सच्चा भक्त।
सच्चा भक्त।
प्राचीन समय की बात है, दक्षिण के तैलंग प्रांत के रामभद्राचार्य का निवासी एक ब्राह्मण था। जिसका नाम भक्त श्री नाभा दास जी था। वह निम्न जाति के थे।
उनके चरित्र के बारे में यह कहानी है, यह बचपन से जब पाँच साल के थे, तो उनके प्रदेश में भीषण अकाल पड़ गया। लोग दाने-दाने के लिए भटक गए और असंख्य प्राणी मृत्यु की गोद में चले गये। माताओं ने अपने बच्चों की ऐसी दशा देख उन्हें अकेला छोड़ दिया और स्वयं को मरते हुए छोड़ गई।
ऐसी ही त्रस्त दशा में नाभा जी अपनी माता द्वारा भगवान के आश्रय एक जंगल में छोड़ दिए गए। और सबसे मुख्य बात यह है कि यह बालक जन्म से ही अंधे थे। रोने पुकारने के सिवा वह कर भी क्या सकते थे।
एक दिन उसी जंगल से एक महान संत का जाना हुआ और उस बालक पर उनकी नजर पड़ी उस बालक को देखकर उनका हृदय पिघल गया। उन्होंने उस बालक को गोद में उठाया और जल पिलाया। जब उन्हें यह पता चला कि यह बालक तो अंधा है तब उन पर उन्हें दया आ गई और उन्होंने अपनी शक्ति से उस बालक की आंखों की रोशनी वापस ला दी। उस बच्चे को अपने आश्रम में ले गए।
आश्रम पर उसको रखा और संतों की सेवा करने का पवित्र कार्य सौंपा। संतो के चरणों को धोना और झूठी पत्तले उठाना, यही नाभा जी की साधना हो गई। नाभा जी के संस्कार इतने अच्छे थे कि उन्होंने गुरु का हृदय बहुत जल्दी ही जीत लिया।
इस प्रकार वह आगे और ज्यादा गुरु की सेवा करने लगे जो भी गुरु कहते वह जल्दी ही उस कार्य को समाप्त कर देते। इस प्रकार लक्ष्य - "सेवा नहीं, गुरु को प्रसन्न करना है। सेवा तो एक माध्यम है।"
गुरु उनकी सेवा से प्रसन्न होता है। ऐसी बात नहीं वह तो निष्ठा देखता है। "सेवा के अनेक रूप मिलकर एक लक्ष्य की सिद्धि कर रहे हैं। उसमें छोटा क्या और बड़ा क्या?"
इस प्रकार जब नाभा जी बड़े हो गए, तब उनके गुरु ने उन्हें आदेश दिया कि-" नाभा जी- अब तुम संतो की चरित्रावली लिखो।" यह बात सुनकर नाभा जी ने अपने गुरु से कहा-" कि प्रभु मैंने तो कभी कलम भी हाथ में नहीं ली। मेरे अन्य साथी विद्या प्राप्त करते रहे, पर मुझे तो आपने केवल सेवक का ही काम काम दिया। बिना अक्षर ज्ञान के मैं आपकी आज्ञा का पालन कैसे कर सकूंगा?" इसके अतिरिक्त मुझे कभी इस बात का भी अवकाश नहीं मिला कि आपके वचनामृत सुनता और भक्तों की कथाएं जानता। मैं अज्ञानी उन महापुरुषों के विषय में लिख ही क्या सकूंगा ?
गुरु ने कहा-" बेटा मेरा आशीर्वाद तेरे साथ है, और सही है- जिसे समर्थ गुरु का आशीर्वाद मिल जाता है उसके लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं होता। एक पल में उसको सारी विद्या प्राप्त हो जाती है। और हुआ यही उसी क्षण सरस्वती माँ उनके जीवन में प्रवेश कर गई। नाभा जी रो पड़े। गुरु बोले-" अब तुम क्यों घबराते हो, "भक्तों का चरित्र औरों ने तो केवल सुना है, पर तुझे अपने जीवन के विषय में बताने के लिए संत स्वयं उपस्थित होंगे। जब तूने सारे ही संतों की पनहीं उठाई, चरण धोए हैं। उनकी सेवा की है। वे इतनी भी कृपा न करेंगे।" नाभा जी गुरु के चरणों में शीश चढा दिया।
इस प्रकार नाभा जी ने गुरु के वचनों को रखकर एक ग्रंथ की रचना की जिसका नाम "भक्तमाल" रखा गया। गुरु के गुणानुवाद के धागे में भक्तों के जीवन के एक-एक दाने को माला में ऐसा पिरोया कि माला की शोभा देखते ही बनती थी। परंतु माला में "सुमेरु" भी तो होता है।
नाभा दास जी की समझ में नहीं आया कि भक्तमाल का सुमेरू कैसे बनाया जाए। अपने इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए व्याकुल हो रहे थे, लेकिन प्रभु तो योग क्षेम का ठेका लेते हैं, भक्तों की जिस वस्तु की आवश्यकता हुई पहुंचाई, जो समस्या आई उसको हल कर दिया।
एक दिन उन्होंने एक बहुत बड़ा भंडारा रखा। उस भंडारे में बहुत से संत महात्मा आए लेकिन यह बात गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी सुनी। वह भी उस भंडारे में पहुंच गए। लेकिन वहां काफी महात्मा लोग बैठे हुए थे, बैठने की जगह नहीं थी, वह उस जगह पर बैठ गए जहां पर महात्मा लोगों के चप्पल और जूते रखे हुए थे
वहां पर भोजन परोसा जा रहा था, लेकिन इनके पास पत्तल भी नहीं थी प्रसाद किस में लें, उनको यह समझ में नहीं आया। उन्होंने झट से संतो के पड़े हुए जूतों के पास जा बैठे और परोसने वाले के सामने आते ही एक जूता उठा लिया और उसमें खीर परसवाली।
नाभा दास जी यह सब देख रहे थे, भगवान का प्रसादी का इतना ऊंचा महत्व समझने वाले और संतों की पनहीं तक की इज्जत करने वाले। इस महात्मा को दौड़ कर उन्होंने गले लगा लिया और कहने लगे -हे ! संत सम्राट ,हे! बाल्मिक, हे! राम जी के चरणों के मधु, तुम धन्य हो मुझे अपनी "भक्तिमाल" का सुमेरू मिल गया।
इस प्रकार एक बार ये सतसंग सभा में बैठे हुए थे, उनमें से एक प्रेमी भक्त ने यह प्रश्न इनसे किया कि-" इस संसार में सबसे बड़ा कौन है? सबसे पहले उनमें से एक व्यक्ति बोला- कि इसका उत्तर तो बड़ा सरल है' सभी जानते हैं कि पृथ्वी सबसे बड़ी है क्योंकि इसे भी शेषनाग धारण किए हुए हैं, तब फिर शेषनाग बड़े हुए। एक प्रेमी ने विनम्रता पूर्वक कहा- परंतु शेषनाग तो शिवजी ने अपने गले में लटका रखा है।
नाभा दास जी ने उत्तर दिया -तो क्या शिवजी सबसे बड़े हुए, शिवजी भी तो अपने आसन के लिए कैलाश पर्वत की शरण लेते हैं, यदि कैलाश को बड़ा मानो तो रावण उसे उठा ले गया और रावण को श्री राम जी ने मार डाला। सब बड़े चक्कर में थे ।
पूछने लगे-" प्रभु आप ही बताइए? भक्तराज ने बताया- कि सबसे बड़े वे हैं-" जो भगवान को भी हृदय में बंदी किए रहते हैं।
" इस प्रकार कभी भूना हुआ बीज जैसे उग नहीं सकता। वैसे ही भक्ति भगवान के भक्तों के सहारे बिना नहीं आ सकती।
अतः भक्ति ही सर्वोपरि है और जो व्यक्ति ईश्वर को अपने हृदय में बसा लेते हैं वही महान है और सच्चा भक्त है।
"भक्त के वश में हैं भगवान।"