नई फसल

नई फसल

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‘खेत तो पहले से ही गिरवी पड़ा है। उसे तो छुड़ा न पाये और अब मकान भी गिरवी रखने जा रहे हो। मति मारी गई है तुम्हारी ?’ पति के मुँह से मकान गिरवी रखने की बात सुनकर वह बिफर पड़ी।

‘समय के साथ सब ठीक हो जाएगा। जरा धीरज रखो।’ उसने धीमे से उसे शान्त रहने को कहा।

‘अब तक धीरज ही रखे हुए थी। अब देखा नहीं जाता। लड़की के पीछे इतनी उधारी कर उसे चुकता कैसे करोगे ? कल को वह तो ब्याहकर किसी दूसरे घर चली जाएगी और उस पर तुम्हारें से ज्यादा किसी और का हक हो जाएगा। चाहकर भी वो हमारी मदद नहीं कर पाएगी।’ उसके हाथ से बर्तन छूटकर जोर से शोर करने लगे।

‘समय बदल गया है पर तुम अब भी अपनी ढपली लेकर अपना ही राग अलाप रही हो। लड़के या लड़की होने का भेद अब कोई मायने नहीं रखता।’ वह अब भी संयत था ।

‘ये तुम्हारी सोच है। मैं तो इतना ही जानू हूँ कि तुम्हारी बोई हुई फसल कल को कोई और काटकर ले जाएगा।’ उसका मन अब भी रोष से उबल रहा था।

‘बोया हुआ बीज उगता तभी है जब उसकी ठीक से मावजत की जाती है। मेरी बेटी ने सपने बोये हैं, मैं तो बस उसे खाद पानी ही दे रहा हूँ।’ कहते हुए उसकी आँखों में चमक छा गई।

‘अपनी जमीन होती तो मुँह न खोलती। उस पर लगाये हुए पैसे के वापस आने की उम्मीद तो होती। आज अफसोस इसी बात का है कि लड़का न जन सकी।’ कुछ न कर पाने की विवशता से उसकी आँखें गीली हो गई।

‘सपने बोयेंगे तभी तो कल वास्तविकता की चाही हुई फसल तैयार होगी। जब हमारी बेटी डॉक्टर बन गाँव में कदम रखेगी तब उसकी पहचान ही हमारी पहचान बन जाएगी। बेटे के होने से पहचान बनती है न, तो वो कमी तो तुम्हारी बेटी पूरी कर ही देगी। समझी, मेरी डॉक्टर बिटिया की अम्मा !’ कहते हुए उसने पत्नी की आँखों में उभर आए आँसुओं को पोंछ डाला।


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