मुट्ठी भर आसमान
मुट्ठी भर आसमान


"बाबा, बाबा कहाँ हैं आप?" निमेष की आवाज़ पूरे घर में गूँज रही थी।
"यहाँ हूँ मैं निमु, अपने सब्जी बागान में। आ जा तू भी। देख टमाटर के पौधे में फल आने लगे हैं।" निमेष के बाबा प्रशांत जी की आवाज़ आयी।
"ओह्ह बाबा, आप क्यों इस उम्र में भी इतना काम करते हैं? अब तो आपको आराम करना चाहिए।" निमेष उनके पास आता हुआ बोला।
प्रशांत जी ने अपने पौधों को सहलाते हुए कहा "देख बेटा, मेरी ये सीख तू गांठ बांध लें। जिस दिन तूने स्वयं को बूढ़ा और लाचार समझकर आराम करने के उद्देश्य से बिस्तर का सहारा लिया तेरा शरीर और मन दोनों बीमारियों का घर बन जाएंगे। इसलिए जितना हो सके अपने पसंद के कामों में खुद को व्यस्त रखना। उन शौकों को पूरा करना जो तू अभी अपनी जिम्मेदारियों में व्यस्त होने के कारण नहीं कर पा रहा।"
"आप ठीक कह रहे हैं मेरे प्यारे बाबा। मैं हमेशा ये बात याद रखूँगा।" निमेष बोला।
"अच्छा अब वो बात तो बता जिसके लिए तू पूरा घर सर पर उठा रहा था।" प्रशांत जी ने कहा।
निमेष ने बिना कुछ कहे बस एक लिफ़ाफ़ा प्रशांत जी के पैरों के पास रख दिया।
प्रशांत जी ने हैरत से वो लिफ़ाफ़ा खोला तो पाया उसमें निमेष का नियुक्ति पत्र था। उसका चयन पुलिस विभाग में हो गया था।
उनकी आँखों से आँसू छलक उठे।
"अरे बाबा, आप रो रहे हैं?" निमेष उनके आँसू पोंछते हुए बोला।
प्रशांत जी ने उसके सर पर हाथ रखते हुए कहा "पगले, ये तो खुशी के आँसू है। आज तूने मेरी तपस्या का फल मुझे दे दिया।
अब वो घड़ी आ गयी है जब मैं तुझसे अपनी गुरुदक्षिणा माँग सकता हूँ।"
"हाँ-हाँ बाबा, आप बस आदेश कीजिये, मैं पूरा करूँगा।" निमेष बोला।
"मेरी गुरुदक्षिणा यही होगी बेटे की हमेशा असहायों की मदद करना। कभी अपने पद का दुरुपयोग मत करना।" प्रशांत जी ने नियुक्ति पत्र को गर्व भरी नजरों से देखते हुए कहा।
निमेष उनके पैर छूते हुए बोला "मैं ऐसा ही करूँगा बाबा।"
अपनी लगन, मेहनत और बहादुरी की बदौलत जल्दी ही निमेष तरक्की की सीढ़ियां चढ़ता गया और थाना प्रभारी के पद पर कार्यरत हो गया।
एक दिन निमेष पुलिस स्टेशन में बैठा किसी केस की फ़ाइल देख रहा था तभी हवलदार एक दस साल के लड़के को घसीटते हुए लेकर आया।
निमेष की उस पर नज़र पड़ी तो उसने हवलदार को बच्चे के साथ अपने पास बुलाया।
इससे पहले की वो उन दोनों से कुछ पूछता उस बच्चे ने रोते हुए कहा "साहब, मुझे जेल भेज दीजिये पर मारिये मत।"
निमेष ने उठकर उसके आँसू पोंछे और बोला "कोई नहीं मारेगा तुम्हें। डरो मत। बताओ क्या बात है? हवलदार साहब तुम्हें यहाँ लेकर क्यों आये हैं?"
"साहब इसने एक दुकान में चोरी की है। दुकान के मालिक की शिकायत पर मैंने इसे पकड़ा है।" हवलदार ने जवाब दिया।
निमेष ने उस बच्चे की तरफ देखा जो सहमा हुआ, नज़रें झुकाए खड़ा था।
उसने नरम स्वर में बच्चे से पूछा "क्यों बेटे, तुमने ऐसा गंदा काम क्यों किया?"
"बहुत भूख लगी थी ना।" बच्चे ने धीमे स्वर में जवाब दिया।
उसकी बात सुनकर निमेष का मन भर आया।
उसने तुरंत हवलदार को बच्चे के लिए खाना लाने भेज दिया।
जब तक हवलदार खाना लेने गया निमेष ने बच्चे से बातचीत जारी रखी।
उसके भरोसा दिलाने पर बच्चे ने कहा "मेरे बापू का कहना है खुद कमाओ खुद खाओ। वो घर पर हमें खाना नहीं देते। माँ बहुत पहले मर चुकी है।
मैंने बहुत काम ढूँढा पर सब कहते है की बच्चों से काम करवाने पर उन्हें सजा हो जाएगी।
औऱ कुछ लोगों ने काम दिया भी तो वहाँ मेहनत ज्यादा थी, पैसे और खाना कम, मालिक की गालियां-मार अलग से।
फिर मुझे कुछ मेरे जैसे भैया लोग मिले, उन्होंने कहा हम जैसे बच्चों के लिए चोरी करना ही सबसे अच्छा रास्ता है। उन्होंने ही मुझे सब सिखाया। लेकिन मैं आज पहली ही बार में पकड़ा गया।
साहब, मैं ऐसा नहीं करना चाहता था लेकिन बिना पैसे के कोई खाना भी तो नहीं देता।"
बच्चे के आगे के शब्द आँसुओं में डूब गए।
निमेष खामोश सा उसकी बातें सुनता हुआ कहीं खो सा गया था कि तभी हवलदार आ गया।
उससे खाने की थाली लेकर निमेष ने बच्चे की तरफ बढ़ाते हुए कहा "लो बेटे, खाना खा लो।"
उसकी बात सुनकर बच्चे ने पहली बार हैरत से अपनी नज़रें उठायी औऱ एकटक खाने की थाली को देखने लगा। लेकिन खाने की हिम्मत नहीं जुटा सका।
ये देखकर निमेष ने स्वयं बच्चे के मुँह में खाने का निवाला डाला तो एक बार फिर उसकी आँखों से आँसू छलक उठे।
उन्हें पोंछते हुए निमेष बोला "बेटे, खाते हुए रोया नहीं करते।"
जब बच्चे ने खाना खा लिया तब हवलदार ने कहा "साहब, अब हमें इसे बाल सुधार गृह भेजना होगा।"
कुछ सोचकर निमेष बोला "मैं स्वयं इसे वहाँ लेकर जाऊँगा।"
और बच्चे को लेकर बाहर निकल गया।
बाल सुधार गृह पहुँचकर वहाँ के प्रमुख को निमेष ने अपना परिचय दिया और सारी कार्यवाही के बाद बच्चे का ध्यान रखने के लिए कहकर उसे वहाँ छोड़कर वापस चला गया।
अपनी व्यस्तता में निमेष उस बच्चे को भूल चुका था की एक रात वो अचानक नींद से चौंककर उठ बैठा।
बहुत कोशिश करने पर भी जब उसका मन शांत नहीं हुआ, उसकी आँखों में दोबारा नींद नहीं आयी तब वो उठकर रसोई में चला गया और अपने लिए कॉफी बनाने लगा।
खटर-पटर की आवाज़ से प्रशांत जी की नींद भी टूट गयी। वो कमरे से बाहर आये तो देखा हाथ में कॉफी का मग लिए निमेष बरामदे में चहलकदमी कर रहा था।
"क्या बात है बेटे? इतनी रात में यहाँ क्या कर रहे हो? प्रशांत जी ने पूछा।
निमेष ने कहा "कुछ नहीं बाबा, बस मन बहुत बेचैन सा था। आप क्यों उठकर आ गये? सो जाइये।"
"सो जाऊँगा। पहले बताओ किस बात ने तुम्हें परेशान कर रखा है? प्रशांत जी बोले।
निमेष ने उस दिन थाने में आये हुए उस बच्चे के बारे में बताते हुए कहा "पता नहीं क्यों बाबा मुझे आज अचानक ऐसा महसूस हुआ जैसे वो ठीक नहीं है। मेरी नज़रों से उसकी तस्वीर हट ही नहीं रही। और कानों में बस उसकी बात गूँज रही है कि उसे भूख लगी थी इसलिए उसने चोरी की। मानों जैसे उसके रूप में मेरा अतीत सामने आकर खड़ा हो गया हो।"
निमेष की बातें सुनकर प्रशांत जी को पच्चीस वर्ष पहले की घटनाएं याद आने लगी।
तब प्रशांत जी सड़क विभाग के प्रमुख अभियंता के पद पर कार्यरत थे। उन्हें शराब की बुरी लत थी जिससे परेशान होकर उनकी पत्नी ने उन्हें तलाक देकर दूसरी शादी कर ली थी।
अब प्रशांत जी और भी ज्यादा पीने लगे थे।
एक दिन दफ्तर में ज्यादा काम होने के कारण प्रशांत जी देर रात शराब के ठेके पर पहुँचे।
वहाँ बैठकर पीते हुए अचानक उनकी नज़र आठ-नौ साल के एक बच्चे पर पड़ी जो वहाँ मौजूद कचरे के ढ़ेर से बचे-खुचे खाने को ढूँढ़कर खा रहा था और फेंकी हुई शराब की बोतलों से बची-खुची थोड़ी सी शराब भी निकालकर पीता जा रहा था।
उसे देखकर प्रशांत जी हैरत में पड़ गए औऱ उसे अपने पास बुलाया।
वो बच्चा डरते-डरते उनके पास आया और बोला "मारना मत साहब। बहुत भूख लगी थी इसलिए यहाँ आ गया।"
"डरो मत मैं नहीं मारूँगा तुम्हें। पर तुम इस तरह कचरे के ढ़ेर से खाना क्यों खा रहे हो? और इस बोतल से ये गंदी चीज क्यों पी रहे हो ?"
"मुझ जैसे अनाथ-बेघर को कौन खाना देगा साहब? जहाँ काम करता था वो बहुत मारते थे मुझे इसलिए मैं वहाँ से भाग आया।
और ये बोतल वाली चीज पी लेने के बाद अगली रात तक मुझे होश ही नहीं रहता इसलिए भूख भी नहीं लगती।" बच्चे ने जैसे सफ़ाई पेश की।
इससे पहले की प्रशांत जी कुछ कहते उस बच्चे ने उनसे कहा "साहब अगर इस बोतल में गंदी चीज है तो आप क्यों पी रहे हैं? और बाकी लोगों की भीड़ भी यहाँ क्यों रहती है?"
उसकी बात सुनकर प्रशांत जी सोच में पड़ गए। अपने सामने पड़ी हुई बोतल और ग्लास तत्काल कचरे के डब्बे में डालते हुए वो उठ खड़े हुए और बच्चे से मुखातिब होकर बोले "आज के बाद मैं इस गंदी चीज को नहीं पिऊँगा और ना ही तुम्हें इस गंदगी में रहने दूँगा।"
बच्चे को समझा-बूझाकर वो उसे अपने घर ले आये।
कुछ दिनों में सारी कानूनी प्रक्रिया पूरी करके प्रशांत जी ने उस बच्चे को गोद ले लिया और नाम दिया 'निमेष'।
उस रात के बाद से प्रशांत जी ने कभी शराब को हाथ नहीं लगाया। निमेष की परवरिश में उन्होंने अपनी सारी ज़िन्दगी गुजार दी। वो उसके माता-पिता ही नहीं अपितु गुरु भी थे। उनकी तपस्या का ही परिणाम था कि कभी कचरे के ढ़ेर में पड़ा हुआ वो बच्चा आज एक सम्मानित पद पर पहुँच गया था।
"क्या हुआ बाबा? आप क्या सोचने लगे?" निमेष की आवाज़ से प्रशांत जी की तंद्रा भंग हुई।
प्रशांत जी ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा "कुछ नहीं बेटे। तुम बताओ क्या सोचा है तुमने उस बच्चे के बारे में?"
"मैं सोच रहा हूँ कल घर आते हुए उससे मिलने चला जाऊँ।" निमेष बोला।
"ठीक है। मेरी किसी प्रकार की मदद की जरूरत हो तो बताना।" प्रशांत जी ने कहा।
निमेष उनकी गोद में सर रखता हुआ बोला "हाँ बाबा।"
प्रशांत जी स्नेह से उसके बालों को सहला रहे थे।
थोड़ी देर यूँ ही साथ बैठने के बाद दोनों अपने कमरे में चले गए।
अगले दिन जब निमेष उस बच्चे से मिलने बाल सुधार गृह पहुँचा तो उसने पाया वो बच्चा पहले से भी ज्यादा सहमा हुआ था।
निमेष ने उससे बात करनी चाही पर वो चुपचाप बैठा रहा। उसे बार-बार पीछे मुड़कर देखते हुए निमेष समझ गया कि उधर कोई है जिससे वो डर रहा है।
वहाँ के अधिकारी से बात करके निमेष उसे थोड़ी देर के लिए बाहर ले गया।
बाहर निकलने पर वो बच्चा रोते हुए निमेष के गले लग गया और बोला "साहब मुझे बचा लीजिये। यहाँ सब बहुत गंदे हैं। मुझे बहुत मारते हैं।"
निमेष के प्यार से पूछने पर बच्चे ने उसे पूरी बात बतायी।
बाल सुधार गृह में मौजूद बड़ी उम्र के बच्चों ने अपना एक गुट बना रखा था। वहाँ रहने वाले बाकी सभी बच्चों को उनके हर आदेश का पालन करना पड़ता था और जो उनकी बात नहीं मानता था उसे वो लोग बहुत पीटते थे।
उनमें से जो कुछ दिनों में छूटने वाले थे वो बाहर निकलकर फिर से बदमाशी की योजनाएं बनाते रहते थे।
और कुछ तो यहाँ से जाना ही नहीं चाहते थे क्योंकि यहाँ उन्हें बैठे-बैठे दो वक्त का खाना और टीवी देखने के लिए मिल जाता था।
जब निमेष ने बच्चे से पूछा कि दूसरे बच्चों ने उसे क्यों मारा तब उसने बताया कि वो सब उसे सिगरेट पीने के लिए कह रहे थे और जब उसने मना किया तो उन्होंने उसे बहुत मारा।
फिर एक दिन वो लोग दूसरे बच्चों को चोरी के तरीके सीखा रहे थे तब सीखने से मना करने पर भी उसकी पिटाई हुई।
निमेष ने हैरत से कहा "तो फिर तुमने वहाँ रहने वाले साहब से शिकायत क्यों नहीं की ?"
"मैं शिकायत करने गया था पर वो बोले यहाँ ऐसा ही होता है। चुपचाप रहो और उनकी बात मानों।" बच्चे ने कहा।
निमेष उसी वक्त बच्चे को साथ लेकर अपने सीनियर अधिकारी के पास पहुँचा और ये भरोसा दिलाने पर की उसे कोई कुछ नहीं करेगा बच्चे ने सारी बातें अधिकारी के आगे बयान कर दी।
उसकी बातें सुनकर अधिकारी बोले "ये तो हद ही हो गयी। वहाँ बच्चों तक सिगरेट कैसे पहुँच रही है ये भी चिंता का विषय है।"
अधिकारी जी से आज्ञा लेकर निमेष ने बच्चे को प्रशांत जी के पास घर पहुँचा दिया और फिर लिखित आदेश लेकर बाल सुधार गृह के अधिकारी से पूछताछ करने पहुँच गया।
पूछताछ में वहाँ के अधिकारी और कर्मचारियों का एक ही जवाब था "साहब क्यों इन कचरे के ढ़ेरों के पीछे पड़े हैं आप ? इन्हें इनके हाल पर छोड़ दीजिये। इनका कुछ नहीं हो सकता।"
"इनके हाल पर छोड़ने का ही तो परिणाम है कि आज समाज में अपराधियों की संख्या बढ़ती जा रही है।" कहकर निमेष वहाँ से निकल गया।
बच्चे के बयान के कारण बाल सुधार गृह के संबंधित कर्मचारियों को तो सज़ा हो गयी फिर भी निमेष का मन अशांत ही था।
जब वो घर पहुँचा तो देखा प्रशांत जी उस बच्चे को जिसका नाम अब 'रोशन' था, उसे पढ़ा रहे थे।
निमेष ने उनसे कहा "बाबा, आपने एक निमेष को बचा लिया और हमने एक रोशन को। लेकिन हमारे जैसे और अभागे बच्चों के भविष्य का क्या? कोई नहीं जो उन्हें सही-गलत का फर्क बताये, वापस अपराध के रास्ते पर जाने से बचाये।"
प्रशांत जी बोले "एक जिम्मेदार नागरिक और अधिकारी होने के नाते तुम्हारी चिंता जायज है बेटे। जिस माहौल में वो रह रहे हैं उसमें वो अपराधी के सिवा क्या बन सकते हैं?
जैसे हमारे घरों के बच्चों के लिए दूध और बिस्कुट है, वैसे उनके लिए शराब और सिगरेट-गुटखा वगैरह।"
"बाबा, अगर आप साथ दें तो मैं उनके लिए कुछ करना चाहता हूँ। हो सकता है हमारी छोटी सी कोशिश एक बड़ा बदलाव ले आये।" निमेष ने प्रशांत जी की तरफ देखते हुए कहा।
"मैं हर कदम पर तुम्हारे साथ हूँ बेटे। बताओ तुम क्या सोच रहे हो ?" प्रशांत जी निमेष के सर पर हाथ रखते हुए बोले।
निमेष ने कहा "बाबा, हमारे इस घर में काफी जगह है। मैं सोच रहा था कि क्यों ना हम सुधार गृह के बच्चों के लिए एक विद्यालय शुरू करें। आपके सर्किल में आपके जो भी रिटायर्ड दोस्त हैं आप उनसे बात कीजिये। मैं भी कुछ लोगों से बात करता हूँ। अगर सब लोग अपना थोड़ा-थोड़ा वक्त देने के लिए तैयार हो जाएं तो हम सब मिलकर इन्हें शिक्षित करेंगे। और उनकी योग्यता और रुचि के अनुसार उन्हें कोई ऐसा हुनर भी सिखाएंगे जिससे वो नौकरी ना मिल पाने पर भी अपने पैरों पर खड़े हो सकेंगे।"
"तुमने सोचा तो बहुत ही अच्छा है बेटे। अगर हम उन्हें प्राइवेट तौर पर मैट्रिक करवा दें तो उसके बाद कि उनकी राह थोड़ी आसान हो जाएगी। मैं इसके लिए तैयार हूँ। तू बस विद्यालय शुरू करने के लिए और यहाँ बच्चों को भेजने के लिए उच्च अधिकारियों से बात कर ले।" प्रशांत जी बोले।
अगले ही दिन निमेष ने अपने अधिकारियों से बात की। वो सब निमेष की बात से सहमत हो गए और बच्चों को प्रशांत जी द्वारा संचालित विद्यालय में जाने के लिए एक आदेश-पत्र पारित करवा दिया।
निमेष वो आदेश-पत्र लेकर सुधार गृह पहुँचा और बच्चों को बुलाने के लिए कहा।
जब सभी बच्चे आ गए तब निमेष ने कहा "बच्चों, आप सबके लिए एक खुशखबरी है। हम आपके लिए एक विद्यालय शुरू कर रहे हैं। जहाँ आपको पढ़ाया-लिखाया जाएगा ताकि आप सब एक अच्छा जीवन जी सकें।
और जिन बच्चों की सज़ा यहाँ पूरी होती जाएगी, उनके रहने और खाने का इंतज़ाम भी हम करेंगे ताकि उनकी शिक्षा में कोई बाधा ना आये।"
जहाँ कुछ बच्चे इस बात से बहुत खुश हुए, वहाँ कुछ बदमाश प्रकृति वाले बच्चे जिनकी वहाँ दादागिरी चलती थी गुस्से से भर उठे और बोले "हमें नहीं जाना किसी विद्यालय में। हम जहाँ हैं जैसे हैं ठीक हैं। इस बाहर की दुनिया में हर कोई हमसे नफ़रत करता है। विद्यालय में भी यही होगा।"
उनकी बात सुनकर निमेष ने कहा "विद्यालय में ऐसा कुछ नहीं होगा क्योंकि वहाँ तुम जैसे बच्चे ही होंगे। और तुम सबको पढ़ाने वाले शिक्षकों से तुम्हें स्नेह ही मिलेगा, ये मेरा वचन है।
रही इस समाज की तुम सबसे नफरत करने की बात तो वो तुम्हारे कर्मों के ही कारण है भले ही उसके पीछे तुम्हारी मजबूरी थी।
इस नफरत को तुम अपनी शिक्षा से, अपने अच्छे कर्मों से मिटा सकते हो जैसे मैंने मिटायी और आज यहाँ तुम सबके बीच इस वर्दी में खड़ा हूँ।"
निमेष की ये बात सुनकर सभी हैरत से उसकी तरफ देखने लगे। तब निमेष ने उन्हें बताया कि कैसे किसी वक्त वो भी उन सबके जैसा ही था और फिर किस तरह प्रशांत जी ने उसे पढ़ा-लिखाकर आज इतना काबिल बना दिया।
उसकी कहानी सुनकर ज्यादातर बच्चे विद्यालय आने के लिए तैयार हो गए, लेकिन कुछ बच्चे अपनी ज़िद पर अड़े रहें।
प्रशांत जी ने निमेष को समझाया कि उन्हें थोड़ा वक्त दो, जब वो दूसरे बच्चों को पढ़ते-लिखते और अच्छी चीजें सीखते हुए देखेंगे तो हो सकता है कि उनका मन बदल जाये।
निमेष ने उनकी बात मान ली।
कुछ ही दिनों में सबके सहयोग से विद्यालय शुरू हो गया।
सुधार गृह के अधिकारी तय वक्त पर बच्चों को लेकर वहाँ आते और तय वक्त पर लेकर चले जाते।
शुरू-शुरू में बच्चे थोड़े अनमने थे। लेकिन जल्दी ही सबका मन पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ चित्रकारी-संगीत और खेलों में रमने लगा।
जिन बच्चों की सज़ा सुधार गृह में पूरी हो जाती थी, और जिनका कोई घर कोई ठिकाना नहीं था, उनके रहने का इंतज़ाम विद्यालय अर्थात प्रशांत जी के घर में ही कर दिया गया था। सभी के सहयोग से उनके खाने-पीने और दूसरी जरूरतों का इंतज़ाम हो जाता था।
धीरे-धीरे वो बच्चे भी विद्यालय आने लगे जो शुरू में इसके खिलाफ थे।
उन सबको पढ़ता-लिखता देखकर निमेष बहुत खुश रहता था और प्रशांत जी को उसे खुश देखकर सुकून मिलता था।
इसी तरह वक्त बीतता रहा। पहली बार इस विद्यालय के कुछ बच्चे मैट्रिक का इम्तिहान देने वाले थे।
विद्यालय के सभी शिक्षक ऐसे उत्साहित और घबराये हुए थे मानों स्वयं उनका ही इम्तिहान हो।
तय वक्त पर इम्तिहान हुए और सभी परिणाम की राह देखने लगे।
आखिरकार परिणाम का दिन भी आ गया।
परिणाम जानने के लिए जैसे ही सुबह-सुबह निमेष ने अखबार उठाया उसकी नज़र पहले पृष्ठ पर ही जम गयी।
उसे खामोश देखकर प्रशांत जी बोले "क्या हुआ बेटे? कुछ बोल भी?"
तभी निमेष पेपर उछालते हुए खुशी से चिल्लाकर बोला "बाबा, ओ बाबा, हम जीत गए, हम जीत गए। हमारे दो बच्चों ने इम्तिहान में पूरे देश में सबसे ज्यादा नम्बर हासिल किए हैं। और बाकी सभी बच्चे भी उत्तीर्ण हो गए हैं।"
निमेष की आवाज़ सुनकर सभी बच्चे वहाँ जमा हो गए और उन दोनों बच्चों को बधाईयां देने लगे।
ये वही दोनों बच्चे थे जिन्होंने शुरू में विद्यालय आने से साफ इंकार कर दिया था।
अपना परिणाम जानने के बाद वो दोनों निमेष के पैरों पर झुक गए और आँसुओं से ही उसके चरण पखारने लगे।
निमेष ने उन्हें उठाकर गले से लगा लिया।
उस दिन विद्यालय की छुट्टी कर दी गयी और सभी बच्चों के लिए खास दावत का आयोजन किया गया।
कुछ दिनों के बाद प्रदेश सरकार के शिक्षा मंत्री की तरफ से घोषणा हुई कि इस विद्यालय से उत्तीर्ण हुए सभी बच्चों की आगे की पढ़ाई का खर्च सरकार उठाएगी साथ ही शिक्षक-दिवस पर इस विद्यालय के संचालक को भी सम्मानित किया जाएगा।
शिक्षक-दिवस के दिन सभी बच्चों के साथ प्रशांत जी, निमेष, विद्यालय के अन्य शिक्षक, साथ ही पुलिस विभाग के वो अधिकारी जो इस विद्यालय को सहयोग दे रहे थे, शिक्षा-मंत्री के कार्यक्रम स्थल पर मौजूद थे।
जब शिक्षा-मंत्री ने प्रशांत जी के नाम की घोषणा की तब वो निमेष का हाथ थामे मंच पर पहुँचे।
जब मंत्री जी ने उन्हें पुरस्कार देना चाहा तो वो बोले "सर, इस पुरस्कार को ग्रहण करने से पहले मैं यहाँ उपस्थित सभी लोगों से कुछ कहना चाहता हूँ।"
आज्ञा मिलने पर प्रशांत जी ने माइक संभाला और बोले "इस पुरस्कार का असली हकदार मैं अकेला नहीं हूँ। ये विद्यालय मेरे बेटे निमेष की कल्पना है जिसे हम सबने मिलकर हकीकत का रूप दिया।
हमारे विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चों से नफरत करना, उन्हें सजा देना बहुत ही आसान है। लेकिन उन्हें अच्छा बनाने वाला माहौल देना एक कठिन तपस्या है जिसे मेरे बेटे ने अपनी काबिलियत और ऊँची सोच से आसान बनाया, जिसमें उसका साथ इस विद्यालय से जुड़े हर व्यक्ति ने दिया।
इसलिए ये पुरस्कार हाथों में लेने का हक किसी एक का नहीं सबका है।"
उनकी बात सुनकर शिक्षा-मंत्री ने विद्यालय से जुड़े सभी व्यक्तियों के साथ-साथ बच्चों को भी मंच पर बुलवा लिया।
सभी लोग खुशी-ख़ुशी मंच पर पहुँचे। खासकर बच्चे बहुत ही ज्यादा उत्साहित थे।
अगली सुबह अखबार में हाथों में पुरस्कार थामे अपनी तस्वीर देखते हुए बच्चों के मन में पलने लगा था एक सपना, अपने हौसलों और काबिलियत से सफलता की ऊँचाईयां छूने का सपना, इस आसमान को अपनी मुट्ठी में भरने का सपना।
और सपनों से भरी हुई उनकी आँखों को देखकर मजबूत हो चला था निमेष का इस विद्यालय को और आगे ले जाने का संकल्प।
वहीं प्रशांत जी की आँखों में थी गर्व की भावना। आखिर आज उनके सबसे होनहार शिष्य ने, उनके बेटे निमेष ने सही मायनों में उन्हें उनकी गुरुदक्षिणा जो दे दी थी।