अनजान रसिक

Drama Inspirational

4.5  

अनजान रसिक

Drama Inspirational

मुलाक़ात जीवन की ख़ूबसूरती से

मुलाक़ात जीवन की ख़ूबसूरती से

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रोज़ की तरह आज फिर रोहन दफ़्तर से थका हारा और व्यथित होकर लौटा और घर में घुसते ही सीधे अपने कमरे में तो निशा का खिला चेहरा पुनः मुरझा गया। यूं तो दोनों की शादी को अभी दो बरस ही हुए थे पर उनके रिश्ते की नीरसता देख कर ऐसा लगता था कि ना जाने कितना वक़्त बीत गया हो। दोनों सदा एक दूसरे से उखड़े उखड़े और बिना बात के रूठे से रहते थे। कारण पूछो तो दोनों अनजान से बन जाते जैसे की कुछ हुआ ही ना हो। ना कभी कोई प्यार की बात करते ना ही कोई नाराज़गी ज़ाहिर करते। दोनों को एक दूसरे के होने या न होने से कोई फर्क ही नहीं पड़ता था। घर बस एक चारदीवारी से घिरा एक जेल सा लगता जिसमें कभी ना लुप्त होने वाला अजीब सा सन्नाटा पसरा रहता।


दरअसल रोहन और निशा की शादी माँ बाप द्वारा सर्वसम्मति से व्यवस्थित करायी गई थी तो पहले से प्यार होने की तो कोई गुंजाइश ही नहीं थी। दोनों ने विवाह के पश्चात ही एक दूसरे को जानने पहचानने की प्रक्रिया का आगज़ किया तो काफी दिन तक तो हिचकिचाहट के चलते दोनों खुल कर कोई बात ही ना कर सके। जब निशा को एक दूसरे से दूरियाँ कुछ हद तक कम होती दिखने लगीँ और एक दूसरे के रिश्ते को लेकर आशा की एक ज्योत सी उसके मन में जगी, तभी रोहन ने अपने मन की गहराईयों में दफ़न एक राज़ निशा के सामने प्रस्तुत कर दिया कि वह इस विवाह से कोई उम्मीद ना जगाए क्योंकि रोहन पहले से किसी और को पसंद करता था और यह शादी उसकी इच्छा के विरुद्ध जा कर हुई है। रोहन के इस एक कथन ने निशा के मन में जागे अरमानों पर पूरी तरह पानी फेर दिया व उसकी खुशहाल ज़िन्दगी पर सदा के लिए गम का साया बिछा दिया और दोनों की बातें शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो गयीं।


कभी-कभार परिवार वाले और मेहमान उनके घर पधारते तो दोनों हँसी खुशी रहने का अभिनय कर लेते पर उन लोगों के जाते ही पुनः अपने अपने कमरों में जा कर दरवाजा बंद कर लेते। बस इसी तरह ज़िन्दगी कटती जा रही थी। उनके रिश्ते की नीरसता से अनभिज्ञ आस पड़ोस वाले जब भी निशा से परिवार बढ़ाने के लिए कहते वह " अभी तो इस में वक़्त है " कह कर उनके सभी प्रश्नों पर हँसते हँसते विराम लगा देती। असल में उसके दिल की गहराईयों में कितने राज़ दफ़न थे यह तो बस निशा ही जानती थी। सच जानकर उन्हें कष्ट होगा, यह सोचकर ना अपने घरवालों से कुछ कह सकती थी और अभी नयी दुल्हन होने के कारण अपने ससुराल वालों पर रोहन को एक अनचाहे रिश्ते में धकेलने की नाराजगी भी ज़ाहिर ना कर सकती थी।


निशा एक ट्रेवल एजेंसी में कार्यरत थी जहाँ अक्सर इधर उधर जाने के लिए आकर्षक प्रस्ताव आते रहते थे। ऐसे ही अनमने मन से जब एक दिन निशा अपने कार्यालय में पहुंची तो उसे ज्ञात हुआ कि उसकी एजेंसी ने कुल्लू मनाली का 7 दिन लम्बा एक किफायती इकमुश्त यात्रा प्रस्ताव जारी किया है जिस में रहने , खाने पीने व घूमने सबकी व्यवस्था का ध्यान रखा गया है। इस योजना की जानकारी पा कर पहले तो निशा खुशी से लालायित हो उठी पर फिर अपने और रोहन के नीरस रिश्ते के बारे में स्मरण होते ही पुनः उदासीनता से भर गयी और कहीं भी जाने का ख्याल दरकिनार करते हुए पुनः अपने दफ़्तर के कामकाज में लग गयी। पर भाग्य में जो लिखा हो उसे कोई नहीं छीन सकता। तो हुआ यूं कि निशा के ससुरजी जेठालाल जी के एक घानिष्ठ मित्र परिमल जी निशा की ही ट्रेवल एजेंसी में सह निदेशक के पद पर कार्यरत थे। निशा और रोहन के रिश्ते की सच्चाई से अनभिज्ञ 

परिमल जी ने जेठालाल जी के साथ सलाह मशवरा करके निशा और रोहन के लिए बुकिंग करा दी। साथ ही यह तय किया गया कि इस बुकिंग की जानकारी रोहन और निशा को दो - तीन दिन पहले ही दी जाएगी।


दिन बीतते गए और आख़िरकार वह दिन आ गया जब जेठालाल जी ने रोहन और निशा को बुकिंग का समाचार सुनाया और जाने के हिसाब से व्यवस्था करने का निर्देश दिया। वह दोनों असमंजस की स्थिति में आ गए कि जाएं या ना जाएं। साथ ही दुविधा यह भी थी कि अगर मना करेंगे तो क्या कह के? 2 वर्ष से उन दोनों के ह्रदय में दफ़न सच सबको इस तरह पता चलेगा तो तरह तरह के आरोप - प्रत्यारोप होंगे, आस - पड़ोसियों में भी बातें होंगी और समग्र परिवार की बदनामी होगी पर अगर साथ जाएंगे तो कैसे? जिन लोगों में कभी कोई संवाद ही ना हुआ हो वो इतने दिन साथ कैसे रहेंगे वो भी तब जब जगह और सभी लोग अनजान होंगे। खैर, दूसरे विकल्प को पहले वाले से बेहतर जान अनमने मन से ही सही, दोनों जाने की तैयारी में लग गए। आखिर में वह दिन भी आ गया जब दोनों को निकलना था और वह टैक्सी से कुल्लू के लिए रवाना हो गए।


शुरुआत में तो दोनों एक दूसरे से बोलने में झिझकते रहते और होटल के कमरे से बाहर जाने के बहाने ढूंढते रहते पर फिर मरते क्या ना करते, दोनों ने एक दूसरे की संगती को ना चाहते हुए भी स्वीकार लिया क्यों कि और कोई व्यक्ति तो था नहीं। बात करो तो एक दूसरे से ना करो तो किसी से भी नहीं। धीरे धीरे दोनों ने हालातों के साथ समझौता करते हुए एक दूसरे की संगत को पहले बर्दाश्त करना और फिर पसंद करना आरम्भ कर दिया। उनका वैवाहिक जीवन वास्तव में अब शुरू हुआ था और दोनों को एक दूसरे की जो छोटी छोटी बातें चुभती थीं अब वही पसंद आने लगीं। अब दोनों के बीच में तर्क वितर्क भी होते थे, कभी कभी बहस भी होती थी पर चुप्पी लुप्त हो गयी थी। दोनों को एक दूसरे के संग रहना अच्छा लगने लगा और उन्होंने संग में खूबसूरत वक़्त बिताया। यूं ही हँसते गाते आखिर उनकी यात्रा का अंत हो गया और वे ख़ुशी ख़ुशी वापस घर आ गए। दोनों को यह विश्वास ही नहीं हो रहा था कि जिस छुट्टी के नाम से भी वो पहले कतरा रहे थे उसके ख़त्म होने का अब उन्हें बेइंतहा दुख हो रहा था। छुट्टी भले ही बीत गयीं थीं पर दोनों ने एक दूसरे का अनमोल साथ पा लिया था। अब वे हर वक़्त प्रसन्न रहते और हृदय की गहराई से पिताजी जेठालाल जी का शुक्रिया करते ना थकते, करते भी क्यों ना, क्यों कि जाने - अनजाने में ही सही, आखिर उनकी ज़िन्दगी को एक नया स्वरूप देने वाले इंसान पिताजी ही तो थे।  



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