" पांडे में भी पांडे "

" पांडे में भी पांडे "

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आज फिर पंडित दीनदयाल भोज से छक कर आये। घर में प्रवृष्ठि होते ही आवाज लगाने लगे..." कहाँ हो सुधा की माँ, अरे मालकिन... सुनती हो। तनि काला नमक और नींबू पानी घोलकर दो तो...पेट में बड़ा दर्द हो रहा है"..." इतना स्वादिष्ट भोजन बनाते हैं कि पेट भर जाये पर नीयत नहीं भरती। अहा...ऐसा स्वादिष्ट खीर की, चढ़ा गये चार कटोरी... ऐसे नरम--नरम मीठे गुलाब जामुन कि पच्चीस तो जरूर ही खा गया। अब पेट में घमासान युद्ध मचाए हुए हैं...जरा जल्दी बना दो ,तनिक शांति हो, अब अपनी रसना को कोसू, या उस नालायक महराज को...जो ऐसा छप्पन भोग बनाता है कि अंगुलियां चाटते--चाटते पतली हो चली हैं...रोज सौंगध खाता हूँ कि तनिक भी ज्यादा नहीं खाऊंगा, पर भोजन की थाली देखते ही कुछ याद ही नहीं रहता है। "

ऐसे पेट पूजक पंडित जी के दो घर बाद एक शेख साहब का घर था। पंडित जी से उनकी छनती भी बहुत थी। रोज रोज ऐसा भोजन पुराण उनकी क्षुधा में भी आग जला जाता था। क्या भाग्य लेकर जन्मा है यह पंडित, अरे वाह ,यह तो रोज छाने रसगुल्ला, केसर की खीर, और हमारे नसीब में लिखा है सूखी रोटी--सब्जी।

काश, हम भी पंडित होते तो रोज छानते पूड़ी--खीर..।

रोज रोज की बातचीत में वे इस राज की टोह लेने.लगे कि महीने में कहाँ कहाँ दावत है पंडित जी की।

पता चला कि दो कोस दूर के गांव में एक जमींदार है जो अब रहते तो शहर में हैं पर हर पूर्णमासी अपने पितरों के नाम पर खूब ठसके दार न्यौता देते थे, पांच गांव के सारे ब्राह्मण पंडितों को।

शेख साहब के मन में मंसूबे पलने लगे, अबकी तो यह दावत खा कर ही रहूँगा। चाहे जो होना है, वह हो ले...।

गए एक दिन नाई की दुकान पर, अपनी दाढ़ी--मूंछ दोनों उड़वा दी, दुख तो बहुत हो रहा था, हाय ...कितना बढ़ियां मेंहदी से रंग कर रखते थे, पर नरम--नरम रसगुल्ले, केसरिया खीर, छप्पन भोग खाना है तो यह कुर्बानी क्या मायने रखती है। यह तो घर की खेती है ,फिर उगा लेंगे। पहचान भले ही हो पर यह स्वाद थोड़े ही देती है।

बाजार गये, चंदन खरीदा। एक बढ़ियां सफेद धोती और भगवा कुर्ता और रामनामी गमछा भी खरीदा। 

पंडित जी से सुनगुन ले ही आए थे, गिनने लगे कि अभी एक दिन बाकी है, पूर्णिमा के लिए।

गरमी का दिन था, मुंह पर कपड़ा डाले हुए रह रहे थे ताकि कोई टोकाटाकी न करें अल्लाह के फजल से बेगम भी मायके गई हुईं थीं, वरना उनकी भ्रू भंगिमा और सवालों से से कौन बच सकता था। तहमद लगाने वाले दिन भर धोती पहनने की कवायद करते रहे। मन में डर भी बहुत लग रहा था कि पकड़े गए तो क्या होगा। 

पर अब जीभ काबू मे नहीं थी।

दूसरे दिन धोती पहन, तिलक लगा, रामनामी गमछे से मुंह बांध शामिल हो ही गए पंडितों के जत्थे में। गर्मी का मौसम बहुत काम आया, मुंह ढ़के होने से पहचानने का खतरा कम था। जुबान शेख जी चला ही नहीं रहे थे।

हर कोई सोच रहा था कि दूसरे गांव के रहनवारे होंगे।

जोहते--जोहते पंगत बैठी। शेख साहब ने तनिक दूरी बनाकर बैठने का इंतजाम कर लिया, मन ही मन सोच रहे थे कि कोई पूछा तो दूर गांव के किसी भी पंडित के रिश्तेदार बन जायेंगे। अभी तो पकवानों का रसास्वादन किया जाए।

अहा.... क्या क्या पकवान परोसें गए है, पूड़ी, कचौरी, चार तरह की सब्जी, खीर , रायता, इमरती, रसगुल्ला, पापड़, अचार, सलाद, कैसा मजेदार खाना , यही तो जन्नत है। ऐसा खाना मिले तो पेट भले ही फट जाऐ, मन तो नहीं भरने वाला।

शेख साहब इतने आनंदित हो गए कि स्वांग को भूल बैठे...सब पंडित सब्जी का रसा मांग रहे थे तो शेख साहब हांक लगाने लगे...." थोड़ा शोरबा हमको भी "...।

पंगत में पास बैठे पंडित जी को को शक हुआ...कान लगा कर सुना..." शोरबा "... हांक लगा ही दिये... "का हो पंडित जी, कौन गांव के ", शेख साहब समझे ही नहीं कि कहाँ चूक हो गया है, बोल बैठे, " लच्छी गांव "।

वही पंडित जी फिर हांक लगाये..."कौन कुल "...

शेख साहब बोले...."पांडे "

वही पंडित जी फिर हांक लगाये...." कौन पांडे "...

शेख साहब का दिमाग ही घुम गया....हैं... पांडे में भी पांडे..., समझ गए कि फंसा अब...पकड़े धोती और जो सरपट भागे कि आगा देखा न पीछा...समझ गए पकड़ाया तो किरकिरी जो होगी, वह तो होगी...मार न पड़ जाए।

पीछे से शोर सुनते रहे कि पकड़ो---पकड़ो, कौन बहुरूपिया है...

और शेख साहब गुनते रह गये... हैं... पांडे में पांडे...

बिगाड़ गये, कबाड़ गये हमारा भोज... हफ्ते दिन मुंह छुपाए बैठे रहे दाढ़ी बढ़ाते। ऐसा भोज जो कबहूँ न भूले जाए। कमबख्त पांडे में पांडे....


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