कार्य- संतुलन
कार्य- संतुलन
समय वो चक्र है जिसके मोहपाश में जो फंसा वह कैद हुए बगैर ना रह सका. कुछ ऐसा ही हाल शंकर का था. उसे समय ने अपनी बेड़ियों में कुछ इस कदर जकड़ा था कि उसकी कैद से बाहर निकलने का स्वप्न-मात्र तक उसके ज़ेहन में ना आता था.कुछ आता था तो बस यह विचार कि कैसे समय की बाध्यता के अनुसार प्रत्येक कार्य करते हुए अपना जीवन साकार कर सके. ये बात अलग है कि इस सारी प्रक्रिया में वह स्वयं एक मशीन बन चुका था जिसे इस बात का इल्म ही ना रहा था कि वह भी हाड़ मांस का एक जीता जागता इंसान है जिसके सीने में भी दिल है जो धड़कता है और महसूस करता है. होता भी कैसे? काम से फुर्सत मिलती तो कुछ सोचता ना. समय का अनुसरण करते करते वो कब स्वयं समय का गुलाम हो गया, उसे पता ही ना चला. बस भागदौड़ और व्यस्त दिनचर्या ने उसके जीवन से जीवन ही छीन लिया था.
राहुल एक निजी संस्थान में इंजीनियर के पद पर कार्यरत था और मार्केटिंग का काम करता था. टेंडर की जांच परख कर उसका जवाब देना और ऑर्डर लेकर आना बस यही सब रमेश का काम था.हालाँकि यह कार्य सुनने में बहुत सरल लगता है पर वास्तव में इसकी पेचीदी से वही व्यक्ति भिज्ञ होता है जिसने इसे किया हो- टेंडर और तदपश्चात ऑर्डर पाने हेतु नाना प्रकार के व्यक्तियों के साथ उठना-बैठना होता है, अक्सर इधर उधर टूर पर जाना पड़ता है और अपना जान पहचान का दायरा वृस्तत रखना पड़ता है. लोगों की मानसिकता समझना इस कार्य की आधारशिला है जिसके लिए कुछ विशेष हुनरों की परम आवश्यकता होती है जो हैं उदारता, संयम,धैर्य शालीनता व सम्मान. अगर आप किसी की सोच का सम्मान कर उसकी धारणा को नहीं समझ सकते, तो आप कभी भी मार्केटिंग के क्षेत्र में दक्ष नहीं बन सकते. रमेश इस कार्य में अत्यंत पारंगत था और लोगों को अपना बनाने की कला बखूबी जानता था परन्तु उसकी इस कर्तव्यपरायणता के कारण उसका निजी जीवन पूरी तरह अस्त व्यस्त हो गया था. वह अक्सर देर रात को ही घर लौटता जब परिवार के सभी सदस्य सो चुके होते. इस कारण से ना उसे उनसे संवाद करने का वक़्त मिलता ना ही उनसे रूबरू हो उनकी समस्याएं जानने का अवसर.इस कारण उसकी पत्नी सीमा अक्सर उससे नाखुश रहती. बात की हद तो तब हो गयी जब एक दिन तंग आकर सीमा ने तलाख की अर्ज़ी डाल दी और अपने बच्चों के लेकर मायके जाकर रहने लगी. राहुल के तो पैरों के नीचे से ज़मीन ही खिसक गयी और वह दयनीय अवस्था में अपने ससुराल जा कर सीमा के समक्ष गिड़गिड़ाने लगा व उससे घर वापिस लौट जाने की प्रार्थना करने लगा पर वो कहावत है ना "अब पछतावे होत क्या जब चिड़िया चुग गयीं खेत." कुछ ऐसा ही वाक्या राहुल के साथ हुआ और सीमा ने उसकी सभी मिन्नतें ठुकरा दीं और उसे वापिस लौट जाने को बोल दिया.
राहुल पिटा हुआ सा मुँह लेकर घर वापिस लौट जाने के लिए निकल पड़ा. उसे रास्ता बेहद लम्बा लगने लगा और मन पश्चाताप व ग्लानी से भर गया.वह सारे रास्ते यही सोचता रहा कि घर पहुंचेगा तो फिर अकेलापन उसे खायेगा, फिर से उसके पास बात करने के लिए या दिल हल्का करने के लिए कोई ना होगा, फिर यादों का एक सिलसिला चलेगा जो सिवा गम और आँसूओँ के कुछ ना दे के जाएगा, फिर से वो खुद को तन्हा, बेजान और अकेला महसूस करेगा. और फिर शुरुआत हुई एक कभी ना थमने वाले "काश" के सिलसिले की - काश मैं इतना काम में डूबा ना होता तो आज मेरा घर परिवार बना रहता, काश मैं वक़्त रहते अपनी अर्धांगिनी व बच्चों की अहमियत समझ लेता, काश ये, काश वो.. इन्हीँ सब कश्मकश और विडंबनाओं में जकड़े राहुल ने बोझिल हुए कदम अपने घर के द्वार की ओर बढ़ाये. शांत अधर और दुखी ह्रदय के साथ वो जैसे ही दरवाज़े पर पहुंचा तो सीमा और बच्चों को समक्ष खड़ा देखकर हैरान ही रह गया. उसका मुँह खुला का खुला व आँखें फटी की फटी रह गयीं. कुछ चल रहा था तो बस अश्रुधारा का झरना जो आँखों से अनवरत बहता चला जा रहा था. उसे अपनी गलती का एहसास हो गया था और उसे कार्य- संतुलन की महत्वता का बोध हो गया था.
