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Arun Gode

Action

3  

Arun Gode

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फजिहत.

फजिहत.

5 mins
199

एक साधारण बड़े शहर में किसी विभाग का प्रादेशिक कार्यालय था। जिसके अंतर्गत कई छोटे –बड़े अधिनस्थ कार्यालय आते थे। सभी कार्यालयों का नियंत्रण इसी कार्यालय से होता था। एक चतुर्थ श्रेणी व एक तृतीया श्रेणी के कर्मचारी इसी बड़े शहर के बाशिंदे थे। उनकी तैनाती किसी अन्य शहर में एक ही कार्यालय में थी। उन दोनों में अकसर किसी वजह से अनबन होती रहती थी क्योंकि अधजल गगरी छलकत जाय। दोनों हमेशा अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनने की कोशिश करते रहते थे। दोनों में व्याप्त मतभेदों के कारण गहरा मनभेद था। दिखने के लिए उनका मनभेद उसी शहर में स्थानांतरण के बाद कम या खत्म हो गया ऐसा लगता था। दोनों प्रधान कार्यालय में अपने-अपने इकाई में कार्य कर रहे थे। वे कभी-कभी कार्यालय परिसर में या कॅटिन में मिल जाते थे। सभी को पता था कि उनका रिश्ता साँप -नेवले के समान था। फिर भी वे अच्छे मित्र और सहकर्मि होने का नाटक किया करते थे। दोनों हमेशा इधर –उधर की हाँकना शुरु किया करते थे।

         तृतीया श्रेणी के कर्मचारी को पदोन्नति मिलने से उनका रुतबा बढ़ चुका था। उन में एक विशेष गुन था। जिसके कारण उसका कार्यालय प्रमुख के साथ अच्छे ताल्लुकात बने थे। उसके विशेष गुन और कौशल के कारण कार्यालय प्रमुख ने उन्हें अपना निजी सहायक बनाया था। साहब के कार्यालय के काम-काज के व्यतिरिक्त मुखबिर का भी काम करता था। उसकी उस कार्य के लिए भेदियों की टीम भी कार्यरत थी। खबरें जुटाने का महत्वपूर्ण काम उसके गुप्तचर किया करते थे। उन सूचनाओं की जानकारी समय देखकर ,वो साहब के साथ साझा करता था। वो हमेशा एक तिर से दो निशाने लगाने में माहिर था। शायद प्रशासक की मजबूरी थी ताकि कार्यालय में काम के अतिरिक्त क्या चल रहा हैं, उसकी भनक उन्हें हो जाती होगी !।

        उस कार्यालय में एक परंपरा थी कि कार्यालय के किसी भी कार्यरत या सेवानिवृत्त कर्मचारी की मृत्यु होने पर, कार्यालय प्रमुख एक आदेश द्वारा सभी कर्मचारियों को कार्यालय सभागृह में कार्यालय छूटने के पहिले एकत्र करके उस कर्मचारी के संबंध में जानकारी देकर शोक सभा में दो मिनट का मौन रखकर मृत आत्मा के शांति के लिए श्रद्धांजलि देते थे। कार्यालय एक शौक संदेश उनके घर भेजकर कार्यालय के कर्मचारियों की संवेदना परिवार के प्रति व्यक्त चिट्ठी द्वारा भेजा जाता था।

           एक दिन वो चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी अचानक कार्यालय कॅटिन में नाश्ता करने लगता हैं। वही कुछ निजी सचिव के भेदी भी बैठे रहते हैं। उन में और उस में औपचारिक बातचीत हो रही थी। उन भेदियों में से एक ने उसे सवाल किया कि अरे आज भाभी ने खाना नहीं खिलाया क्या ?। आते-आते ही नाश्ता कर रहे हो। उसने कहाँ आज मुझे देर हो गई थी। घर से निकला तो किसी सेवानिवृत्त कर्मचारी के घर के सामने भीड़ दिखी थी। लेट होने के कारण में रुका नहीं। शायद मुझे लगता हैं कि उसकी मौत हो गई होगी !। उसने इस कथन से एक पंथ दो काज किया था। अभी नाश्ता करके वो चला गया था। चर्चा के बाद सभी मुखबिर ने निजी सचिव को उसके इंतकाल की खबर दी थी।

        उस दिन निजी सचिव बहुत ही व्याकुल और निराश बने बैठे थे। उनके पास साहाब का ना कोई काम ,ना खबर और साहब ने भी उन्हें याद किया नहीं था। वो साहब दर्शन के लिए तड़प रहा था। उसी समय एक जासूस उनके पास आ टपका था। सचिव महोदय के चेहरे पर खबर सुन कर रोनक आ गई थी। जैसे उन्हे कोई टॉनिक की खुराक मिल गई थी। उतावले पण में बिना खबर की जांच किये बिना वो साहब के दर्शन के लिए दरबार में पहुंच गया था। बातों-बातों में उन्होने सेवानिवृत्त कर्मचारी के निधन की खबर साहब को दे दी थी। परंपरा नुसार शाम की कार्यालय छूटने के पहिले शोक सभा का हमेशा की तरह आयोजन हुआ था। लेकिन खबर देनेवाला शौक सभा में अनुपस्थित था। जैसे उसे कुछ पता नहीं हैं। अन्य कर्मचारियों ने समझा की वो पडोसी के नाते, उसके अंतिम संस्कार में किसी अधिकारी को पुछकर शायद चला गया होगा !। दूसरे दिन सचिव महोदय ने उसे वह शौक संदेशवाला लिफाफा पकड़ा दिया था। उसने उस लिफाफे को संबंधित सेवानिवृत्त कर्मचारी के घर उसके अनुपस्थिति में दे दिया था।

            दो-तीन दिन बाद वो कर्मचारी कार्यालय में आता हैं। उसे देखकर सभी अचंभित रहते हैं। कुछ लोक अपनी हादसे के लिए नाराजगी भी व्यक्त करते हैं। इस भद्दे मजाक के लिए वे प्रशासन की लापरवाही समझते हैं। यह खबर आग की तरह पुरे कार्यालय में फैल जाती हैं। अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत। वो सेवानिवृत्त कर्मचारी बिना अनुमति के साहब के केबिन में पहुंच जाता हैं। साहब सचिव को पुछते हैं कि ये बिना अनुमति के कैसे अंदर आ गये हैं ?। सचिव के मुंह को ताला लग जाता हैं। वो इधर –उधर, नीचे -ऊपर देखने लगता हैं। तभी वो कर्मचारी बोलता हैं, साहब, भूतों को अनुमति की आवश्यकता नहीं होती। वे बिना रोक-टोक के कही पे भी आ जा सकते हैं। ये जवाब सुनकर साहब हैरान हो गये थे। उसने साहब के सामने उनका हस्ताक्षर किया हुआ पत्र रखा था। उसे देखने पर सचिव ने अपनी गलती स्वीकार की थी। साहब ने उसकी छान-बिन करना शुरु किया था। उन्होंने, जिसने ये खबर दी थी। उसको बुलाया था। उसने साहब को कहाँ ये खबर मैंने आपके सचिव को नहीं दी थी। उसने कहाँ कि मैं उस दिन दफ्तर आ रहा था कि मैंने देखा की इनके घर के सामने बहुत लोक जमा हुये थे। वहाँ से रोने-धोने की भी आवाज आ रही थी। उस दिन निजी काम के कारण मैं बहुत लेट हो चुका था। इसलिए खाना नहीं खाया था। कार्यालय में आने के बाद भूख लगने पर मैं कॅटिन में नाश्ता कर रहा था। बातचीत करते-करते मैंने उस भीड़ की चर्चा की थी। मुझे भी थोड़ी शंका हो गई थी। उसे मैंने सिर्फ व्यक्त किया था। लोगों ने उसे सच मान लिया था। उसने फिर उस सेवानिवृत्त कर्मचारी की और देखकर पुछा, वहाँ किस बात की उस दिन भीड़ थी ?। उसने कहाँ, उस दिन किरायेदार के माँ का स्वर्गवास हुआ था। तभी मेरा अनुमान सही था कि तेरे घर मैयत हुईं हैं। मुझे लगा उस घर में तेरे बैगर और कौन हो सकता हैं?।

          साहब ने उस सेवानिवृत्त कर्मचारी को कार्यालय की और से खेद व्यक्त किया था। उस कर्मचारी को गलतफहमी का शिकार हुआ समझकर छोड़ दिया था। और निजी सचिव को लापरवाही के लिए सबके सामने फटाकर लगाई थी। सचिव अपना सा मुंह बनाकर अपने कक्ष में चला गया था। वो चतुर्थ कर्मचारी जले पे नमक छिड़कने के लिए सचिव के पास गया था। वो बोला। देखा, सौ सोनार की, एक लौहार की का कमाल। सचिव महोदय अपना सा मुँह लेकर रह जाता हैं।


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