पिटाई का डर
पिटाई का डर


बात उन दिनों की है, जब मैं बनारस में डीएवी इंटर कालेज में पढ़ता था । और उस दिन अपने स्कूल से बंक मार कर कर भागीरथी पिक्चर हाल में फ़िल्म "गुमनाम" देखने चला गया। तब मैं हाई स्कूल में पढ़ता था, और लंच के बाद हमारा इंग्लिश का पीरियड होता था। हमारे इंग्लिश के सर पतले दुबले पर लम्बाई में छः फुटे थे। उनकी क्लास में सबसे पीछे बैठ कर और अपनी नज़र नीचे को झुका कर भी उनकी निगाहों से हम खुद को बचा नहीं पाते थे..! उस पर से तुर्रा ये, कि पता नहीं कौन सी गणित उन्होंने पढ़ी थी, कि हमेशा वो हमसे ऐसे प्रश्न ही पूछते थे, जो हमें नहीं आते थे..! और दूसरी बात ये, कि बच्चो की पिटाई वो इतनी बेरहमी से करते थे, कि किसी बच्चे को पिटते देख कर ही हमारी कंपकंपी छूट जाती थी..! और अपने बारे में मैं क्या बताऊँ..! मेरी अंग्रेजी थोड़ी कमजोर थी। और इसलिए उनकी मार से बचने का कोई भी रास्ता हमारे पास न था। ये बात सन 1966 की है। तब आजकल की तरह वीआईपी स्कूल नहीं होते थे, कि बच्चों को प्यार से पढ़ाया जाए। उस समय कोई गरीब हो या अमीर, कोई रुतबे वाला हो, या साधारण घर का, पिटना सभी को पड़ता था..! उनकी मार से कैसे बचा जाए, इस विषय पर अक्सर हम लोग रिसर्च करते थे। वैसे इसका सबसे आसान उपाय था, कि पुछईया और पिटईया वाले दिन या तो सब कुछ रट कर जाओ और या फिर क्लास से बंक मार लो..! और मैंने अपने पढ़ाई के कार्यकाल में सबसे ज़्यादा बंक उन्हीं के कारण मारा है..!
हाँ, तो असली कहानी यहां से शुरू होती है, कि उस दिन भी उनकी क्लास में पुछईया और पिटईया वाला दिन था, और उन्होंने जो चैप्टर उन्होंने पूछना था, वो मुझे बिल्कुल याद न था। इसलिये लंच के बाद स्कूल से बंक मार कर। मैं सीधे भागीरथी सिनेमाहाल पहुंच कर 'गुमनाम' पिक्चर देखने पहुंच गया..। सिनेमा हॉल में जिस सीट पर मैं बैठा था,उसके ठीक आगे वाली सीट पर जो महाशय बैठे थे, वो इतने लंबे थे, कि उनके कारण आधा से ज़्यादा स्क्रीन मेरे को नहीं दिख रही थी, और पिक्चर देखने के लिए कभी सर को दाएं घुमाना पड़ता, तो कभी बाएं, तो कभी उचक उचक कर पिक्चर देखना पड़ता। मैंने सोचा, कि उन महापुरुष से कहूं कि पिताजी, थोड़ा झुक कर पिक्चर देखें, जिससे हम भी पिक्चर को सही तरह से देख सकें, कि अचानक बत्ती गुल हो गई और इमरजेंसी लाइट जल उठी। उस लाइट में मैंने देखा, कि अरे, ये तो हमारे अंग्रेजी पढ़ाने वाले सर हैं..! तभी जनरेटर चालू हो गया और फ़िल्म दुबारा शुरू हो गई। लेकिन अब मेरी क्या हालत थी, मैं बता नहीं सकता..! एक तो स्कूल से बंक मारने का अपराध, दूसरा चोरी छुपे पिक्चर देखने का अपराध और तीसरा एक ऐसी फिल्म देखने का अपराध, जो एडल्ट थी, मतलब जिसे सिर्फ बालिग लोग ही देख सकते थे..! दोस्तों, गुमनाम भी बालिगों की फ़िल्म थी, जिसे अठारह वर्ष से कम उम्र के बच्चे नहीं देख सकते थे। लेकिन उस समय ऐसा था, कि कुछ छोटे और सस्ते हाल में सिर्फ पुरानी फिल्में ही लगती थीं और वहां एडल्ट फिल्मों में भी बच्चों को प्रवेश मिल जाता था..! अब आगे क्या बताऊं कि उस समय मेरी क्या हालत थी। फ़िल्म बहुत डरावनी थी, लेकिन मुझे फिल्म से ज़्यादा अपने सर से डर लग रहा था और मेरे दिल की धड़कन इतनी तेज हो गई थी, कि मुझे साफ सुनाई पड़ रही थी। जैसे तैसे फिल्म समाप्त हुई और उनकी नज़र से खुद को बचाते छुपाते मैं ज्यों ही हाल के बाहर निकला, कि उनकी नज़र मुझपर पड़ गई और उन्होंने मेरे को अपने पास आने को कहा। मेरे जिस्म में तो मानो काटो तो खून नहीं..! डर के मारे थरथर कांप रहा था मैं..! मैंने सोचा, "उफ..! अब क्या होगा..?'" मैं डरते डरते उनके पास गया, तो उन्होंने बहुत ही प्यार से मेरे से कहा, "बेटा, स्कूल से बंक मार कर इस तरह चोरी छुपे फ़िल्म देखना बहुत बुरी बात है..! आगे से ऐसा कभी न करना। और सुनो बेटा, अगर तुम या तुम्हारे जैसे ही कुछ और बच्चे सिर्फ मार की डर से मेरे क्लास से बंक मारते हैं, तो बेटा, आज से मैं कभी भी अपने बच्चों को कड़ी सजा नहीं दूंगा, ये मेरा वादा है। और बेटा, आज मैंने भी अपने प्रधानाचार्य से बिना इज़ाज़त लिए यहां आकर एक बड़ी गलती की है, इसलिए मुझे कोई हक नहीं बनता है मेरे बेटे, कि मैं तेरे को कोई सजा दूँ। बेटा, अपनी गलतियों को मान लेना, और फिर उनमें सुधार लाना, इसी में इंसान का बड़प्पन होता है।" उनके इस उपदेश को सुनते ही मैंने उनके चरणस्पर्श कर लिए और रो पड़ा..! उन्होंने मेरे आंसू पोछे और मुझे अपने गले से लगा लिया..!