suman singh

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वो बरगद का पेड़

वो बरगद का पेड़

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अखबार पढ़ते -पढ़ते अचानक शर्मा जी का ध्यान अपने बारह साल के पोते पर गया जो अपने पापा से नए रैकिट लेने की जिद कर रहा था । शर्मा जी अपने पोते की जिद सुनकर मुस्कुरा उठे और कहने लगे - आजकल के बच्चे कभी संतुष्ट नहीं हो सकते। रोज नई-नई चीजों की फरमाइशें करते रहते है। कभी नई साइकिल, नई घड़ी, महंगे कपड़े, महंगे खिलौने। इन बच्चों के लिए तो ये सभी चीजें आवश्यकताएं है और कहाँ हमारा बचपन !


अखबार को रखकर शर्मा जी अतीत में डूब गए , जहां उन्होंने वो सतरंगी पल बिताएं थे।


शर्माजी के गाँव में उनके घर के सामने एक बड़ा-सा बरगद का पेड़ था उसके चारों ओर एक चबूतरा बना हुआ था । उसे चबूतरे पर शर्मा जी के दादा जी झाड़-फूँक किया करते थे। और वहाँ लोगों का जमावड़ा रहता था। लोग बरगद की छाँव में बैठकर तरह-तरह की बातें किया करते थे और बच्चे बरगद की लटकती जड़ों पर झूला झूलते थे।


शर्मा जी का पूरा नाम बाबूलाल शर्मा था। और गाँव -मोहल्ले में उन्हें बाबू के नाम से जानते थे। वह बरगद  का पेड़ मानो बाबू के सपनों का महल था। रोज स्कूल से आते ही कपड़े बदलकर बाबू हाथ में रोटी लेकर बरगद की टहनी पर जा बैठता और रोटी खत्म होने के बाद स्कूल का याद करने का काम भी बरगद की टहनी पर बैठकर ही करता बीच-बीच मे बौर होने पर बरगद की लटकती जड़ों पर झूला झूलने लगता और कभी बच्चे छुप्पम-छुपाई खेलते तो बाबू और खूब सारे बच्चे बरगद के पेड़ पर चढ़ जाते और पत्तों में छिप जाते।


बाबू की रोज की यहीं दिनचर्या रहती थी दादा जी के स्वर्ग सिधार जाने के बाद उनका झाड़-फूँक का काम बाबू के पिता जी ने संभाल लिया । इसी बीच बाबू की पढाई पूरी हो गई और शहर में एक प्रोफेसर के पद पर नौकरी लग गई ।


अब जब भी शर्मा जी शहर से गाँव आते तो अपनी छुट्टियों के दिन वहीं बरगद के पेड़ के नीचे गुजारते जहाँ उनका पूरा बचपन बीता था पता नहीं क्यूं शर्मा जी को उस बरगद के पेड़ की छाँव में इतना सुकून मिलता था इतना तो शहर के एयरकंडीशनर कमरे में भी नहीं मिलता था।


अब शर्मा जी सोचने लगे कि रिटायर होने के बाद मैं अपने पुश्तैनी घर में ही रहूँगा और अपने बुढ़ापे के दिन भी इसी बरगद के पेड़ के नीचे काटूँगा ।

अब जिम्मेदारियां बढ़ने के कारण शर्मा जी का गाँव में आना जाना कम होता गया और माताजी - पिता जी भी चल बसे । अब तो बस किसी शादी समारोह में ही शर्मा जी गाँव आते थे, लेकिन जब भी वो गाँव आते उनका ठिकाना एक ही रहता वो बरगद के पेड़ वाला चबूतरा।


रिटायर होने के बाद शर्मा जी ने बहुत जिद की गाँव में रहने की , लेकिन बेटे के आग्रह के कारण उनको शहर में ही रुकना पड़ा 

अब तो बस शर्मा जी आँखें बंद करके उन्हीं पलो को याद करके खुश हो लेते है जो उन्होंने उसे बरगद के पेड़ पर बिताएं थे वो सतरंगी पल ।


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