नहीं पता
नहीं पता
फिर मैंने तय किया,
एक हाथ से आंसुओ को समझाऊंगी सहला कर चुप करा दूंगी...दूसरे हाथ में कलम पकड़ूंगी जितना न मै दिल को समझा पा रही हूं ... न ही हालातो को... उतना ही मै खुद नहीं समझ पाती हूं...काश और खैर में बस दिन यूहीं निकलते जा रहे है.... बस दर्द है...दिल का दिमाग का या ये प्रश्नचिन्ह होने का की मैं क्यूं हूं...?
मर्द को दर्द नहीं होता... ये बात एक स्त्री ने ही समझी होगी...और आज लगता हैं सच कहा है कहने वाले ने...भी
