पगला पगली

पगला पगली

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इस सन्नाटे में पनपती खामोशियों से बातें करी है कभी। ये सन्नाटे तेरा क्या बिगड़ रहे है। ये कहीं भी पनप जाते है, यूं ही मुस्कुराती नाचती गाती चिड़िया सी चहकती हैं। उसकी भी आवाज़ वहां गूंज जाती है। वीराने खंडहरों में सन्नाटे में छिपी कितनी कहानियां से वाकिफ हो तुम। रानी ने पगले से बेपनाह मोहब्बत की कहानियों से वाक़िफ हो तुम। पगले की बाँसुरी की तान पर झूम उठती थी। घंटों बातें किया करती थीं।

एक दिन राजा को पगले कि बाँसुरी की तान पर रानी नाचती मिली। पगले को चिनवाने की घोषणा करनी पड़ी। पगले के लापता होने के साथ बाँसुरी की तान भी लुप्त हो गई। रानी बेसुध होकर पगले के लिए पागल सी होने लगी। राजा राजा था। उसका स्वाभिमान उसको ये करने से रौंदता रहा। रानी के नसीब में लिखा ही कुछ और था। ना वो पगला मिला ना वो बाँसुरी की तान सुनी। अब रानी पगले कि याद में पगली सी मंडराने लगी।

इन सन्नाटे में छिपी कितनी कहानियां बयान होने से पहले ही लुप्त हो जाती है। किसने देखे होंगे सूरज ज़मीन अपनी पहचान बताने वाले मनमोहने वाले वक़्त में भी लुप्त होते रहते है। पर इन खंडहरों में अपने होने का एहसास दिलाते रहते है।


कितने सालों बाद तक पिछड़े राज्यों की तलाश खत्म होने लगी। कितने ने पीछे मुड़कर देखने से भी आवाज़ नहीं दी। राजयोग भाग में लिखवा कर भी इंसान की जिंदगी क्या ज़िन्दगी रही। वहीं पगला वहीं पगली दोनों मोहब्बत के सितम सेहते हुए इन्हीं खंडहरों में आज भी सन्नाटे में अपना वक़्त का एहसास दिलाते रहे।।

   


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