मटके के ठीकरे
मटके के ठीकरे
शिखा की शादी को अभी दो महीनें ही हुए थे। वह रसोईघर में अभी चार-पाँच दिन से ही कम करने लगी है और उसकी सास रमा भी पूर्ण रूप से मदद करती है ।
शिखा जैसे ही चपाती सेंकनी आरम्भ करती है रमा दादी माँ का खाना लगाकर थाली उनके कमरे में ले जाती है और २ मिनट में थाली खाली करके वापिस रसोईघर में रख देती है। ४-५ दिन से शिखा यह सब देख रही थी ।वह मन ही मन सोचने लगी, आखिर दादी माँ इतना जल्दी खाना कैसे खा लेती है उनके तो दाँत भी नहीं है ।वह आपनी सास से पूछना चाहती है लेकिन साहस नहीं कर पाती ।
आज जैसे ही रमा थाली खाली करके रसोईघर में लेकर गई तो शिखा ने हिम्मत जुटाकर पुछ ही लिया , "मम्मी जी ,दादी माँ इतना जल्दी खाना खा लेती है ?"
रमा ने तपाक से जबाव दिया- "खाती रहेंगी धीरे-धीरे । ठीकरे में पटककर आ जाती हूँ। बाद में जाकर ठीकरे उठाकर फेंक दूँगी , बहुत गंदे तरीके से खाती है सारे बरतनों को गंदा कर देती है कौन धोयेगा ऐसे गंदे बरतन , शूग आने लगती है सब्जी में पानी डाल देती है, उसी में हाथ धो लेती है,उसी में चपाती के टुकड़े गिरा देती है ।"
दादी माँ के प्रति रमा का ऐसा व्यवहार देखकर शिखा को बहुत दु:ख हुआ । कुछ दिनों तक ऐसे ही चलता रहा
अब शिखा को सब कुछ समझ में आ गया था कि उसकी सास रमा ने घर के एक कोने में टूटे हुए मटके के टुकड़े काफी मात्रा में इकट्ठे कर रखे थे । खाने की थाली को उन टुकड़ों में खाली करके दादी माँ को देती थी और बाद में घर के पीछवाड़े में उन मटके के टुकड़ों को फेंक देती थी ।
अब रोज शिखा उन ठीकरों को वहाँ से उठाकर लाने लगी और उनको धोकर अपने कमरे के एक कोने में छुपाकर रखने लगी ।
जब रमा को यह बात पता चली कि बहु ठीकरे उठाकर लाती है और उनको धोकर अपने कमरे में रखती है तो रमा शिखा को डाँटने लगी । यह क्या करती हो बहु ? इन ठीकरो का क्या करोगी ? शिखा ने मुस्कराकर जबाब दिया- "मम्मी जी ये ठीकरे तो मैं अपने लिए इकट्ठा कर रही हूँ , क्योंकि जब आप दादी माँ की अवस्था में जाओगी तो मुझे भी तो आपको इन्हीं ठीकरो मे खाना परोसना पड़ेगा । और बाद में मैं कहाँ से लाऊँगी इतने सारे ठीकरे ।"
यह सुनकर रमा का चेहरा तमतमा गया , आँखें गुस्से से लाल हो गई।"अच्छा, तुम कौन होती हो मुझे ठीकरे में खाना देने वाली ? मैं तुझे १ मिनट में अपने घर से निकाल बाहर फेंक दूँगी ।"
शिखा ने शांत भाव से जबाब दिया , "मम्मी जी बेशक आप मुझे अपने घर से बाहर निकाल दिजीए क्योंकि अभी आपका रुतबा है,शरीर मे ताकत है, घर में पूछ-परख है लेकिन , यह तो समय का पहिया है एक जगह नहीं टिकता । घूमता रहता है। आज दादी माँ इस अवस्था में है कभी ये भी आप की तरह ये ही रुतबा , ताकत रखती थी, कभी इनके इशारों पर ही पूरा घर चलता था , लेकिन आज वो नि:सहाय है , ठीकरों मे खाने को मजबूर है सब कुछ सुनने को मजबूर है इनका बुढापा तो जैसे -तैसे कट गया। अब तो कुछ ही दिन की मेहमान है और आपका बुढापा शुरु होने वाला है । आज से पंद्रह - बीस साल बाद आप भी इसी अवस्था में रहोगी ।"
रमा को बहु की बातों में सच्चाई नजर आने लगी । वह इस अवस्था में अपने आप की कल्पना भर से ही काँप गई तो कैसे सहन करेगी ऐसा शरीर , तनावपूर्ण समय और जली-कटी बातें ।
थोड़ी देर खामोश रहने के बाद रमा ने बहु के पास जाकर हाथ जोड़ लिए , "मुझे माफ कर देना बेटी । इतनी समझ मुझमें क्यों नहीं आई ? मैं ने जो अपने पीहर मे देखा वहीं कर रही हूँ तुम तो भले खानदान से आए हो ।तुमने तो मेरी आँखें खोल दी है ।आज से मैं तुम्हारी दादी माँ को ठीकरों में नहीं , अपने रसोईघर के बरतनों में खाना खिलाऊँगी ।"