पाँचवा दिन
पाँचवा दिन


पाँचवा दिन।
इतवार वाला दिन।
कब से इंतज़ार वाला दिन।
लेकिन ये क्या, कब शुरू हुआ और कब ख़तम हो गया पता भी नहीं चला, ये बात वो लोग ज्यादा अच्छी तरह महसूस कर पायेंगे जो 'work from home' कर रहे हैं।
सोच के रखा था कि आज कोई काम नहीं। पर सोचा हुआ हो जाये ऐसा हमेशा कहाँ होता है। दिन की शुरुआत रोज की तरह स्कूल के काम से ही शुरू हुई। आखिर स्कूल भी तो चिंतित है बच्चों के होने वाले नुकसान को लेकर। और इसी कोशिश में सब लगे हैं कि जितना हो सके इस नुकसान को कम किया जाए। इसमें आधुनिक तकनीकी एक विशेष भूमिका में डटी हुई है
आधुनिक तकनीक से याद आया। लॉकडाउन में समय कैसे बिताए। इस पर अपनी 'वाट्सएप्प यूनिवर्सिटी' में बहुत सारा ज्ञान है। किताबें हैं। फ़िल्में हैं। बहुत सारा सीखने के लिए बहुत सारे लिंक हैं। बहुत मतलब बहुत कुछ है।
नहीं है तो बस 'समय'। कब करें ये सब। किताबें-फिल्में-लिंक। सब भेज रहे हैं। थोड़ा समय भी भेज दो न यदि संभव हो।
बहरहाल। खुद को एहसास दिलाने के लिए कि आज छुट्टी का दिन है, मैंने भी काम के बीच फ़िल्में ढूंढ डाली। नज़र अटकी तो फ़िल्म 'छिछोरे' पर। नाम से लगा शायद हँसी-मज़ाक की फ़िल्म होगी। इस तनावपूर्ण माहौल को शायद हल्का कर दे।
अपने नाम के विपरीत फ़िल्म बहुत ही 'संवेदनशील' विषय पर थी, जिसका सार ये था कि हम सिर्फ जीत की तैयारी करते हैं, हार के विषय में तो सोचना भी नहीं चाहते। पर नहीं। गलत है ये। जीत के जश्न के साथ हार का दुःख भी स्वीकार करना आना चाहिए।
मुझे तो बहुत पसंद आई। एक बार जरूर देखिए। आपको भी अच्छी लगेगी।
ख़ैर, आज मैंने सोच में तो 'कोरोना मुक्त' दिन मना लिया। न कुछ सोचा न देखा। सच में भी ये दिन जल्दी आएगा ज़रूर।