Shubhra Varshney

Tragedy

5.0  

Shubhra Varshney

Tragedy

नन्ही कलाकार

नन्ही कलाकार

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दिल्ली, करोलबाग, आजाद पार्क से कुछ पीछे पश्चिम की ओर फुटपाथ पर।


मजमा लगा था। एक छोटी लड़की मेले कुर्ते के ऊपर एक फटी हुई धोती पहनी हुई थी।


अवस्था 12 से 13 वर्ष के बीच रही थी किंतु वह बहुत गंभीर कुछ करतब दिखा रही थी उसके मुख पर विषाद युक्त धैर्य रेखा थी।


विषाद इसलिए था क्योंकि वह भूखी थी और भीख मांगने का उसका मन नहीं था उसका स्वाभिमान भूख को कुछ देर के बाद आने को कह रहा था। अभी वह करतब दिखा चंद पैसे इकट्ठा करना चाह रही थी।


लोगों की भीड़ उमस भरी गर्मी को और गर्म कर रही थी। पसीने से तप्त वह लड़की कभी ताश का खेल दिखाती और कभी एक साथ सिक्कों के बीच पांच लट्टू चला मज़मे के आनंद को बढ़ा रही थी।


भीड़ तालियां बजा रही थी पर उसे तालियों का क्या करना वह तालियों की आवाज की जगह सिक्कों की आवाज सुनना चाहती थी।


उसे बाबा की याद आ रही थी कि तमाशे के बखत थोड़ा गिड़गिड़ाया कर क्योंकि यह मज़मे को ज्यादा भाता है औरसिक्के दिलाता है ।

पर उसे नफरत थी गिड़गिड़ाने से, शायद नन्ही जान जानती थी की गिड़गिड़ाना बेशर्मी है जिससे करुणा तो जाग उठती है पर स्वाभिमान रोता है। हां इस बेशर्मी पर कंजूस से कंजूस भी पैसे दो पैसे कुर्बान कर ही देता था।


एक पाली का खेल रोक सिक्के बटोर उन्हें मुट्ठी में समाने का प्रयास करने लगी। एक तिरछी निगाह से उसने एक तरफ पड़े अपने बीमार पिता को देखा और सिक्के गिनने लगी।

अभी तो 50 भी नहीं हुए थे उसके चेहरे पर आई बूंद आंसू की थी या पसीना, दूर खड़ी मुझे भ्रम पैदा करा रही थी।


बड़ी दूर से मैं सड़क किनारे बेंच पर बैठी उसके करतब देख रही थी, ना जाने किस आकर्षण में उसके पास जा पहुंची।


पास से देखा तो गौर वर्णी थी जो कुछ वक्त और कुछ अभाव से कुछ पीली कुछ सांवली लग रही थी, पर उस आभाव में भी संपूर्णता थी।

पास बन रही पकौड़ी को देखता देख मैंने पूछा, "पकोड़े खाएगी? "


वह चुप थी ।उसके मुख पर भूख की छाया पसरी थी जो यथार्थ था और उसका स्वाभिमान यथार्थ पर हावी था।


दूर बैठे पकौड़ी वाले को आवाज देकर मैंने कहा ,"इसको पकौड़ी दे देना।"

पकौड़ी वाले ने उपेक्षा से कहा, "आव ले जाव।"

लड़की ने रोष भरी दृष्टि से देखा और मुंह फेर लिया।


उसकी मूक अभिलाषा ने कुछ उत्तर न दिया।

मैं पकौड़ी वाले से बोली, "दाम मैं दूंगी लड़की को पकौड़ी दे जाओ।"

पकौड़ी कर दोना पकड़ते ही खाने की आतुरता उसकी भूख की गवाह थी।


उसका कोमल चेहरा खिल गया था जैसे-जैसे वह खाती जाती ,उसके भीतर जीवन शक्ति जागृत होती जाती थी।


जब 4 -6 पकौड़ी बची, तो उसे अपने बीमार पिता का ध्यान आया ।पिता के पास जाकर उसने आवाज दी, "ई पकौड़ी खा लो बाबा।"

पिता जैसे तंद्रा से जागा पकौड़ी खा फिर लेट गया।


मेरे पूछने पर कि उसकी भूख शांत हुई कि नहीं उसने उदासीनता से कहा, "जाकी जरूरत ना थी, ई पकौड़ी ना खिला तनिक पैसा देवा करी तो बहुत खुशी होती हमका।"


उसके कठोर शब्द मेरे हृदय पर तीर के समान लगे सुनकर मेरी दया का स्थान क्रोध ने ले लिया था और मैं सोचने लगी थी वह कौन सी आकांक्षा थी जिसने इसकी आत्मा को इतना निर्बल बना दिया था।


लड़की मुझे विचारों में गोता लगाता छोड़ दोबारा तमाशा जोड़ने का प्रबंध करने लगी।

एक बार उसे तिरस्कृत नेत्रों से देख मैं अभिलंब वहां से चल दी।


घर आकर मन बार-बार उस लड़की के पास पहुंच जाता था उसका व्यवहार हृदय में टीस उत्पन्न कर रहा था।


जिस सुख भाव से प्रारब्ध हमें वंचित कर देता है उससे हमें द्वेष हो जाता है। क्या उसका आत्मसम्मान का भाव जागृत हुआ था या यह उसके व्यवहार की क्रूर कीड़ा थी मेरा अनुमान अपनी परिणिति तक नहीं पहुंच पा रहा था।

उत्सुकता वश दूसरे दिन कार्यालय से लौटते समय सांंयकाल वहां पहुंची ।वह लड़की तमाशा समेट रही थी।


उसके सूखे काठ जैसे हाथ मनोयोग से थैले में तमाशे की दुनिया सजा रहे थे।


अस्ताचलगामी सूर्य की अंतिम किरण धरती से विदाई ले रही थी रात्रि हो चली थी ।अंधकार मूर्तिमान होता प्रतीत होता था वह निर्भीक बिना चिंता के अपने घर की ओर अग्रसर थी।


हां अपने थैले को हृदय से ऐसे चिपका रखा था मानों यही उसका संपूर्ण खजाना हो।


संकरी गलियों से गुजरती वह लड़की और उसका पीछा करती मैं एक जर्जर से घर तक आ रुके।

उसने हल्के हाथ से दरवाजा खिसकाया, मुझे पीछे साथ आया देखकर स्तब्ध हो गई थी।


अंदर अंधकार पसरा हुआ था तभी एक महिला का स्वर गूंजा, "आ गई री जगिया।"

बत्ती जला उसने कमरे को प्रकाशमान कर मुझे बैठने को कहा।


मेरी नजर कमरे में भ्रमण कर खाट पर लेटी वृद्ध स्त्री पर रुकी जो अब बड़े मनोयोग से जगिया की लाई सब्जी रोटी खा रही थी। शायद उसकी दादी थी।


दूसरी खाट पर लेटा व्यक्ति जगिया का स्पर्श पा जैसे तंद्रा से जाग गया यह वही व्यक्ति था जो उस दिन देखा था।


प्रेम की रहस्य निराले हैं, नन्हें हाथ अपने पिता को रोटी खिला रहे थे।

बीच-बीच में वक्र दृष्टि से मुझे देखकर मेरे वहां रहने का कारण पूछ रही थी।


दोनों को खाना खिला वह घर साफ करने लगी ।

किस कष्ट से वह घर संभाल रही थी वह पूर्णता परिलक्षित था। कुछ सहायता कर सकूं यह सोच मैंने कुछ रुपए उसकी तरफ़ बढ़ाए।


अब जगिया की क्रोधित नेत्र मुझे विचलित कर रहे थे जैसे उसका स्वाभिमान हिल उठा था। मैं उसका यह रूप देख कर काठ सी जड़ हो लज्जित कदमों से घर लौट आई।


आज मैं ठीक तमाशे के समय पहुंची अपने अभिमान में वह बड़े प्यार से कला की रागनी बिखेर रही थी। अब मैं उसके पूरे तमाशे की साक्षी थी। तमाशे के बाद मुझसे पैसा लेते हुए उसका शुष्क मुख प्रसन्नता की आद्रता से नम हो गया था।


अब मैं घर लौट रही थी कई दिन से त्रस्त मेरे मन को जैसे शरण मिल गई थी। पीछे से पकौड़ी वाला जो कई दिन से मुझे आते देख रहा था जोर से बोला, "काहे तमाशे वाली पर बखत खराब कर रही हैं आप।"


मेरे मुंह में बस यही फूटा, "तमाशे वाली नहीं, नन्ही कलाकार है यह, जो जीवन की कला में रंग भर रही है।"

मेरे तेज कदम घर की राह पकड़ रहे थे और मेरे हाथ अपनी नम हो आई आंखों को साफ कर रहे थे ।


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