मुझे सम्मान के साथ जीना है
मुझे सम्मान के साथ जीना है
उसकी आँखों से निकलते आँसू उसके दर्द को बयां कर रहे थे। आँसुओं के कारण उसकी हिचकियाँ बँध गयी थी, वह कुछ भी बोल नहीं पा रही थी। मैं उसके दर्द और पीड़ा को समझ सकती थी। वैसे भी हम सब स्त्रियों की पीड़ा एक सी ही तो होती है।
मैंने उसे चुप कराने की ज़रा भी कोशिश नहीं की। बस मैंने उसका सर अपनी गोद में छिपा लिया था। मैं जानती थी कि आँसुओं के साथ ही उसका दर्द भी पिघल-पिघल कर बह जाएगा। आँसू बहाने से दिल हल्का भी तो हो जाता है। हम स्त्रियाँ रोकर अपने दिल को हल्का कर लेती हैं, शायद इसी कारण से दिल की बीमारियाँ हमें पुरुषों की तुलना में कम होती है।
मेरे घर के सामने रहने वाली निशा कहने को अपने घर की इकलौती बेटी थी, लेकिन फिर भी अनचाही थी। दो भाइयों की एक बहिन अपने भाइयों को ही फूटी आँख नहीं सुहाती थी। उसकी गलती सिर्फ इतनी सी थी कि उसने अपने नपुसंक पति को स्वीकार करने से मना कर दिया था और अपने आपको ऐसे चोटिल रिश्ते से आज़ाद कर लिया था।
भाइयों की शादियाँ हुई तो उनकी पत्नियों को तलाक़शुदा ननद की घर में उपस्थिति नागवार थी। अपने बुढ़ापे को बेटों के साथ ही सुरक्षित मानने वाले निशा के माँ -बाप भी बेटे -बहू के सामने चुप्पी साधे रहते।
निशा के पापा सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त थे और पेंशन प्राप्त कर रहे थे ;तब भी बेटी के पक्ष में खड़े होने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे। निशा का छोटा भाई और उसकी पत्नी दूसरे शहर में रहते थे, लेकिन जब भी घर पर आते ;निशा को लेकर क्लेश करते।
उसकी भाभियाँ अक्सर ही कहती, "मम्मी जी दीदी को इस घर से निकाल दो। इनके कारण घर में झगड़ा होता है। "
भाभियों की बात से ज़्यादा निशा को अपनी मम्मी की चुप्पी का लगता था। निशा की दूसरी शादी के लिए मैच ढूँढा जा रहा था, लेकिन दूध का जला छाछ भी फूँक -फूँक कर पीता है;इसीलिए ही निशा की बात नहीं बन रही थी।रोज़ -रोज़ के अपमान ने निशा को भावनात्मक और मानसिक रूप से कमजोर कर दिया था,इसीलिए वह अपने पढ़ी -लिखी होने के बावजूद भी अपने करियर को नहीं बना पा रही थी ।
रोज़ -रोज़ के अपमान ने निशा को भावनात्मक और मानसिक रूप से कमजोर कर दिया था,इसीलिए वह अपने पढ़ी -लिखी होने के बावजूद भी अपने करियर को नहीं बना पा रही थी ।
निशा अक्सर ही मेरे पास आती थी। मैं उसे कहती थी कि, "तुम अपने पापा से जायदाद का हिस्सा माँग लो और उस घर को छोड़ दो। शांति से अलग रहो। "
"नहीं दीदी, अपने मम्मी -पापा को कैसे छोड़ दूँ?",निशा हर बार यही कहती।
इस बार होली के अवसर पर घर पर सभी लोग एकत्रित हुए। निशा को लेकर फिर झगड़ा हुआ। लेकिन आज जब निशा के पापा ने ही कह दिया कि, "तू इस घर से निकल जा। ",तब निशा बिलकुल ही टूट गयी।
"दीदी, आप सही कह रही थी। मुझे इतना अपमान सहकर उस घर में और नहीं रहना चाहिए। अब पापा से मैं अपना हिस्सा माँगूगी, चाहे मुझे दुनिया कितना ही बुरा कहे। ",निशा ने अपने आँसू पोंछते हुए कहा।
मैं सोच रही थी कि अविवाहित, तलाकशुदा या विधवा बेटी अपने घरवालों के लिए बोझ क्यों बन जाती है। ऐसी लड़कियों के लिए संपत्ति का अधिकार सम्मान के साथ जीने के लिए बहुत जरूरी हो जाता है।
