Moumita Bagchi

Tragedy

3  

Moumita Bagchi

Tragedy

नाले पर अटकी जिन्दगी

नाले पर अटकी जिन्दगी

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मौसम की पहली बरसात है और फणी की माँ हर बार की तरह सुबह से ही उस नाले के किनारे जा बैठी थी। दोपहर को माई को भोजन के लिए वह बुलाने आया तो माई उसे देखते ही बोली,

"फणी, देख नाले पर वह लाल लाल क्या है? किसी का लहू तो नहीं बह रहा है?"

"कुछ भी तो नहीं है , माई! तू घर चल। तेरी बहू तेरा खाना परोस कर बैठी है।"

माई ने उसकी इन बातों पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। थोड़ी देर बाद स्वयं बोली पड़ी,

"अरे--! उस पेड़ के नीचे एक लड़की बैठी है न? सलोनी जैसी लगती है, है न? हाँ वही तो--उसी के जैसी गुलाबी चुन्नी! सलोनी-- सलोनी बेटा, तू आ गई?? और इससे पहले कि वह कुछ कह पाता उसकी माई बदहवास उसी पेड़ की दिशा में भागी! तन पर लिपटी हुई धोती घुटने के ऊपर चढ़ गई थी। आँचल भी कबका उनका खिसक चुका था, सर पर बचे खुचे सफेद बाल हवा से ऐसे बेतरतीबी से उड़ रहे थे कि जैसे उनको अभी- अभी जोरदार बिजली का झटका लगा हो, परंतु माई को इन सबकी सुधी कहाँ?

उधर भागते हुए माई गिर पड़ी थी पीछे- पीछे दौड़ता हुआ फणी आया और दोनों हाथों से पकड़कर उनको उठाया। फणी ने माँ की ओर देखा दुःख दर्द और शोक से उनकी काया कितनी जीर्ण- शीर्ण हो गई थी! उसने बड़े ध्यान से माई को देखा -पीठ और पेट दोनों चिपक कर एक हो गए थे, उनके लटके हुए अनावृत्त स्तन सूखकर दो बड़े किशमिश से मालूम होते थे। कमर ऐसी झुक गई थी कि सीधे होकर चलना भी उनके लिए दुश्वार था। तब भी माई हर साल भारी बरसात में इस नाले के पास चली आती थी और दिन भर यहीं भीगती रहती थी। उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता था, मानो उनकी जिन्दगी इसी नाले के किनारे अटकी पड़ी हो!

सावन की झड़ियाँ बहुत लोगो को सुख देती हैं, लोग कितने रंगीन सपने देखा करते हैं, मगर फणीभूषण का परिवार इसी सावन के महीने में उजड़ गया था। तभी से माँ की ऐसी हालत है। सावन की झड़ियाँ लगते ही वह विक्षिप्त- सी हो जाया करती हैं।

जैसे इस समय वे नाले में उतर आई हैं और छाती तक डूबने वाली पानी में पैठकर न जाने क्या खोजे जा रही हैं! उसने आगे बढ़कर देखा तो वे पानी में उग आए झाड़ियों को हाथ से उखाड़ने की कोशिश कर रही हैं, और इसी कोशिश में उसकी ऊँगलियाँ लहूलुहान हो उठी है। पर उन्हें इसकी खबर भी नहीं है।

डाॅक्टर ने उस बार कहा था फणी से कि ऐसी हालत में उन्हें बिलकुल भी अकेला न छोड़ा जाए। परंतु हर समय उन पर नजर रखना कैसे संभव है? अभी, आज ही बात ले लीजिए, सुबह सुबह जिस समय बारिश आई उस समय फणी सो रहा था और उसकी मेहरिया गुसलखाने में गई थी। माई ने उस मौके का फायदा उठाया और किसी को बिना कुछ बताए इस नाले के पास खिसक आई थी।

फणी किसी तरह अपने दो तीन दोस्तों को बुलाकर लाता है और वे सब मिलकर जबरदस्ती माई को कंधे पर उठाकर फणी के घर तक पहुँचा देते हैं। रास्ते में माई ने भयंकर विरोध किया, एकबार तो हाथ छुड़ा कर भागने में कामयाब भी हो गई थी। पता नहीं ऐसे समय उनके निर्बल हाथ- पैरों में इतनी शक्ति कहाँ से आ जाया करती हैं?

रात को माँ को बड़ा तेज बुखार आया। इधर दिन भर मूसलाधार बारिश जारी रही। गाँव के सभी नदी- नाले और सड़कें पानी की चपेट में आ गए थे। फणी के घर के टीन की छत पर इस समय बारिश की बूँदों के गिरने की अविराम आवाज़े सुनाई दे रही थी!

पूरा गाँव सूनसान था। फणीभूषण माई की शय्या के पास बैठा हुआ था। आले पर एक दीये की हल्की सी रौशनी टिम- टिमा रही थी। बिजली तो सुबह से ग़ायब हो गई थी। शायद कहीं केबल टूट गया था या कोई खंभा उखड़ गया होगा! घर के बाकी लोग सो रहे थे।

उसकी ज्वरग्रस्त माई बड़बड़ाने लगी थी--

"नहीं नहीं, सलोनी को छोड़ दो। उसे मत ले जाओ! वह छोटी सी बच्ची है।"

फिर वह जोर- जोर से रोने लगी--- " फणी देख तेरे बापू को वे लोग ले गए। वे अब कभी न आएंगे।"

रात भर माई का ऐसा ही बड़बड़ाना चलता रहा। फणी उनके सिरहाने बैठा जलपट्टी देता रहा और उन्हें सुनता रहा। और क्या करता? ऐसी भारी बरसात में डाॅक्टर भी नहीं मिल पाया कोई उसे।

अगले सुबह वशीर ने अपनी आँखे खोली। इसके बाद उसने देर तक जंभाई ली। फिर बाहर आया तो देखा कि फणीभूषण उसे बुलाने आया है। उसकी माई आज भोर- भोर गुजर गई थी। उनका अंतिम संस्कार करना है।

इस गाँव में हिन्दू और मुसलमान पास- पास रहा करते थे। ऐसे समय कोई धर्म या जात नहीं देखा करता था। पड़ोसी ही पड़ोसियों की मदद किया करते थे।

सुबह से मौसम खुल गया था। बारिश इस समय नहीं हो रही थी। परंतु कल के दिन भर की बारिश से कहीं इतनी सी सूखी जमीन भी न बची थी कि चिता की लकड़ियाँ जलाई जा सकें। बहुत ढूँढने पर उसी नाले के किनारे एक ऊँचा पत्थर मिल पाया था, जहाँ इस समय पानी नहीं भरा था! उस जरा सी सूखी जमीन पर फणी के दोस्तों ने उसकी माई की चिता सजा दी।

फणी चिता को आग देकर थोड़ी दूर बैठकर सोचता रहा,

"कैसी विडम्बना है, कुछ वर्ष पहले इसी नाले के किनारे सांप्रदायिक दंगे में उसके पिता की जान चली गई थी! उनके लहू से उस दिन यह नाला लाल पड़ गया था। फिर इसी नाले के किनारे उससे दस साल छोटी बहन के साथ दुष्कर्म करके आततायियों ने उसकी छोटी सी लाश को उस पेड़ पर लटका दिया था।

-- और आज माई का भी दाह संस्कार इसी नाले पर हो रहा है। "

वही बारिश का मौसम और वही मातम का माहौल!!

सच में उसकी जिन्दगी में इस नाले ने कितनी अहम भूमिका निभाई है!


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