पड़ोसन
पड़ोसन
क्या ज़माना आ गया है गोया किसी से अपनी बात तक नहीं कह सकते। लोग जाने क्यों बात का बतंगड़ बना देते हैं। बात का तबसरा करने से पहले हम मुआफी के साथ अर्ज़ करते है कि ज़नाब को उर्दू नहीं आती। अलिफ़। बे से आगे न हम पढ़ पाए और न ही हमारे अब्बा हुजूर नें हमें ' मदरसे ' भेजने पर ज़ोर ही दिया।
मौलाना हुजूर जो हमारे उस्ताद हुआ करते थे। गोया शतरंज के बड़े शौक़ीन थे और रोज़ ही दो पहर बाद अपना ' मक़तब ' बढ़ा कर हमारे दीवान खाने में तशरीफ़ ले आते थे और फिर वो ' शह और मात ' का खेल शुरू होता कि " नवाब राय उर्फ़ मुंशी पिरेम चंद " के किरदार " शतरंज के खिलाड़ी " भी उनके आगे पानी भरने लगें।
हर घंटे नाश्ते पानी का इंतज़ाम करो। हमारी अम्मी भीतर से कुड़बुड़ाती रहतीं। कभी कभी इतने ऊँचे बोलतीं की आवाज़ दीवानखाने तक पहुँच जाती थी लेकिन हमारे अब्बा हुजूर इस तरह कान में तेल डाले रहते कि गोया बहरे हो गए हों।
हमारे उस्ताद तो बहरे थे ही। उनके मक़तब में क़िताब खोले बच्चे सबक़ घोंघ रहे होते और ज़नाब खुरपी को बर्फ़ी समझ डंडा घुमा देते।
हमारे उस्ताद नें कई दफ़े अब्बा हुज़ूर से अर्ज़ किया कि लड़के को पढ़ाओ लिखाओ ताकि तालीमी इदारे में उठक बैठक कर सके। लेकिन अम्मी की किसी बात पर जैसे वो कान में तेल डाले रहते वैसे हमनें भी उनकी किसी बात पर कान न दिया। तीन दर्ज़े पढ़ कर तौबा कर ली और पन्दरह साल की उमर में छत पर खड़े पेंच लड़ाया करते थे।
इक दिन " खिचड़ी " का त्योहार था। अखाड़े में कई नामी गिरामी पहेलवान हांथ आज़माने आए थे। अम्मी। बहनों के साथ गंज में " खिचड़ी मेला " देखने गईं थीं और हम छत पर पेंच लड़ाने लगे। तभी हमारी ख़ूबसूरत महगी पतंग कट गई और हवा में तैरती दूर चली गई। मग़र हवा का ऐसा रुख़ बदला कि वो उड़ कर वापिस हमारे पड़ोसी की छत से होती हुई आंगन में जा गिरी।
उमर तो हमारी पन्दरह साल हो गई थी मूंछे भी निकल रहीं थीं। बदन भी माशाअल्लाह बड़ा तंदरुस्त था। हमारी अम्मी अपने भाई के सिफ़ाख़ाने से कोई न कोई ताक़त का नुस्खा लेकर आती ही रहती थीं। अब्बा पर और हम पर बराबर आज़मातीं। अब्बा पर तो कोई ख़ास असर दिखता न था लेकिन हम पर दिखता और क्या खूब दिखता !
उस उमर तक हमें औरत - मरद के रिश्तों और प्यार मोहब्बत का कोई इल्म न था। चुनांचे हम बचपन की तरह पड़ोसियों के घर में बेधड़क घुस जाते थे और। उस दिन भी घुस गए और हमनें वहां जो देखा उसे तफ्सील के साथ अगर यहाँ लिख मारा तो। सआदत हसन " मंटो " की
" काली सलवार " सरमा जाएगी और हम दिल से ये नहीं चाहते कि गोया उस वक्त जो " मंटो " का दुनियावी हाल हुआ। वो हमारा हो जाए। बाद में " मंटो " मशहूर हुए लेकिन जो बदनामी झेल और गालियां खा कर वे क़ब्र में सो रहे हैं। चुनांचे हमारे अंदर वो ताब नहीं कि उनका मुकाबिला कर सकें।
सो आगे अर्ज़ किया है कि। हमनें जिंदगी में पहिली बार अपने पड़ोसी के घर में एक बीस साल की नंगी औरत देखी जो बिस्तर पर पड़ी।
अपना बदन खुद ही नोचे डाल रही थी और उसके मुंह से अज़ीब अज़ीब आवाज़ें आ रहीं थीं।
और हम बुक्का फाड़े बेवकूफों की तरह उसे देख रहे थे। अचानक उसकी नज़र हम पर पड़ी। वो हमें देख मुस्कुराई और बदन ढापने की कोशिश भी न की। उसे अपनी ओर देखता पा कर हम आंगन में पड़ी पतंग उठा कर वापिस अपने घर आ गए।
हम घर तक आ पहुंचे फिर छत पर जा पहुंचे और पड़ोसी के घर का आंगन देखने लगे। जो हमारी छत से साफ़ दिखता था। उस मादरजात को नंगी देख कर हमारे अंदर से कुछ ऐसा लगा जैसे कोई दबी चिंगारी। सुलग उठी हो।
और इक दिन मौलाना हज़रत मियाँ। हमारे घर पर " तक़रीर " करने पहुँचे और हमारे शाइस्ते नें पूरे मोहल्ले में घूम घूम कर इत्तिला कर दी और न्योता दे आया।
दीवानख़ाने को दो हिस्सों में बांटा गया और बीच में परदा लगा दिया गया। मरद एक तरफ़ और औरतें एक तरफ़। तक़रीर शुरू हुई।
उस तक़रीर का एक भी लफ्ज़ हमारी समझ में न आया। हम पहलू बदलते रहे। हमारे सामने जफ़र मियाँ ' हज्ज़ाम '। क़व्वालों की तरह पैरों पर बैठे थे गोया नमाज़ पढ़ रहे हों और हम नीचे बिछी दरी जो हमारे पुरखों के ज़माने की थी और जगह जग़ह से उधड़ी थी। उसमें से धागे उधेड़ने लगे। दो हाँथ के दो धागे उधेड़ कर उसे रस्सी की तरह बट दिया। अगल बग़ल के हजरात तक़रीर सुनने में इतने मगन हुए कि उनका ख़याल ही इस तरफ़ न गया कि हम कर क्या रहे हैं। और फिर हमनें वो रस्सी धीरे से सामने बैठे ' हज्ज़ाम मियाँ ' के पैरों में इस तरह बाँधी कि हज़रत को पता ही नहीं चला।
तक़रीर अपने अंजाम तक पहुँचना चाहती थी और हम बैठे न रह सके। सो उठ कर चल दिये।
अब्बा हुज़ूर नें इक कड़ी नज़र से देखा ज़रूर मगर कहा कुछ नहीं और हम ओसारे में में बैठ कर बाहर देखने लगे कि वक़्त गुज़ारने का कोई ज़रिया हाथ लगे।
उधर ' हज्ज़ाम मियाँ ' जैसे ही उठ कर खड़े हुए।
धड़ाम से मुँह के बल इतनी ज़ोर से गिरे कि उनके आगे के दोनों दाँत टूट गए। अफरातफरी का माहौल बन गया।
बात आई गई हो गई। काफ़ी देर हो गई थी सो हमारे पेट में चूहे कूदने लगे और हम अम्मी के पास पहुंचे। वहाँ वही पड़ोस की बीस साला ख़ातून बैठी थीं जिन्हे हमनें बिना कपड़ो के देखा था। हमारी अम्मीजान नें हमारी बात सुनी और थोड़ा वक़्त माँगा और हम वहीं बैठ गए।
अम्मीजान उस ख़ातून से घुट घुट कर बातें किये जा रहीं थीं और उनकी बातों से इतना ही जान सके कि कोई तीन साल पहले उस ख़ूबसूरत औरत की शादी हमारे पड़ोसी " नंगे मियाँ " के साथ हुई थी। नंगे मियाँ यही कोई पचीस साल के लप्पू झन्ना आदमी थे। गोया इतने दुबले कि फूंक मार दो उड़ जांय। पहले कहीं और रहते थे। किसी सरकारी महकमे में नौकर थे। बदली हुई तो तीन महीने पहले हमारे पड़ोस का खाली पड़ा मकान किराए पर लेकर रहने लगे।
वह औरत इतनी हसीन थी कि हमें किताबों में देखी उन खूबसूरत औरतों की याद हो आई जो सिनेमा में हीरोइन हुआ करती थीं। बार बार वो हमें कनखियों से देख कर मुस्कुरा देती थी। उसने फुसफुसा कर हमारी अम्मी के कान में जाने क्या कहा और अम्मी मुस्कुरा कर सिर हिलाने लगीं।
वो औरत उठी और अम्मी फ़ारिग हो कर हमें साथ लेकर दस्तरख़ान पर जा बैठीं। उन्होंने बड़े प्यार से हमें खाना खिलाया और बोलीं। " पड़ोस में चला जाया कर। पड़ोसियों से मेलजोल रखना अच्छा होता है। उसका कोई काम वाम हो तो वो भी हाँथ बटा दिया कर। तेरे अब्बू को तो अपनी महफिलों से फ़ुर्सत नहीं और मुझे घर से। फिर अब्बा हुज़ूर ये काम कर भी नहीं सकते। "
चुनांचे हम शाम को अपनी पड़ोसन के घर पहुंचे।
उसका मरद अपनी किसी रिश्तेदारी में गया था।
उसने हमें देखा और खुशी से उछल पड़ी और ढेर सारा मीठा नमकीन ला कर। हमारे सामने रख दिया और एकदम सट कर बैठ गई। न जाने क्यों हमें उसका इस तरह बैठना बड़ा अच्छा लगा।
अपने हाँथ से बर्फ़ी उठा कर हमारे मुँह में डालती और उसके सीने के उभारों की टोंच हमें साफ़ महसूस होती। उसने उस दिन हमें सिर्फ़ खिलाया पिलाया।
अभी हम घर लौटे तो देखा वो फिर अम्मी के साथ बैठी थी और हम रात का खाना खा कर अपनी अम्मी के हुक़्म की तामील करने उसके घर सोने गए। हम घोड़े बेच कर सोते थे और आधी रात को मीठी शर्दी की रात। रजाई के अंदर हमें इक सुकून भरी गरमी का एहसास हुआ। वो हमारी बगल में उस दिन की तरह बिना कपड़ो के लेटी थी और उस दिन हमने पहली बार " ज़मीन पर ज़न्नत का नज़ारा " किया।
फिर तो ऐसा हुआ कि ये " ज़न्नत का नज़ारा " हमें रोज़ ही होने लगा। इक दिन उसने हमें इतना प्यार किया कि हम छह साल बाद समझ पाए कि उस दिन उसने इतना प्यार क्यों किया ?
और फिर कुछ दिन बाद पड़ोसी के घर नन्हे बच्चे की किलकारियाँ गूँजने लगीं। " नंगे मियाँ " उड़ते फिरते थे और इतने खुश थे गोया इससे ज़्यादा खुश रहा ही नहीं जा सकता। और " नफ़ीसा "।
यही नाम था उसका ,हमसे दूर दूर रहने लगी।
नंगे मियाँ का तबादला कहीं और हो गया और " नफ़ीसा " अपने शौहर के साथ चली गई।
छह साल बाद जब वो इक दिन शहर किसी रिश्तेदारी में आई तो हमारे घर भी आई। उसके साथ उसका छह साल का लड़का भी था जो बड़ा शरारती , सुंदर और चुलबुला था।
तब तक हम औरत और मर्द के रिश्ते को बख़ूबी जान समझ चुके थे। अम्मी के पास से उठ कर वो बाहर आई और ओसारे में हमें अकेला खड़ा देख रुक गई। उसका लड़का उसके आगे कूदता फांदता अपनी मोटर में जा बैठा और वो हमें देख एक दिलफ़रेब हँसी हँस कर बोली।
"देख लो अपने लड़के को। छह साल का हो गया है !"