Renuka Tiku

Inspirational Others

3.9  

Renuka Tiku

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नामकरण

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 एक लंबी सांस लेकर किशोरी लाल जी अपनी कुर्सी पर बैठ गए और ना जाने कब उनकी आंख लग गई। गहरी नींद में होने के बावजूद भी चेहरे पर उदासी और परेशानी साफ झलक रही थी।

   बंद आंखों के पीछे चलते हुए चलचित्र पर सिर्फ आपका ही नियंत्रण होता है। पुरानी बातें, घटनाएं, लोग जगह, आप की खामियां, और आपका गुरूर एक 'अतीत' नाम की फाइल में कैद हो जाता है, और सही समय पर रिहा हो आपके सामने आ खड़ा होता है।

 किशोरी लाल जी एक धनाढ्य व्यक्ति थे, डीलडोल से थोड़े भारी, लंबी- लंबी मूँछें, रोबदार व्यक्तित्व और रोबेली आवाज के स्वामी। स्वभाव से अत्यंत मातृ भक्त और अपनी छोटी बहनों से बहुत स्नेह करते थे। लगभग सभी क्षेत्रों में उनकी पकड़ सराहनीय थी- चाहे संगीत हो, चित्रकारी हो, या लेखन। एक आदर्श पुरुष थे किशोरी लाल जी।

 पिता का देहांत छोटी उम्र में ही हो गया था तो मां ने बड़ी कुशलता से बहनों की जिम्मेदारी का बोझ किशोरी के कंधों पर डाल दिया। कुशाग्र बुद्धि होने के कारण उन्हें पढ़ाई समाप्त कर जल्द ही ऊंचे पद की सरकारी नौकरी मिल गई थी।

 विवाह करने को किशोरी हरगिज़ राजी नहीं थे। जिद थी कि पहले बहनों को विदा करेंगे फिर सोचेंगे। मां की हट के आगे किशोरी की एक न चली और कौशल्या ने उनके जीवन में प्रवेश किया। कौशल्या यूं तो किशोरी के डीलडोल के आगे गुड़िया सी प्रतीत होती थी छोटा सा कद, दुबली पतली और साधारण सा रूप। शुरू में तो किशोरी के मन को थोड़ा आघात से लगा, पर मां की पसंद थी तो शायद मन को समझा लिया।

      कौशल्या ने आते ही घर की बाग डोर अपने हाथ में ले ली और बड़ी कुशलता से मां और बेटा दोनों की उम्मीदों पर पूरी पूरी खरी उतरी। तीनों बहनों का विवाह बड़ी धूमधाम से हुआ और घर की जिम्मेदारी निभाते निभाते 14 साल कैसे निकले इसका आभास ही ना हुआ।

 किशोरी और कौशल्या निःसंतान थे। सबसे छोटी बहन किरण के जाने के बाद घर में सन्नाटा छा गया और कौशल्या को बच्चे का अभाव खलने लगा। किशोरी को काम ने इतना उलझा रखा था या यूं कहिए उन्होंने अपने को काम में व्यस्त कर लिया था कि कुछ और सोचने की फुर्सत ही ना रहे।

 अब घर आने पर उन्हें कौशल्या का उदास चेहरा मिलता और कई बार बच्चा गोद लेने का सुझाव। थोड़े रूढ़िवादी सोच के थे किशोरी लाल जी। किसी और की संतान को अपनाने के लिए कतई तैयार नहीं थे।

       कौशल्या की जिद के आगे उन्होंने सर झुका दिया पर उसके साथ न गए। कौशल्या को तो बस उनकी मंजूरी का ही इंतजार था।

 दूसरे शहर के किसी परिवार में जन्मा सूरज सिर्फ 4 महीने का था और उसकी मां उसे जन्म देकर चल बसी थी। उसके तीन विवाहित भाई थे और अधेड़ उम्र के पिता। बच्चे की जिम्मेदारी कोई नहीं लेना चाहता था और उसे पालना उसके अधेड़ पिता के बस में ना था।

 सूरज को इससे अच्छा घर कहां मिलता और कौशल्या तो उसे बांहों में भर जैसे भूल ही गई कि वह उसकी जननी नहीं है। बड़े लाड प्यार से सूरज की परवरिश हुई। एक से एक खिलौने, कपड़े, खाना-पीना और सब।

 सूरज मातृत्व की छाया में ही बड़ा हो रहा था परंतु पिता का योगदान महज पैसों की पूर्ति करना ही था। कभी हिचकिचा कर शायद ही गोद उठाया हो किशोरी लाल जी ने उसे। यह मेरा 'खून नहीं' ने उनकी सोच को पूरी तरह ग्रसित किया हुआ था, पर उन्होंने उसके लालन-पालन में कौशल्या की ओर से कभी कोई कमी नहीं की। कौशल्या को भी शायद किशोरी लाल जी से इससे ज्यादा की आशा ना थी।

     स्कूल शुरू हुआ। पढ़ाई का बोझ लेने के लिए सूरज मानसिक रूप से तैयार नहीं था। कुछ इंटेलिजेंस लो थी कुछ लाड-प्यार ने बिगाड़ दिया था। हर कक्षा में बड़े जोर जुगाड़ से पास होता। मां कौशल्या का पूरा पूरा सहयोग था इस सब में।

 हर चीज की अति बुरी होती है तो अत्यधिक लाड प्यार ने सूरज को संवेदन हीन  बना दिया था। उसे पता था कि मां से किस तरह कोई भी चीज हासिल करी जा सकती है। किसी तरह से कौशल्या ने उसे 12वीं पास करवाई। 

 अब कौशल्या की तबीयत ठीक नहीं रहती थी। डॉक्टर ने कुछ दिल के बीमारी का जिक्र किया। अधिकतर समय बिस्तर पर ही रहती। सूरज घर में ही रहता कभी-कभी बीच में एक आधा सिगरेट सुलगाने बाहर जाता और टहल कर लौट आता।

 किशोरी लाल जी को बहुत दुख होता कि जिस मां ने अपना पूरा जीवन इस बच्चे की परवरिश में लगा दिया वह दो घड़ी भी उसके पास ना बैठता पर कभी कुछ बोले नहीं उसे। यह अधिकार उन्होंने कभी जताया ही नहीं। मन मसोसकर कर सिर्फ इतना ही बोल- 'कुछ पल मां के पास भी बैठ जाया करो'। पिता और पुत्र के बीच का संबंध तो कभी पनपा ही नहीं। ना पिता ने पुत्र को कभी गले लगाया ना ही पुत्र ने प्रेम वंश उनका हाथ ही थामा। एक झिझक सी हमेशा बनी रहे इस रिश्ते के बीच।

        कौशल्या की हालत नाजुक हो चली थी। किशोरी लाल जी उसके पास बैठते, हाथ सहलाते, पता था, जीवन संगिनी का साथ छूटने वाला है। अचानक एक दिन कौशल्या ने किशोरी लाल जी से कहा- जानती हूं मैं, कि समय कम है मेरे पास, और सूरज तो मेरे जाने के बाद एक बार फिर से अनाथ हो जाएगा। मेरी आखिरी इच्छा पूरी करोगे किशोरी?

 सर पकड़ कर बैठ गए किशोरी। एक और आपदा को न्योता था यह! बेरोजगार, लक्ष्यहीन, आलसी लड़का और शादी? अब यह तो एक और जिंदगी को दांव पर लगाना हुआ ना कौशल्या। कौन देगा इससे रिश्ता?

 कौशल्या के दूर के किसी रिश्तेदार की इकलौती बेटी थी। गरीब परिवार था, तो रिश्ता आसानी से हो गया। सूरज का विवाह गायत्री से हो गया और कौशल्या ने इस संसार से विदा ली।

  किशोरी लाल जी ने सूरज को कई जगह नौकरी पर लगवाया पर उसे शायद मेहनत की आदत ही ना थी।  एक 2 महीने से ज्यादा कहीं टिक ही ना पाता था। घर में थोड़ी थोड़ी खटपट होनी शुरू हो गई थी गायत्री और सूरज के बीच। इन सब का चित्रण किशोरी लाल जी अपनी आंखों से देख रहे थे। 

खाली समय में गायत्री को घर में पुरानी पत्रिकाएं, कहानी की किताबें पढ़ते हुए देख उन्हें अच्छा लगता था। सूरज को खाली टहलता देख उनका खून खौल उठता था। एक दिन बुला कर उन्होंने सूरज से बोला अगले महीने मेरी रिटायरमेंट है घर कैसे चलेगा सूरज? मैं स्कूटर और मोटरसाइकिल की डीलरशिप ले लेता हूं। तुम चला सकोगे? मैं भी साथ रहूंगा। काम का नाम सुनकर ही सूरज जैसे बौखला सा जाता था, कुछ काम के अभ्यास की कमी थी, कुछ विश्वास की और कुछ इच्छा की। कुछ ना बोला सूरज। हूं, हां, और जी के अलावा।

 आज बैंक से लोन लेने की बात करने जाना था किशोरी लाल जी ने। आवाज लगाई - ' सूरज'। कोई जवाब ना आया। सामने टेबल पर रखे हुए उनके चश्मे के नीचे एक सफेद कागज पर कुछ लिखा था- 'मैं जा रहा हूं मुझे मत खोजना'- सूरज

     किशोरी लाल जी धम से कुर्सी पर बैठ गए। जल्दी-जल्दी फोन उठाया, पुलिस को खबर करी, पत्रकारों को बुलाया, इश्तहार दिए। एक पत्रकार ने पूछा- सर, कोई बर्थ मार्क, चेहरे पर कोई निशान, कोई तिल, इत्यादि, यह सिर्फ पहचान चिन्ह के लिए हैं।

 किशोरी लाल जी ने आंखें भींच कर सूरज का चेहरा याद किया बोले- हां, हां गाल पर तिल है उसके। 

पत्रकार बोला- सर, दाएं या बाएं?

 किशोरी लाल जी बोले- शायद बाएं।

 तभी सामने खड़ी गायत्री ने कहा नहीं सर दाएं गाल पर आंख के नीचे और दाएं कान में ही सोने की बाली भी डाली हुई है सूरज ने। किशोरी लाल जी को एहसास हो रहा था कि कभी शायद गौर से देखा भी नहीं सूरज को इन 22 सालों में। आस और पश्चाताप के आंसू आंखों के कोनों से बह रहे थे। सारा दृश्य आंखों के सामने था। मां का अंधा लाड प्यार और पिता का अलगाव। दोनों का परिणाम यह निकला।

 दूर से आवाज आती प्रतीत हुई- पापा, चाय लीजिएगा? दो दिन से कुछ खाया नहीं है आपने।

     आंखें खोली तो सामने गायत्री चाय लिए खड़ी थी। कुछ देर उस 18 19 साल की बच्ची को देख कर बोले- बैठो यहां गायत्री बेटा, आगे पढ़ोगी? मैंने तुम्हें कई बार मैगजींस पढ़ते हुए देखा है।

 गायत्री सर झुका कर बोली-- 'जी पापा'।

 गाड़ी का हॉर्न जोर- जोर से बज रहा था। किशोरी लाल जी ने एक पेपर गायत्री को थमाते हुए कहा-

' चलो, जल्दी गाड़ी में बैठो'। गायत्री ने पेपर खोला और देखा- वह एक एफिडेविट था।

लिखा था-- 

गायत्री रैना,

    सुपुत्री किशोरीलाल  रैना।



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