Rashmi Sinha

Inspirational

2.5  

Rashmi Sinha

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पहल

पहल

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प्रगति जल्दी जल्दी टोस्ट में मक्खन लगाते हुए अंडे उबलने के लिए चढ़ा चुकी थी। अब बारी थी प्रज्ञा और नेहा को तैयार करने की, दोनों को जल्दी से यूनिफार्म पहनाते हुए, उसने हांक लगाई

सलिल, कहाँ हो? जल्दी करो आफिस को देर हो जाएगी।

प्रज्ञा नेहा को स्कूल छोड़ने में ही काफी टाइम लग जायेगा।

अरे हाँ! किचन से प्लेट लेते आना ,डॉयनिंग पर रखो, तब तक मैं अंडे छील कर लाती हूँ।

आया डार्लिंग, गीले बालों में कंघी करते हुए सलिल ने जवाब दिया।

बच्चों को जल्दी जल्दी खाने का निर्देश देते हुए,

खुद भी जल्दी जल्दी,डबलरोटी को कॉफ़ी के सहारे गले मे उतारती, प्रगति घड़ी भी देखती जा रही थी। कुर्सी खींच कर बैठ जाने का भी समय उसके पास नही था।

सलिल ने कहा भी, प्रगति ,नाश्ता तो बैठ कर ढंग से करो। पर वही रोज़ का रटा उत्तर, तुम्हे क्या? तुम तो खुद बॉस हो, अपने आफिस में सुनना तो मुझे ही पड़ेगा।

जल्दी में बैग संभाल, लिफ्ट से सब नीचे आये

सलिल ने कार स्कूल के सामने रोकी।

लगभग झपट्टा मारते हुए ही प्रगति ने कार से दोनों को खींच कर उतारा, जल्दी से उन्हें स्कूल के अंदर छोड़ती हुई फिर सलिल के साथ कार में---

दोनों बच्चियों का स्कूल डे बोर्डिंग भी था। आफिस में भी कार्य के बीच मोबाइल खोल कर बच्चों की गतिविधियां चेक कर ,वहां कुछ निर्देश देकर, फिर अंत मे 7 बजे उठी। बाहर आई तो उसे सलिल की कार का हॉर्न सुनाई दिया।

बैग पीछे की सीट पर फेंक, थोड़ा इत्मीनान से बैठते हुए उसने अपनी आंखें बंद कर ली। सलिल उसे देख कर मुस्कुराया।

स्कूल से बच्चों को ले वापस लौटते समय, उसने बोला सलिल होम डिलीवरी से कुछ मंगा लेते हैं

मेरी हिम्मत नही है घर लौट कर कुछ बनाने की।

ओके डार्लिंग----। पापा पिज़्ज़ा

पिज़्ज़ा ही ले लो, हम तुम भी वही खा लेंगे।

घर लौट कर सब इतना थके थे, कपड़े बदल, माइक्रो में पिज़्ज़ा गर्म कर, सबने खाया, और डॉयनिंग पर ही प्लेटें छोड़ सब बिस्तर पर।

सलिल ने थोड़ी देर टी वी चला न्यूज़ देखना चाहा

पर उसमे भी उसका मन न लगा।

तब तक प्रगति ने आफिस के एक दो किस्से सुनाए। सुनते सुनते ही दोनों को नींद आ चली थी

नींद में भी प्रगति को अपने शरीर पर रेंगते हाथों का अहसास हुआ, और वो झल्ला उठी। पर यंत्रवत होते कामों में एक काम ये भी शामिल था।

अगला दिन शनिवार था, और कुछ समय शायद चैन से सांस लेने का भी। आराम से बैठे प्रगति और सलिल कुछ छुट्टी लेकर घूमने का प्रोग्राम बनाने में व्यस्त थे, ताकि उस थकी पकी जिंदगी में ताजगी के कुछ पल आ सकें।

नेहा और प्रज्ञा के कानों में जब घूमने की बातें पड़ी तो दोनों ही कूदते हुए बोली, पापा स्विट्ज़रलैंड चलो न। बच्चियों का उत्साह देखकर सलिल ने कहा, जरूर, जरूर और सभी हस पड़े। प्रज्ञा नेहा खुशी से उछलते हुए खेलने चल पड़ी।

अब सलिल किंचित गंभीर होते हुए प्रगति की ओर मुड़ा, प्रगति! कुछ हिचकते हुए सलिल ने कहा, क्यों न हम लोग इस बार गोपालपुर चलें?

गोपालपुर??? तुम्हारा दिमाग तो सही है सलिल? 7 दिन की छुट्टियां, दिवाली का आता त्योहार, और उसे तुम गांव में बिताने की सोच रहे हो? प्रगति का आक्रोश पूरे आवेग में था।

प्रगति, वो तो मैं ऐसे ही कह बैठा। दरअसल कई बार से विद्याभूषण चाचा जी के कई फ़ोन आ चुके है। चाचा ,चाची व परिवार बहुत उत्सुक है हम सब से मिलने को, कुछ बटाई से संबंधित मामले, जमीन जायदाद की बात करनी है।

तो उस के लिए तुम कभी अकेले चले जाना, हम सभी को माफ करो।

प्रगति अब भी इस अचानक आये प्रस्ताव के लिए अप्रस्तुत थी। दिन भर घर में मौन पसरा रहा। बच्चियां भी किसी अनहोनी को भांप चुकी थी सो शांत थीं।

रात में जब प्रगति लेटी तो उसे बहुत देर तक नींद नही आई। बार-बार उसे लग रहा था कि इधर वो कुछ अधिक ही क्रोधी स्वभाव की हो चली है।

सुबह होते होते वो किसी निर्णय पर पहुंच चुकी थी।

चाय का प्याला पकड़ते हुए जब सलिल के कानों में जब प्रगति का वाक्य पड़ा," सलिल, इस बार हम गोपालपुर ही चल रहे हैं" ,अचरज से सलिल के हाथों में चाय का प्याला कांप गया, और उसमे से कुछ चाय छलक कर जमीन पर----

पर सलिल चाय का प्याला, मेज पर पटक कर प्रगति को गोद मे उठाकर, चार पांच चक्कर गोल गोल घूमता ही जा रहा था।

और प्रगति, हंसते हुए ---सलिल छोड़ो मुझे ये क्या बचपना है।

विद्या भूषण चाचा जी को खबर जा चुकी थी।

जब वो तैयार होकर स्टेशन पहुंचे तो प्रज्ञा और नेहा दोनों के मुँह से निकला, ये क्या पापा, स्विट्जरलैंड ट्रेन से??

और सलिल और प्रगति खिलखिला कर हस दिए।

विद्या भूषण चाचा जीप लेकर स्टेशन पर अगवानी को हाज़िर थे। सलवार सूट पहने प्रगति को सर पर दुपट्टा डाल, चाचा के पैर छूते देख, सलिल को सुखद आश्चर्य हो रहा था।

एक मुस्कुराहट--- जो अंतर्मन से निकल कर आ रही थी।

चाचा, चाची के लाख अनुरोध करने पर भी सलिल ने अपने बंद घर मे ही रुकना श्रेयस्कर समझा।

पक्का घर, दालान, आंगन, आंगन के कोने में बना शौचालय, बगल में गुसलखाना, एक तरफ रसोई---

बचपन गुजारा था सलिल ने इस घर चौबारे में, आंखें थीं, कि भरती ही जा रही थीं। कभी चूल्हे के आगे बैठी अम्मा की कल्पना, तो कभी चौपाल लगाते बाबूजी। प्रगति का सहयोग देख, सलिल हैरान था। वो घर के जाले उतारने व सफाई में जुट चुकी थी।

आत्मीय जनों का आना निरंतर जारी था। गांव अब उतना भी गंवई न रहा था। नेहा, प्रज्ञा को दौड़ने खेलने के लिए हरियाली युक्त वातावरण, उनके लिए नितांत नया अनुभव।

रोज ही अड़ोस पड़ोस से बन कर आते सुस्वादु व्यंजन, पिज़्ज़ा और बर्गर का स्वाद कसैला कर चुके थे।

समय कैसे पंख लग कर उड़ा जा रहा था। कभी वो चारों टहलते हुए पोखरे पर जा निकलते, साफ सुथरे पानी मे तैरती हुई मछलियां। और पापा को पानी मे छलांग लगते देख, सभी का उन्मुक्त हास्य। कहीं तो कुछ था जो दिल दिमाग को हल्का करता चला जा रहा था। नेहा ,प्रज्ञा, "पोशम्पा भई पोशम्पा " खेलना सीख चुकी थी।

दीपावली आ पहुंची, मिट्टी के दिये, भाई दूज पर भरी जाने वाली चौघड़ियाँ, अल्पना, प्रगति उत्साह से करती जा रही थी।

चाची और अन्य गांव वालों के लिए भी उस का ये रूप हैरान कर देने वाला था।

घर के दरवाजे पर स्टूल रख ,कंदील लगा रहे, कुर्ता पायजामा पहने सलिल की नज़र, अचानक प्रगति पर पड़ी, साड़ी में? साड़ी, सिंदूर और बिंदी-- हाथों में चूड़ियां, प्रगति इतनी खूबसूरत है? वो अपलक उसको देखता ही जा रहा था।

पता नही सलिल की उन नज़रों में क्या था, प्रगति के चेहरे पर भी सिंदूरी रंग बिखर कर रह गया।

पता नही अब ऐसा त्योहार कब देखने को मिलेगा। वापसी के लिए तैयार था सलिल का परिवार।

पूरा गांव विदाई के लिए उमड़ आया था। सभी कि आंखों में झिलमिलाहट थी।

पापा! नेहा और प्रज्ञा सलिल का हाथ हिलाते हुए कह रही थीं, कितना अच्छा है न स्विट्जरलैंड।

पापा अब हम लोग हर बार यहीं आएंगे। जरूर मेरी बच्चियों----

  

#POSITIVEINDIA


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