पछतावा

पछतावा

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आज कंगना की बेटी सुनयना की पुण्य तिथि थी। इस कारण सुबह से ही वह बहुत उदास थी। कंगना के पति अरुण भी ऑफिस के काम से शहर से बाहर गए हुए थे नहीं तो उनके कंधों पर सिर रखकर अपने मन की बात करके अपने ग़म को हल्का कर भी लेती।


उसे आज रह रह कर अपने अतीत की बातें याद आ रही थीं। उसे याद आया कि शादी के तीन साल बाद जब सुनयना हुई थी तो वह उसे पाकर बहुत खुश थी, और बस अच्छे से उसकी परवरिश करना चाहती थी। उसे अब और संतान की कोई इच्छा नहीं थी, पर जब सुनयना दो वर्ष की थी तो वह फिर से प्रेग्नैंट हो गई ।उसे अपने प्रेग्नैंट होने का तीन महीने बाद पता चला था। वह दूसरे बच्चे को रखने को तैयार नहीं थी, और उसने रो-रोकर घर में कोहराम मचा दिया था। घर में उसकी सास और पति ने उसे बहुत समझाया कि दो बच्चे होने तो ज़रूरी हैं, वक्त का कुछ पता नहीं कब क्या हो जाए, फिर सुनयना को भी अपना साथी मिल जाएगा। मां-बाप के बाद बहन/ भाई एक दूसरे का सहारा बनते हैं। पर उस समय तो उस पर बस अबॉर्शन का ही भूत सवार था। उसकी ज़िद के आगे किसी की न चली और उसे डॉक्टर के पास ले जाया गया ।डॉक्टर ने उसकी केस हिस्ट्री पढ़कर बताया कि उसके साथ बहुत सारे कॉम्प्लिकेशंस है और अबाॅर्शन भी साधारण तरीके से नहीं होगा बल्कि जब बच्चा थोड़ा बड़ा हो जाएगा तो ऑप्रेशन के द्वारा ही निकाला जाएगा बेहतर यही है कि आप इसे रखने का मन बना लो पर उसने मना कर दिया था। डॉक्टर ने फिर पांच महीने पूरे होने पर अबॉर्शन के लिए आने को कहा था। किसी तरह उसने वह समय बिताया और पांच महीने पूरे होने पर डॉक्टर के पास पहुंच गई। डॉक्टर ने उससे पहला प्रश्न यही पूछा कि पांच महीने होने पर भी तुम में इस बच्चे के लिए ममता नहीं जागी तो वह बोली थी जब इसे रखना ही नहीं था तो ममता कैसे होती। अब डॉक्टर के पास भी कोई चारा नहीं था ।उसने ऑप्रेशन करके बच्चे को अरूण के हाथों में उसे दफनाने के लिए थमा दिया था, और यह भी बताया था कि अब आपकी पत्नी कभी मां नहीं बन पाएगी। वो दफनाने से पहले बच्चे को उसके पास लेकर आये थे।बच्चे के सभी अंग छोटे छोटे बन गए थे ,वह लड़का था। बच्चे को दफनाने की सोच कर अरुण की आंखों में आंसू आ गए थे और वह उससे बहुत नाराज़ दिख रहे थे। हॉस्पिटल में भी आसपास खड़े लोग उसकी तरफ बड़ी हेयदृष्टि से देख रहे थे।


हॉस्पिटल से घर आने पर उसे चारों तरफ उस बच्चे की ही शक्ल दिखाई देने लगी, उसे ऐसा लगता कि कोई उसका गला दबा रहा है और वह चिल्ला कर बैठ जाती थी । उसकी मानसिक स्थिति खराब होती जा रही थी। फिर कई महीनों के इलाज के बाद ही वह ठीक हो पाई थी।


अब वो अपना पूरा ध्यान सुनयना पर देने लगी,और खुश भी रहने लगी थी। पर होनी को तो कुछ और ही मंज़ूर था। जब सुनयना सात साल की हुई तो उसे डेंगू ने जकड़ लिया था और बहुतेरा इलाज कराने के बावजूद भी वह बच ना सकी। विडंबना तो देखो जिस बच्चे की अच्छी परवरिश की खातिर उसने दूसरे बच्चे को रखना गवारा नहीं समझा भगवान ने उससे वह भी छीन लिया। ना बेटा मिला ,ना बेटी रही और अब वह मां भी नहीं बन सकती थी अब वह खाली हाथ थी। अब उसे अपने अबॉर्शन के फैसले पर बहुत पछतावा था। पर अब पछताने से फायदा भी क्या था।


डोर बेल बजने से कंगना का ध्यान भंग हुआ और वह वर्तमान में वापिस आयी। दरवाज़ा खोला तो पंडित जी खड़े थे जो सुनयना की तीसरी पुण्यतिथि पर हवन कराने आए थे ।कंगना फिर रोते हुए हवन कराने की तैयारी में लग गई।



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