लौट आया आत्मविश्वास
लौट आया आत्मविश्वास
भुवन रेलवे में कलेक्टर के रूप में कार्यरत रमेश बंसल जी का इकलौता लड़का था। सबका लाडला होने के कारण भुवन की हर मन मानी पूरी होती। ना सुनना तो उसने सीखा ही नहीं था। हमेशा सारी सुख सुविधाएं उपलब्ध होने के कारण उसे जीवन की कठिनाइयों का तनिक भी अनुमान नहीं था। खेल-कूद का अच्छे स्वास्थ्य बनाये रखने में कितना योगदान होता है, यह तथ्य भली भांति जानते हुए उसका फुटबॉल के प्रति विशेष रुझान था। जहाँ उसके सभी संगी साथी पढ़ाई व किताबों में डूबे रहते, वहाँ भुवन सब कार्य छोड़ छाड़ कर बस फुटबॉल के मैदान में जमा रहता। रमेश जी उसको कई बार समझाते कि पढ़ाई लिखाई के बिना जीवन में कुछ भी हासिल करना नामुमकिन है पर भुवन के कान पर जूँ तक ना रेंगती। पूरी गलती भुवन की भी नहीं थी। खेल के मैदान पर उतरते ही उसे ऐसा लगता था मानो वह तब तक पिंजरे में कैद एक पंछी था जिसे अब जा कर आज़ादी मिली हो। पढ़ाई के प्रति अपने इस लापरवाह रवैये के चलते वो बड़ी मुश्किल से बस बी कॉम ही कर पाया था। पिताजी की रेलवे में अच्छी जान पहचान होने के बलबूते उनकी सिफारिश पर उसे रेलवे में जूनियर कलेक्टर की नौकरी मिल तो गयी थी पर वहां भी उसका ढुलमुल रवैया बरकरार था। कभी दफ़्तर जाता तो कभी अवकाश ले कर फुटबॉल के मैदान पर तैनात रहता। उसके पिताजी को उसके भविष्य की चिंता हर वक़्त सताती रहती। कभी सख्त तो कभी नर्म अंदाज़ में वह भुवन को काम में मन लगाने की सीख देते परन्तु भुवन किसी की ना सुनता। भुवन की सरकारी नौकरी होने के कारण उसी के शहर के निवासी सेठ जेठामल ने अपनी बिटिया अनीता का विवाह भुवन के साथ कर दिया।
भुवन ने नयी नवेली दुल्हन अनीता को प्रसन्नचित्त करने हेतु एक दो वर्ष तो बहुत मन लगा के अपनी नौकरी की जिससे उसकी घर गृहस्थी बढ़िया ढंग से चलती रही। इस दौरान दोनों की झोली में ईश्वरीय वरदान स्वरूप एक खूबसूरत कन्या का जन्म हुआ। रमेश जी बेटे के उचित रास्ते पर चलने व उसके परिवार की खुशहाल स्थिति देख कर फूले ना समाते थे। सारा दिन अपनी पोती के लाड़ लड़ाते ना थकते थे। बहु पर भी सब जान लुटाते थे। रमेश जी को लगता था कि आखिरकार बेटे के लिए उनके संजोये हुए सपने सच होने लगे थे और इसी खुशी में वो सारा दिन प्रसन्नचित्त रहते थे परन्तु समय ने पुनः करवट ली।
हुआ यूं कि एक दिन समाचार पत्र में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित हुई एक फुटबॉल प्रतियोगिता का परिणाम निकला जिस में अखिल जो कि कभी भुवन के सँग खेलता था,श्रेष्ठ खिलाड़ी के रूप में चुना गया था। यह खबर पढ़ के भुवन को दोस्त की तरक्की पर पहले तो ख़ुशी हुई पर फिर यह सोच कर कि वो भी श्रेष्ठ खिलाड़ी चुना जा सकता था, उसका हृदय आहत हो गया। अपनी इस दुर्गति का ज़िम्मेदार अपने पिताजी व अनीता से हुए विवाह को ठहराते हुए वह घर से कटा कटा सा रहने लगा। काम में भी अब उसका मन नहीं लगता और वह हर वक़्त दुखी रहने लगा। उसका दोस्तों से भी मिलने का मन नहीं करता और पिताजी कुछ बात करने या समझाने की कोशिश भी करते तो वह कभी अटपटा सा जवाब देता तो कभी चुप्पी साधे अपने ख्यालों में गुम बैठा रहता। सभी उसके व्यवहार में आये आकस्मिक बदलाव से व्यथित थे और सोचते थे कि उनके हँसते-खेलते परिवार को ना जाने किसकी नज़र लग गयी है पर हर दिन एक जैसा नहीं रहता।
एक दिन रेलवे के अधिकारियों ने सभी कर्मचारियों को एकजुट करने और उन्हें एक सूत्र में बांधे रखने हेतु खेल की प्रतिस्पर्धा का संचालन किया जिस में विभिन्न खेलों की प्रतियोगिताओं का आयोजित करना तय हुआ। इन में से एक फुटबॉल की प्रतियोगिता भी थी और क्यों कि रेलवे के सभी अधिकारी भुवन की प्रतिभा से भली भांति परिचित थे, उसका नाम हॉकी टीम के शीर्ष खिलाड़ियों में चयनित किया गया। भुवन ने अपनी झोली में आये इस मौके का खुली बांहों से स्वागत करते हुए मैच के लिए जी जान से तैयारी करनी शुरू कर दी। दफ़्तर जाने से पहले अभ्यास करने हेतु मैदान पर सुबह काफी जल्दी पहुँच कर पसीना बहाता और पूरे मनोयोग से जीत दर्ज करने की तैयारी में लग गया। फलस्वरूप, जब परिणाम आया तो प्रतिस्पर्धा के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी का ताज भुवन के सर पर सुसज्जित किया गया।
इस एक घटना ने भुवन का खोया हौसला वापस लौटा दिया और उसका आत्मबल पुनः जीवित हो उठा। रमेश जी व अनीता भुवन की सफलता एवं प्रसिद्धि देख के फूले ना समा उठे। हर किसी के मुँह से भुवन की तारीफ़ सुन कर रमेश जी की खुशी का ठिकाना ना था। भुवन अब पुनः मन लगा कर अपने दफ़्तर के काम नियमित रूप से करने लगा और परिवार पर भी पूरा ध्यान देने लगा। उसका खोया हुआ हौसला व आत्मविश्वास लौटता देख रमेश जी को विश्वास हो गया था कि दुख के बादल भले ही कितने भी गहरे क्यों ना हों, कभी ना कभी तो छँट ही जाते हैं। अब कोई गिला शिकवा या मलाल ना बाकी था। रमेश जी अपने परिवार के साथ ख़ुशी ख़ुशी जीवन-व्यापन करने लगे।
