Gunjan Johari

Inspirational Children

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Gunjan Johari

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नामुमकिन कुछ नहीं

नामुमकिन कुछ नहीं

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यह 1999 की गर्मियां थीं। कारगिल संघर्ष की शुरुआत में, सेना के एक युवा मेजर जम्मू-कश्मीर के अखनूर सेक्टर में नियंत्रण रेखा के करीब एक चौकी की कमान संभाल रहे थे।


युद्ध क्षेत्र के लिए पिछले दो दिन असामान्य रूप से शांत रहे। “हम दुश्मन की चौकी से 80 मीटर दूर थे। उस समय 48 घंटे की खामोशी, बिना एक भी गोली चलाए, थोड़ा अचंभित करने वाला था। जब संघर्ष का दृश्य गर्म होता है और कुछ नहीं होता है, तो आपको लगता है कि कुछ बुरा होने वाला है। एक त्रासदी से पहले पूर्वाभास की भावना थी, ”मेजर देवेंद्र पाल सिंह याद करते हैं, जो उस समय सिर्फ 25 वर्ष के थे।


कभी हार न मानने वाले कारगिल युद्ध के हीरो मेजर डीपी सिंह का पूरा जीवन देश के नाम रहा है। सेना में रहते हुए उन्होंने कारगिल में अपनी अहम भूमिका निभाई। इस युद्ध में उनके शरीर के कई भागों में न सिर्फ चोटें आईं थी बल्कि वह अपना एक पैर भी खो चुके थे। बाद में जब मेजर को हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया था तो डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया था लेकिन बाद में फिर जी उठे। यह साल 1999 की 15 जुलाई का दिन था, जिसे मेजर अपना पुर्नजन्म मानते हैं। आत्मविश्वास से लबरेज मेजर ने कभी हार नहीं मानी। उनके हौंसले को देखते हुए आर्मी ने उन्हें कृतिम पैर (ब्लेड प्रोस्थेसिस) दिलवाए, जिनकी कीमत करीब साढ़े चार लाख रुपए है। मेजर के बाद वह ब्लेड रनर बन गए। अब उन्होंने एक और उपलब्धि हासिल कर अपनी पहचान स्काई डाइवर के रूप में बनाई है। इन्हें फर्स्ट इंडियन ब्लेड मैराथन रनर के नाम से भी पहचाना जाता है। हाल ही में मेजर ने नासिक में आयोजित “Spirit of Adventure” में स्काई डाइविंग की है। एक पैर के सहारे स्काई डाइविंग के जरिए मेजर ने आकाश की सैर की है और अब वह एक स्काई डाइवर भी बन गए हैं। 


डीपी सिंह को इंडियन आर्मी द्वारा स्काई डाइविंग की ट्रेनिंग दी गई थी। “Spirit of Adventure” कार्यक्रम के दौरान तमाम डिसेबल जवानों को स्काई डाइविंग की ट्रेनिंग दी गई। ब्लेड रनर डीपी सिंह ने सफलता पूर्वक आकाश में उड़ान भरी और अपने अदम्य साहस का एक बार फिर से परिचय कराया।


मेजर डीपी सिंह ने साबित कर दिया कि 'मंजिलें उनकी ही सच होती है जिनमें जान होती है, पंखों से कुछ नहीं होता हौसलों से उड़ान होती है।'' ये पंक्तियां मेजर डीपी सिंह जैसे सैनिकों पर एक दम सटीक बैठती हैं।


मरने के बाद फिर जी उठे योद्धा मेजर डीपी सिंह अब एक मिसाल बन चुके हैं। मेजर का कहना है कि बचपन से अब तक उन्हें जब-जब तिरस्कार का सामना करना पड़ा, तब-तब उनके हौसले और मुश्किलों से हार न मानने का जज्बा और मजबूत होता चला गया। ब्लेड रनर के अनुभव को बयां करते हुए मेजर का कहना है कि रनिंग के दौरान कई ऐसे मौके आए जब उन्हें बेहद पीड़ा हुई। शरीर में इतने जख्म थे कि दौड़ लगाते हुए उनके पैरो से खून रिसने लगता था लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी और पहले केवल चला, फिर तेज चले और फिर दौड़ने लगे।


दो बार लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में नाम दर्ज करा चुके मेजर सिंह को विकलांग, शारीरिक रूप से अक्षम या अशक्त कहे जाने पर सख्त आपत्ति है।


वह खुद को और अपने जैसे अन्य लोगों को ‘चैलेन्जर’ यानी चुनौती देने वाला कहलाना पसंद करते हैं। लिहाजा वह अपने जीवन में एक के बाद एक चैलेजिंग कार्य करते हैं।


मेजर डीपी सिंह ऐसे लोगों के लिए एक संस्था चला रहे हैं- ‘दि चैलेंजिंग वंस’ और किसी वजह से पैर गंवा देने वाले लोगों को कृत्रिम अंगों के जरिए धावक बनने की प्रेरणा दे रहे हैं। वे जीवन की कठिन से कठिन परिस्थिति से जूझने को तैयार हैं और उसे चुनौती के रूप में लेते हैं।


मेजर डीपी सिंह जी की कहानी मुझे गुगल पर मिली। सोचा आप लोगों से भी शेयर करूं ‌। वाकई मेजर जैसे लोग हमारे असली हीरो हैं। जिन्होंने असली जिंदगी जी है और दूसरो के लिए भी प्रेरणा है। ऐसे जज्बे को कोई हरा नहीं सकता।


सच बात है इंसान विकलांग शरीर से नहीं दिमाग से होता है, अगर उसने मान लिया कि वो अपाहिज है तो शायद दुनिया की कोई ताकत उसे फिर से खड़ा नहीं कर सकती।


मैं भी विकलांग हूं। बचपन में एक एक्सीडेंट में अपंग हो गई थी।जब डाक्टर ने मेरी पट्टी खोली और अपने हाथ को देख कर बहुत रोयी, उस वक्त अपनी दादी की कही बात आज तक याद है मुझे। घर आई रोते हुए। मेरी दादी बालकनी में बैठी थी मैं उनके पास गई और उनसे कहा -"बऊआ अब मेरा हाथ आपके जैसा नहीं है देखो ना।"


दादी ने मुझे अपने पास बैठाया और बोली -"ठीक कहा तुमने , आपका हाथ हमारे जैसा नहीं है अब और ज्यादा स्पेशल हो गया। क्योंकि आप खास हो और किसी से भी कम नहीं।"

उस वक्त दादी ने मुझे बहलाने के लिए कही थी यह बात ‌।पर वो बात आज तक याद है हमें। हमेशा सबका मुझे सपोर्ट रहा , किसी से भी कम नहीं हूं मैं आज भी‌ । हां हाथ की वजह से अपना एक शौक छोड़ना पड़ा मुझे। आज भी कभी मायूस होते हैं तो दादी की यह बात याद करते हैं।

सही बात है मानो तो नामुमकिन कुछ भी नहीं।


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