नयी राह
नयी राह
जाड़े की गुनगुनी धूप लॉन में आ चुकी थी, मगर काम है कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। मन बेचैन हो रहा था, अपनी खुद की लिखी उपन्यास को आराम से धूप में बैठ कर एक बार पढ़ने का। कल ही मेरे उपन्यास का विमोचन शहर के कई गणमान्य व्यक्तियों के सामने हुआ। दो साल से सोच रही थी ,उपन्यास लिखने का, इस साल मैंने ठान लिया था। ईश्वर की कृपा और पापा के सहयोग से मेरा संकल्प पूरा हुआ।
सुबह से मेरी सहेलियों का फ़ोन आ रहा था, आज के समाचार पत्रों में मेरे उपन्यास की ख़बरें जो छपी थी। फूली नहीं समा रही थी मैं शुक्रिया, धन्यवाद करती खुश हो रही थी, मगर जब आख़िर में कहती मुझे तो तू गिफ्ट कर देना अपनी किताब..हँसकर टाल देती।
नवीन को पसंद नहीं था मेरा लिखना, हमेशा कटाक्ष करते एकदम शेक्सपियर बन जाओगी क्या ? घर में पचास काम है उसपर ध्यान दो। काम से जब भी थोड़ा समय मिलता लिखने बैठ जाती मैं, ’अम्मा जी भी कहती “क्या लिखती रहती हो ?” बिना मतलब का आँखें फोड़ती रहती हो...”बिट्टू पर ध्यान दो।बिट्टू सब समझता दसवीं का बोर्ड दे रहा था -कहता ,अरे !” मम्मा तुम लिखो नाना जी छपवा देंगे चिंता मत करो।”
अम्मा जी की आवाज़ सुनी तो धूप से उठकर दौड़ी आई। देखा, नवीन अम्मा के बगल में बैठे हैं, फिर से कुछ सुनाएँगे। लेकिन ये क्या ”अम्मा जी मुझे पाँच सौ का नोट देकर कह रहीं थी ‘बहु ,अपना उपन्यास मुझे नहीं दोगी ‘ मैं भी पढ़ूँगी और मैं भी नवीन ने कहा, तो हम सब हँसने लगे। मेरी मेहनत और संकल्प ने मेरे जीवन को नयी राह और दिशा दे दिया था। अब मेरी लेखनी को नया आयाम मिल गया था और पहचान भी।