निःस्वार्थ प्रेम और समर्पण
निःस्वार्थ प्रेम और समर्पण
आज फिर बारिश की फुहार आ गयी और संग अपने ले आयी ढेर सारी यादों का जखीरा ले आयी। ऐसी ही एक भीगी रात ने दोनों वर्ष पूर्व प्रदीप को निशा से हमेशा के लिए छीनकर मृत्यु की भेंट चढ़ा दिया था और निशा के जीवन को वीरान कर दिया था। कुछ रह गया था तो बस संघर्ष, सूनापन और दर्द भरे अश्क़ जो अब तक निशा के जीवन का अभिन्न अंग बन गए थे। वो हर सवेरे इसी कामना से जागती कि काश कोई चमत्कार हो जाएगा और प्रदीप उसे साक्षात दर्शन दे दे लेकिन अन्दर ही अंदर तो वह भी जानती थी कि ऐसा होना असंभव है क्यों कि सृष्टि का यही शाश्वत नियम है कि गया हुआ इंसान कभी वापिस लौटकर नहीं आता। इस तथ्य का स्मरण होते ही उसका मुखपटल पुनः उदासीनता और निराशा से भर जाता। उसके मन में कोई भी इच्छा शेष ना बची थी और वह एक कंकाल या ज़िंदा लाश की भाती जीवन जिए जा रही थी।
कई लोग उसे दूसरे विवाह की सलाह देते पर प्रदीप की यादों का हजूम इस कदर उसके मन मस्तिष्क में घर किये हुए था कि दूसरे किसी आदमी को अपनी ज़िन्दगी में शामिल करने का ख्याल भी उसे ना आता था। वह इस बात से आश्वसत थी कि प्रदीप के जैसे और कोई भी उसे ज़िन्दगी में उतना प्यार व सम्मान साथ में नहीं दे सकता। कभी कभी सोचती कि उसकी हँसती खेलती ज़िन्दगी को ना जाने किसकी नज़र लग गयी जो एक मिनट में उसकी पूरी दुनिया ताश के पत्तों की तरह ढह गयी पर नीति और भाग्य का लिखा कौन बदल सकता है। आज फिर बरखा क्या लौट के आयी, सारी वो यादें सभी वो बातें, सभी वो पल जो प्रदीप और निशा की ज़िन्दगी का अनूठा हिस्सा थे, एक चलचित्र के समान निशा के समक्ष नज़र आते हुए अश्रुओं का मिलन अँखियों से करा रहे थे।
अचानक उसके सुनसान नगरी में कुछ दस्तक सी हुई, शायद दरवाजे पे कोई था। निशा दरवाजा खोलने उठी तो बाहर से एक आवाज़ तैरते हुए निशा के कानों में आयी। "निशा, निशा दरवाजा खोल बेटा।" दरवाजा खोला तो निशा ने माता पिता को अपने समक्ष खड़ा पाया। निशा को लगा कि जैसे भगवान ने स्वयं आकर उसके ज़ख्मों पर मरहम लगा दिया हो और वह माँ के गले लग कर फूट फूट के रोने लगी। माँ निशा के दिल के हाल से भली भांति वाकिफ थीं। उन्होंने लाडली को सीने से लगा लिया और उसे सांत्वना देने लगीं। अंदर आयीं तो देखा कि सारा घर उथल पुथल हुआ पड़ा था, कहीं प्रदीप और निशा की हँसती मुस्कुराती तस्वीरें पड़ी थीं तो कहीं कपड़े बिखरे पड़े थे। माँ ने निशा को सोफे पे बिठाया और स्वयं घर को व्यवस्थित करने में लग गयीं। पापा निशा के बगल में बैठ कर उसके सर पर हाथ फेरते हुए उसका गम बांटने की कोशिश करते हुए उसे संभालने लगे और उसे यह खबर दी कि अब वे दोनों निशा के साथ ही रहेंगे।
दरअसल निशा के पिताजी किशोर जी एक सरकारी संस्थान में कार्यरत थे और माँ विमला जी गृहिणी थीं और वे दोनों दिल्ली में रहते थे । एक एडवरटाइजिंग एजेंसी में कार्यरत निशा और प्रदीप काम के चलते मुंबई में ही बस गए थे। प्रदीप के माता पिता उसके विवाह के पूर्व ही गुज़र चुके थे और भाई बहन थे नहीं। तो ज़ाहिर सी बात है कि ऐसी परिस्थितियों में निशा के पास अपने माता पिता का एकमात्र सहारा था।
प्रदीप के गुज़र जाने के बाद से ही किशोर जी इस कोशिश में लगे हुए थे कि उनका तबादला मुंबई वाले दफ़्तर में हो जाए पर एक सरकारी संस्थान में तबादला कराना बहुत ही मुश्किल कार्य है जिसे संभव कराने में लोगों की चप्पलें घिस जाती हैं, वर्षों तक की कड़ी तपस्या और मेहनत करनी पड़ती है, तब कहीं जाकर ये संभव हो पाता है। निशा की परिस्थितियों के बारे में किशोर जी के दफ़्तर में भी सबको पता था और सब उसकी मदद करना चाहते थे इसलिए किशोर जी को मात्र दो वर्ष की अवधि में मुंबई तबादला मिल गया ।खबर सुनते ही किशोर जी व उनकी अर्धांगिनी मुंबई की टिकट करा के सदा के लिए निशा के साथ रहने के मकसद से दिल्ली से रवाना हो गए। निशा को इस बात के बारे में इसलिए नहीं बताया क्यों कि किशोर जी जानते थे कि वो उन्हें यही कहेगी कि " अपना घर छोड़कर आने की ज़रूरत क्या थी पापा। मैं धीरे धीरे करके खुद को संभाल लूंगी।" यकीनन माता पिता के कंधों से बड़ा कोई सहारा नहीं होता। यही सोच किशोर जी और विमला जी आ गए रहने निशा के संग।
अब सुबह माता पिता के प्यार और दुलार के साथ होती और रात उनकी गोद में सर रखे रखे सो जाने से। इस परवाह के चलते निशा धीरे धीरे सँभलने लगी और ज़िन्दगी से आशाएं बाँधने लगी। वह समझने लगी थी कि यद्यपि प्रदीप का जाना दिल को झकझोर कर रखा देने वाला एक हादसा था पर जीवन के अंत का सूचक बिलकुल भी नहीं था। उसने लोगों से मिलना जुलना एक बार फिर शुरू कर दिया। अपने गम के सागर से बाहर निकल अब वह दफ़्तर की पार्टियों का हिस्सा बनती और क्यों कि उसे बचपन से ही नाच - गाने का बेहद शौक था, कभी कभी रंगारंग कार्यक्रम में हिस्सा भी लेती। अंततः उसकी ज़िन्दगी को पटरी पर आते देखो किशोर जी व उनकी धर्मपत्नी अपने मुंबई में बस जाने के फैसले से बेहद संतुष्ट थे।
ज़िन्दगी यूँ ही धीरे धीरे आगे चलती चली जा रही थी और देखते ही देखते किशोर जी व विमला जी को मुंबई में रहते हुए एक वर्ष हो गया। एक दिन निशा जब दफ़्तर गयी तो उसे पीछे से किसी आदमी ने " निशा निशा" कह कर पुकारा। निशा ने प्रत्याशा से मुड़कर देखा तो एक जाना पहचाना चेहरे वाले आदमी से सामना हुआ। क्योंकि उन्हें बिछड़े हुए बहुत वक़्त हो चुका था, निशा को राकेश को पहचानने में थोड़ी असहजता तो हुई पर जब पहचाना तो खोई हुई मुस्कान से चेहरा सुस्सज्जित हो गया। राकेश निशा के बचपन का दोस्त था जो स्कूल ख़त्म होने तक उसके साथ था। स्कूल के पश्चात निशा ने आगे की पढ़ाई दिल्ली में ही की और राकेश अपने पिताजी का तबादला होने के कारण मुंबई आ गया। तब से दोनों का संपर्क टूट गया। आज अचानक इतने लम्बे अंतराल के बाद यूँ सामना हुआ तो दोनों बेहद प्रसन्न थे और फूले ना समा रहे थे। निराशा के सागर में गोते लगाता निशा का जीवन आशा की उड़ान भरने लगा था।
अचानक एक दिन राकेश ने निशा के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रख दिया। निशा अपने अज़ीज़ दोस्त को खोना नहीं चाहती थीं इसलिए बहुत ही शांत भाव से उसने राकेश को समझाया कि उसके लिए जीवन साथी का मतलब बस प्रदीप था और विवाह का अभिप्राय उसके संग जीवन यापन करना। उसने प्रदीप के अलावा किसी और के बारे में कभी कल्पना तक ना की थी। निशा की इस बात से राकेश को थोड़ा धक्का तो लगा परन्तु उसके प्रेम की गहराई देख कर उसका हृदय निशा के लिए और अधिक सम्मान से भर गया। निशा का प्रदीप के लिए समर्पण भाव यकीनन अद्भुत व प्रशंसनीय था और राकेश ने मन ही मन कामना की कि काश उसे भी ऐसा निःस्वार्थ प्रेम करने वाली जीवन संगिनी मिल जाए। इस वाक्य के बाद पुनः निशा और राकेश ने अपने दोस्ती के रिश्ते को कायम रखते हुए जीवन पुनः पहले की तरह ही जीना आरम्भ कर दिया। शायद इसी को निःस्वार्थ प्रेम और समर्पण भाव की मिसाल कहते हैं।

