्क पड़ता है---!"

कृष्णा-- "राधिका तुझे अभी तक की जिंदगी में सबसे अच्छा क्या लगा --?"

  

राधिका--- "काकु जब सर के बालों में ऊंगुलीयां फिराते थे, खुले छत पर आसमान के नीचे उनके बाहों पर अपना सर रख सोती थी न , तो वह क्षण सबसे यादगार , बेफिक्र ,और अलौकिक सुखद एहसास कराने वाला था -- जो फिर लौट के न आ सकता है।"

कृष्णा --" हं ,हं ---- और---"

राधिका -- "अपने दीदीया से कापि पेंसिल छीन कर उसपर अपना हक जताना -- लड़ना झगडना,,मम्मी से डांट डपट मिलना , मुझे बहुत अच्छी लगती थी साहब -- बहुत याद आते हैैं वो क्षण साहब।डांट डपट कर चुरू भर सरसों तेल माथे पर जो मां लगाती थी ,बाल की चोटी बनाती थी, वो सरसों तेल की महक और खुशबू -- आज मेरे दुनिया से गायब हो चुकी है साहब। नई पुस्तकों पर अखबार के जिल्द लगाना और उन पुस्तकों की वो खुशबू आज वो एहसास कहीं नहीं है साहब।"

"कोई एक चीज जो तुझे मिल जाते और जिसके कारण तुम ये धंधा छोड़ सको--!", कृष्णा ने पुछा।

राधिका बोली -- "पढाई , अगर पढ़ाई के मौके मिल गया तो बदनाम गली से मैं निकलकर सोहरत की दास्तान लिखना चाहूंगी।"

आज बरसों बाद कृष्णा किसी से बात कर रहा था ,किसी कि बात सुन रहा था -- और अजीब सी आत्मीय लगाव इस लड़की के भावों में दिखने लगा था कृष्णा को।

"चलो अब कहीं लेटते हैं -- "कृष्णा ने उनसे हटते हुए कहा।कृष्णा ने सभी शयन कक्षों को निहारा लेकिन कहीं भी मनोनुकूल जगह नहीं जंचा।चलो राधिका छत पर सोते हैं, आज छत पर सोने का मन करता है- कृष्णा ने कहा।कुछ ही समय में कृष्णा राधिका के कंधे पर अपने दाहिने हाथ डाल छत पर पहुंच गये थे।

दरी -चादर को फैलाकर ,खुले आसमान के नीचे कृष्णा ने अपने दाहिने बांह को राधिका के लिए तकिया समान बना दिया ,जिसपर राधिका अपना सर आराम से रखी थी , और मन के अंदर दबी वो सारी बातें बेझिझक बोली जा रही थी।कृष्णा अपने दुसरे हाथ के उंगलियों से राधिका के बाल सहलाने लगता है।राधिका कृष्णा के हाथ को माथे से हटाकर अपनी छाती पे रखती है-- इस पर कृष्णा बोल उठा --

"तुझे जल्दी क्या है , अभी पूरी रात बाकी है , तुझे तेरा पूरा फीस मिल चुका है, मुझे मेरे हिसाब से चलने दो।

   

स्नेहिल हाथों से स्पर्श पाकर , राधिका कब का सो चुकी -- पता न चला।

" ऐ साहब सुबह हो गई -- रात में जगाया क्यों नहीं।"साहब कुछ किया कहां आपने , मैं सवालों के ज़बाब देने वाली रूपये एक हजार रख लेती हूं , बाकी के तीन सौ आप, ये लो वापस और मैं अब चलती हूं--" राधिका ने कही।

"अच्छा चलो तुझे छोड़ देता हूं - उसी जगह पर।" कहते हुए दोनों छत से नीचे आ गये।

"कुछ समय रुको राधिका"कुछ ही समय बाद अंदर एक कमरा से कागज के बड़े थैला हाथ में लिए कृष्णा राधिका के पास खड़ा था।

ये पकड़ो राधिका ये तेरा ही है-- उस थैले को खोलते ही दिखा उसमें रत्न जड़ित लाल रंग की बनारसी लहंगा चुनरी , जो कृष्णा ने कभी अपने जान से भी प्यारी पुत्री राधिका के लिए उस समय के पूरे पांच हजार में लाये थे।राधिका कृष्णा के इस व्यवहार पर मौन हो गई। कुछ पल के लिए वहां सन्नाटा सा था।

 तभी राधिका का उंगली पकड़ -- निकास द्वार की ओर बढ़ते हुए कृष्णा ने कहा "मानता हूं मैं बियालीस साल का हूं-- पर कल तुम्हें अपने हाथ से खाना खिलाते, पूरी रात तुम्हारा सर सहलाते मैंने कभी भी अपने अंदर एक पुरूष को नहीं पाया-- बस एक पिता के रूप मे ही मैं वहां था।क्या तुम मुझे अपना काकु कह कर बुलाओगी--? मैंने तुम्हारे सपने को सुना था और रात भर सोचा क्या मैं तुम्हारा काकु नहीं बन सकता--?इस काकु को एक मौका दो राधिका -- तेरे सारे सपने और पुराने एहसास , पुरानी खुशबू ----, पूरा करने का मौका दो -- । रूक जाओ राधिका अपने इस काकु के पास। कल से तुम्हें विद्यालय जाना है, वो भी शहर का सबसे मशहूर विद्यालय -- 'मांउट कार्मेल'नई ड्रेस ,कापी किताब सब ,--बिल्कुल वही सुगंध वाली, आज ही तुझे मिल जायेगी।

तुमने कही थी न -- पढ़ाई के लिए तुम सब छोड़ सकती हो --।"

राधिका उछल पड़ी और कृष्णा के गले से लिपट गई--- और बोल पड़ी ,"कल रात जो सपना मैंने देखी ,कि मेरा काकु मेरा हाथ पकड़ कर मुझे नरक से स्वर्ग ले जा रहे है-- वो सब सच हो गया।'


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