कार्य -संतुलन है लाभकारी
कार्य -संतुलन है लाभकारी
रघुपति की कृपा से आज फिर राघव की रेलगाड़ी छूटते छूटते बची.
राघव पेशे से एक वकील था इसलिए ज़ाहिर आये दिन उसके कोर्ट कचहरी के चक्कर लगते ही रहते थे.हर दिन भिन्न भिन्न प्रकार के मुक़दमे लड़ते लड़ते उसका ह्रदय निर्मम बन गया और भावनाएं ह्रदय के किसी कोने में दफ़न हो गयी थीं.रोज़ लोगों को न्याय दिलाते दिलाते राघव खुद से न्याय करना ही छोड़ चुका था. रोज़ तड़के में घर से काम पर निकल जाता और देर रात को घर पहुँचता. ना पत्नी की कोई सुध ना बच्चों का अता - पता रहता और ना घर की खबर. उसके लिए काम ही ज़िन्दगी बन गया था और ज़िन्दगी काम बन गयी थी. राघव के माता पिता उसे बहुत समझाते कि इस तरह घर - परिवार को नज़रअंदाज़ करना ठीक प्रचलन नहीं है और वक़्त रहते ही उसे संभल जाना चाहिए परन्तु कार्यालय के रोज़ाना के काम में वो इस कदर मशगूल हो जाता कि उसे समय का बोध ही नहीं रहता. ऐसी बात नहीं कि उसे परिवार की परवाह नहीं थी पर उसे कार्य - संतुलन की महत्वता की समझ ही नहीं थी और कामकाज को ही अपना पहला और आखिरी प्यार बना लिया था.
किसी भी चीज़ की अति तो हानिकारक ही होती है और अंततः व्यक्ति -विशेष को ले डूबती ही है. अपने काम के प्रति गहन प्रेम के चलते राघव के साथ भी कुछ यूँ ही हुआ और उसके सभी परिचित जनों के संग सम्बन्ध कट गए. ना किसी के घर आना - जाना और ना ही कोई संवाद. परिवार वाले भी उखड़े उखड़े रहते क्योंकि वह बस नाम भर के लिए परिवार का सदस्य था. उसकी पत्नी भावना अक्सर उससे रूठी रहती क्योंकि घर के सारे काम उसे अकेले ही बिबा किसी की मदद के संभालने पड़ते थे. बच्चों को पढ़ाने से ले कर सांस ससुर का ख्याल रखने की ज़िम्मेदारी अकेले भावना के कंधों पर होती थी. ऐसे में कभी खुद भावना को किसी के साथ की आवश्यकता होती तो वह अपने आप को बहुत अकेला और लाचार महसूस करती. इन्हीँ सब कारणों से भावना हमेशा उखड़ी उखड़ी रहती. बच्चे कभी घूमने को जाना चाहते तो पिता की गैर-मौजूदगी के कारण मन मार के रह जाते. राघव के लापरवाह आचरण के कारण उसका गृहस्थ जीवन खोखला हो चुका था और दूर दूर तक आशा की कोई लौ नज़र ना आती थी.
काम की धुन में मतवाला राघव एक सवेरे देर होने के कारण बड़ी हड़बड़ी में स्कूटर चलाकर दफ्तर की ओर जा रहा था कि अचानक उल्टी दिशा में आ रही क्रेन ने उसके स्कूटर को टक्कर मार दी. राघव उछलकर स्कूटर से 500-600 मीटर दूर जा गिरा और वहीँ बेहोश हालत में 2-3 घंटे पड़ा रहा. इस अंतराल में बहुत से लोग उसके सामने से गुज़रे पर राघव के बेपरवाह आचरण के कारण उसे उसी अवस्था में पड़ा छोड़कर आगे बढ़ गए. कुछ देर बाद एक अनजान व्यक्ति ने उसे गंभीर अवस्था में अस्पताल पहुंचाया और उसे उपचार के लिए भर्ती किया. साथ ही उसके फ़ोन से उसकी पत्नी को जानकारी दे कर तत्काल आने का आह्वान किया. राघव की पत्नी के तो पैरों के नीचे से ज़मीन ही खिसक गयी और अपने सांस ससुर की देख रेख की ज़िम्मेदारी अपनी बड़ी बेटी नीता को सौंपकर वह दौड़ी दौड़ी अस्पताल पहुंची. अस्पताल आयी तो देखा राघव के सर पर पट्टिया
ं बंधी थीं और डॉक्टर उसका उपचार करने में व्यस्त थे. राघव की ऐसी दयनीय स्थिति देख नीता की आँखें भर आयीँ. डॉक्टर से भली भांति स्थिति समझने के बाद नीता ने जाने कि राघव को सर पर सोलह टाँके लगे हैं और उसे बहुत परवाह और अपनों के साथ की आवश्यकता है. यह सुनते ही नीता दिन रात अपने पति की सेवा में लीन हो गयी. फलों से लेकर खान- पान और दवाइयों तक का भरपूर ख्याल रखती और पल - पल यह सुनिश्चित करती रहती कि राघव को कोई तकलीफ ना हो. उसका मन लगाए रखने हेतु कभी समाचार पत्र पढ़ कर सुनाती तो कभी कहानियाँ. गाने सुनने और सुनाने हेतु उसने एक छोटा सा टेप रिकॉर्डर खरीद लिया जिसके हेतु राघव का भरपूर मनोरंजन होता और वह सभी दुख दर्द भूल जाता.
देखते ही देखते राघव पुनः हृष्ट पुष्ट हो गया. उसके स्वास्थ्य में तेज़ी से हुए सुधार को देख कर उसके माता पिता फूले ना समाते थे और नीता का शुक्रिया करते ना थकते. राघव भी नीता की इस निःस्वार्थ सेवा के लिए उसका ह्रदय से आभार व्यक्त करता. साथ ही उसे परिवार की महत्वता का भी बोध हो चुका था. इस एक हादसे से ने उसका पूरा जीवन और उसकी सोच को बदल कर रखा दिया. वह समझ गया था कि काम जीवन का मात्र एक हिस्सा होता है जो जीवन भली भांति जीने में सहायता करता है पर काम या व्यवसाय- मात्र ही जीवन नहीं है. यह नीता के परिश्रम का ही नतीजा था कि कुछ ही दिनों में राघव पूरी तरह स्वस्थ होकर पुनः काम पर जाने लगा. पर इस एक हादसे ने उसके जीवन जीने के तौर तरीका को पूर्ण रूप से बदल कर रख दिया.
अब राघव काम और परिवार दोनों में सामंजस्य बनाये रखने का प्रयास करता और कोशिश करता कि एक की वजह से दूसरे पर आंच ना आये. मसलन वक़्त से घर आ जाना, नीता और माता पिता के लिए कभी मिठाई तो कभी फल ले आना, बच्चों को घुमाने ले जाना वगैरह वगैरह.देखते ही देखते उसका पूरा परिवार प्रसन्न और खुशहाल रहने लगा. दफ़्तर में भी मात्र काम करने के बजाय उसने लोगों के बीच उठना बैठना शुरू कर दिया. आरम्भ में तो लोग उसके ऐसे बदलाव को देख कर आश्चर्य चकित हुए परन्तु धीरे धीरे उन्होंने राघव को भी अपना लिया. दफ़्तर में रिश्ते सुधरे तो काफी कामों में सहकर्मियों से सहायता मिल जाती जिसके कारण 3-4 घंटे का काम घटकर मात्र आधे घंटे का ही रह जाता. समय से काम पूरा हो जाता और राघव घर भी वक़्त पर पहुँच जाता और परिवार पर पूरा ध्यान दे पाता.उसका कुछ सचेत प्रयासों के कारण उसकी ज़िन्दगी पूरी तरह बदल गयी थी. अब उसे यह ज्ञात हो गया था कि असली धन संचय मात्र धन अर्जित करना नहीं अपितु घर और व्यवसाय में सामंजस्य बनाये रखने में है. समाज से पृथक होकर व्यक्ति का जीवन एक पेड़ से टूटी डाली के समान है जिसका ना ही कोई अस्तित्व रह जाता ना वजूद. अंत भला तो सब भला. देर से ही सही पर अब राघव को रिश्ते निभाने और बनाये रखने की समझ आ गयी थी.उसका नीरस जीवन पुनः जीवित होकर लहलहाने लगा था. अब उसे ना ज़िन्दगी से कोई गिला शिकवा था ना लोगों से कोई शिकायत. आखिरकार उसने भी भली भांति जीना सीख लिया था.