Neeraj pal

Abstract

3.5  

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निष्काम गुरु सेवा।

निष्काम गुरु सेवा।

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यह एक पौराणिक गाथा है। गोदावरी नदी के पावन तट पर गुरु श्री वेद धर्मा, का प्रसिद्ध आश्रम था। उस आश्रम में अनेकों शिष्य आत्मज्ञान प्राप्त करते थे ।उनमें एक शिष्य का नाम था दीपक। गुरु वेद धर्मा का परम शिष्य था दीपक। एक दिन वे अपने शिष्य दीपक से कहते हैं कि अपने पूर्व जन्म के दो पापों का प्रायश्चित वाराणसी जाकर करना चाहता हूँ, क्योंकि शास्त्रों के अनुसार वाराणसी में किया गया प्रायश्चित बड़े से बड़े पापों को भी धो डालता है। परंतु ऐसा करने पर उनके शरीर में गलित कुष्ठ हो जाएगा। आंखों की रोशनी चली जाएगी। स्वभाव में भी अप्रत्याशित परिवर्तन आ जाएगा, वैसी स्थिति में उन्हें एक सेवक की आवश्यकता होगी। वे जानना चाहते हैं कि ऐसी स्थिति में क्या उनका शिष्य दीपक उनका साथ निभा सकेगा? दीपक के लिए तो यह वरदान के समान था। वह बोला-" गुरुदेव ! अपने पापों को मेरे ऊपर डाल दें, मैं कोड़ी और अंधा बन कर खुशी से उन पापों को भोग लूँगा।"

 गुरु वेद धर्मा ने कहा-" कर्मों का भोग कर्ता को ही भोगना पड़ता है। पाप भोगने से अधिक कष्ट पापी की सेवा में होता है। कहा भी गया है- भोगादपि महा कष्टं शुुश्रुषायां भविष्यति'।


अंधा क्या मांगे दो आँखें। अपनी ईश्वर की सेवा का सुनहरा अवसर वह कैसे त्याग सकता था। वह तुरंत तैयार हो गया। दोनों गुरु और शिष्य वाराणसी को चल पड़े। मणिकर्णिका घाट के समीप डेरा डाला। गुरु श्री वेद धर्मा, जो स्वयं एक सच्चे गुरु भक्त थे, ने ध्यान त्याग कर अपने पूर्व जन्म के पाप- संस्कारों का आवाहन किया। कुछ देर बाद वे पूरी तरह से कोढ़ी हो गए। उनकी आंखों की रोशनी चली गई। शरीर के अंगों से मवाद रिसने लगा। स्वाभाविक है शारीरिक कष्ट ने उनका स्वभाव ही बदल दिया। वे बात-बात पर दीपक पर बिगड़ जाते, डंडा भी चला देते। अप शब्दों की भी बौछार करने लगते।


 दीपक गुरु की ऐसी दशा देखकर दुखित रहता उसकी आँखें बरसती रहती। फिर भी वह जी जान से गुरु की सेवा में जुटा रहता। गुरु की खरी खोटी बातें उसे सेवा के मार्ग से डिगा नहीं सकीं। वह रोज के घावों को साफ करता, पट्टी बांधता, मल- मूत्र बिना घृणा के साफ करता। यह सारा कार्य निस्वार्थ भाव से बिना किसी गरज से प्रेम पूर्वक वह करता था। गुरु के भोजन की व्यवस्था भी भिक्षा मांग कर करता। गुरु की भर्त्सना तो उसके लिए आशीर्वाद था। तपश्चर्या का रूप मानकर वह और भी मनोयोग से सेवा कार्य में जुट जाता। उसके लिए तो गुरु ही साक्षात भगवान विश्वनाथ थे।


इसी प्रकार दीपक की निष्काम एवं समर्पित सेवा से प्रसन्न होकर भगवान महादेव साक्षात प्रकट हो गये। उन्होंने दीपक से वर मांगने को कहा। दीपक गुरु की आज्ञा के बिना भगवान का वरदान भी स्वीकार नहीं करता। उस समय उसके गुरुदेव नींद में थे और वह उन्हें पंखा झल रहा था। अतः उसने भगवान से क्षमा याचना करते हुए कहा- गुरुदेव के जागने पर उनकी आज्ञा लेकर वह वरदान मांगने मंदिर में आएगा। अभी मैं वरदान नहीं ले सकता।


कुछ समय बाद गुरुदेव जागे। दीपक ने उन्हें भगवान के आने और वरदान देने की बात बताई। उसने कहा कि यदि गुरु महाराज आज्ञा दें तो उनके रोगमुक्त होने का वरदान मांग ले। गुरु ने ऐसा करने से मना कर दिया। क्योंकि पाप भोगने से ही नष्ट होता है।


 दूसरे दिन दीपक बाबा विश्वनाथ के मंदिर में जाकर भोलेनाथ से कह आया कि उसे कोई वरदान नहीं चाहिए क्योंकि उसके गुरु की इच्छा नहीं है। दीपक के इस अविचल गुरु भक्ति की चर्चा देवलोक होते हुए विष्णु लोग पहुँची। भगवान विष्णु उसकी भक्ति से प्रभावित हो दीपक के समक्ष प्रकट हो गए। जैसा होता है, उन्होंने भी वर माँगने को कहा।दीपक भगवान विष्णु को देखकर चकित हो गया। बिनयावनत हो आर्द स्वर में बोला- भगवान ! मैं तो आपको कभी स्मरण नहीं करता फिर भी आपने इस दास पर कृपा की और वर देने आ गए। यह तो मेरा सौभाग्य है।

भगवान बोले- सच्चे गुरु भक्तों पर देवता और भगवान अनायास ही प्रसन्न रहते हैं। उन्होंने दीपक से वर मांगने को कहा। दीपक गद् गद् हो गया, उसे रोमांच हो गया। उसने भगवान से वरदान मांगा कि उसके गुरु का प्रायश्चित पूरा हो जाए और वह पूर्ववत स्वस्थ होकर अपनी कृपा उस पर बरसाते रहें। उसे मोक्ष अथवा आत्मज्ञान की कामना नहीं है। वह तो यही चाहता है कि गुरु के चरणों में निष्काम भक्ति निरंतर बनी रहे। भगवान उसकी अविचल गुरु भक्ति से प्रसन्न हो गए और बोले तथास्तु।

"यही निष्काम गुरु भक्ति कहलाती है।"


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