नींव की दुर्दशा सामाजिक लघु कथा
नींव की दुर्दशा सामाजिक लघु कथा
जिंदगी कभी कभी ऐसे अनुभव कराती है।जिसे देख सुनकर मन कसैला हो सोचने पर मजबूर हो उठता है. क्यों लोग रिश्तो की दुहाई देते हैं ? निजस्वार्थवश ,बनावटी ,अपना काम निकालते ही बस इतिश्री।ऊपरी मुस्कान भरा चेहरा सभी को नजर आता पर सिसकते अंतर्मन को कोई नहीं देख पाता।रहीम ने ठीक ही कहा है कि
"रहिमन निज मन की व्यथा मन ही राखो मोय सुन इठलैइहै लोग सब बांट सके ना कोय "
जग से विलीन होते ही खूबसूरत प्रेम और चंदन के फूलों की माला तो भी मिलती है लेकिन जीते जी -----
यह एक मूक व्यथा है परिवार के मुखिया की उस चेहरे को अपने रूबरू होकर भी मैं पहचान नहीं पाई।बचपन से ही सुनती चली आ रही थी।वह एक ऐसे समृद्ध परिवार की बहू है जिसकी चार पीढ़ियां एक ही छत के नीचे रहकर औरों के लिए मिसाल कायम किए हुए हैं।उसी घरकी इकलौती
बहू सुधविहीन ,र्जजर, बेजान हालत में ?
धीरे-धीरे परतें खुली तो सासू मां का अपने नाती -पोतों के बीच पिसते हुए ,उनका आपसी जुड़ाव कराते स्वयं का अपना कोई अस्तित्व ही नहीं रहा. आदर्श बहू का खिताब लिए गृहस्थी का भार संभाले एक धुरी की तरह चलती चली जा रही थी इसी विश्वास के साथ ,कि उसके आगे पीछे दौड़ने वाले ,पुकारने वाले अनेकों हाथ हैं उसे थामने के लिए। पर बिडम्बना --- एक दिन जर्जर हो ढह गई। कृतज्ञ होने की बजाय ,उपेक्षित कर सभी ने उसे अपने जीवन से परे कर दिया उबरे कचरे के समान।
सामने बैठी निरंतर टकटकी लगाए सूनी आंखें मानौ पूछ रही हो मुझसे गलती कहां हुई -कैसे हुई ?किस गुनाह की सजा मिली? क्या वह मेरे अपने ही थे?