STORYMIRROR

Harish Bhatt

Tragedy

2  

Harish Bhatt

Tragedy

पानी न बिजली फिर भी पहाड़ से लगाव

पानी न बिजली फिर भी पहाड़ से लगाव

3 mins
107

वर्ष 1947 में बारह के गजर के साथ आधी रात को जब यह मुल्क आजाद हुआ, उन दिनों भी पहाड़ की औरतें पानी भरने के लिए मीलों दूर जाती थीं और जब इस देश ने अपना संविधान बनाया, जब हम गणतंत्र हुए-तब भी ये औरतें पानी भरने को मीलों दूर जाती हैं. पानी भरना उनके लिए फुलटाइम जॉब है, क्योंकि पानी का घनघोर अकाल है. पाताल चला गया है. पानी लाना जरूरी है क्योंकि बच्चों और परिवार को खाना कैसे मिलेगा? क्या बिना पानी के दाल बन सकती है? रोटी बन सकती है? नहाना-धोना हो सकता है? पानी उनके लिए लाक्षागृह है जिसकी बुनावट रोज की सिरदर्दी है और उन्हें इस सिरदर्दी से रोज दो-चार होना है. न सिर्फ दो-चार होना है, बल्कि फतह भी पानी है. उत्तराखंड के लिए वक्त ठहर गया है और हम मस्त हैं कि इस देश में अब हमारा कानून चलता है, कि हम आजाद हैं, कि इस मुल्क में हमारे अपने कायदे-कानून हैं, जिनसे यह संप्रभु राष्ट्र संचालित होता है. उत्तराखंड की औरतों का जवाब कानून की किस किताब में मिलेगा? उत्तराखंड जहां कल था, वहीं आज भी है. गुरुत्व जड़ता का नियम उस पर क्यों नहीं लागू होता? ये औरतें आज पुरु ष के मरने तक की दुसह पीड़ा झेलने को तैयार हैं, कल को अपनी आजादी की कामना के तराने गाएंगी, परसों वे बहुत आसानी से पूछ सकती हैं-यह मुलुक क्या होता है जी और कैसे बनता है कोई मुलुक? है किसी के पास इस सवाल का जवाब? अपने ही मुलुक का हिस्सा है. राजनीति के मकडज़ाल में फंसे उत्तराखंड में जैसे हालात केदारनाथ आपदा के समय थे, ठीक वैसे ही हालात आज भी है. जहां-तहां पहाड़ खिसक रहे है, मैदानी इलाके बरसात के पानी में डुबकियां लगा रहे है. जन-जीवन अस्त-व्यस्त सा है. पहाड़ों को चीर कर बनाई गई आधी-अधूरी सड़के इंसानों को चीर रही है. आए दिन फटते बादलों ने इंसानों में वो खौफ पैदा कर दिया है कि गांव के गांव खाली होते जा रहे है. श्रीदेवसुमन से लेकर हेमवती नंदन बहुगुणा और विकास पुरुष एनडी तिवारी की जन्मभूमि रहा-यह सूबा. आज भी संपूर्ण विकास से अछूता है. विकास के नाम पर जिन क्षेत्रों के तराने गाए जाते है, वो भी मुख्य मार्गो पर ही स्थित है. दूरस्थ इलाकों के हालातों की कहानी तो तब बयां हो, जब वहां तक आने-जाने के साधन हो. मीलों दूर पहाड़ों में चढऩे-उतरने के बाद इतनी भी हिम्मत नहीं होती दो पल चैन से बैठकर हालात को समझा जाए. स्कूल है तो मास्साब नहीं, मास्टर जी है तो बच्चे नहीं. आखिर यह कैसा उत्तराखंड है. पानी न बिजली फिर पहाड़ से लगाव. अपना घर अपना ही होता है. लेकिन घर में खाना पकाने को लकड़ी के चलते जंगल-जंगल काट डाल गए. जंगली जानवर आबादी में घुसे चले जाते है. अगर सच में आजादी मिलने और उत्तराखंड राज्य बनने के बाद विकास कार्य किए गए होते तो पहाड़ से पलायन रुक जाना चाहिए था, वहां के औसत आदमी के पास जरूरत के हिसाब से आय के साधन होने चाहिए थे. कितना आसान होता है, लालकिले से यह कहना कि हम चौतरफा संकट में हैं, कि आंतरिक उग्रवाद हमारे लिए आतंकवाद से भी गंभीर समस्या है और कितना त्रासद होता है बुनियादी जरूरतों का सपना बन जाना? इस भाषणभक्षी देश को वाकई यह समझाना बहुत जरूरी है कि चिल्लाना क्यों और कब लाजिमी हो जाता है? कैसा है यह ताना-बाना जिसमें तिलिस्म बेशुमार हैं और सपनों को परवाज मिल पाने के मौके गाहे-बगाहे? जो गूंजेंगे, वे बेशक सवाल ही होंगे. पहले यह तय तो हो कि घर को बचाना जरूरी है, सजाना तो बाद का काम होता है.


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Tragedy