मर्द या नामर्द
मर्द या नामर्द
ज्यादा उम्र नहीं थी उसकी। बाइस तेइस साल की रही होगी।
झुग्गी झोपडी में रहने वाली, सीधे नाक नक्श की, सावला सा रंग और घुंघराले बाल वाली निम्मो माँ और दो छोटे-छोटे बहन भाई के साथ रहती थी।
बाप का अता पता नहीं था। मर गया या भाग गया या जेल गया। उसे कुछ भी पता नहीं था। ना उसने कभी अपनी माँ को पूछा,और न ही उसकी माँ ने उसे कभी बताया।
बस उसे इतना याद था, सबसे छोटे भाई के जन्म के कुछ महीनों पहले एक आदमी रात के अंधेरे मे उसकी माँ से मिलने आता था।
निम्मो को उसकी माँ, बाजु के कमरे मे बहन के साथ सुला देती थी।
उस दिन पेट भर खाना मिलता था उन्हें और शायद खाने का ही नशा रहता था, दोनों बहनें गहरी नींद में सो जाती।
उस वक्त उसकी माँ पेट से थी, हमेशा की तरह, एक दिन वह आदमी आया और निम्मो की माँ ने दोनों बहनों को जल्दी खाना खिलाकर सुला दिया।
देर रात अचानक कुछ नोक-झोंक की आवाज होने लगी और निम्मो की नींद टूट गयी।
"रोती क्यों है ?" मर्द की आवाज।
"और क्या करूँ मैं, बोलो तो। मेरे सर पे अपना ये पाप लादकर आज बता रहे हो, तुम्हारी बीवी भी पेट से है, चार साल से मुझे बहला फुसला रहे थे, कि समय आने पर शादी करूँगा, धीरज रखो, मेरे वचन पर विश्वास करो और आज....आज मेरी कोख मे अपना जहर उगलकर, बता रहे हो, शादी नहीं कर सकता, बीवी को सदमा लगेगा, वो माँ बनने वाली है।"
निम्मो की माँ उँची आवाज में बोलने की कोशिश कर रही थी।
"धीरे बोलो, बच्चियाँ जाग जायेगी।" मर्द की आवाज।
"हाँ तो जागने दो, सुन लेने दो. वो भी जाने, उनकी माँ के साथ क्या हो रहा। वो भी तो कल जवान होंगी, तब शायद अपने आपको किसी मर्द के मर्दानगी का शिकार होने से बचा पाये।"
"बेवकुफ जैसी बकवास ना करो।" मर्द।
"बकवास मैं कर रही हूँ ? और तुम क्या कर रहे हो ? तुम जो कह रहे हो वो क्या अच्छी बातें हैं।"
"तुम समझती क्यूँ नहीं ?" मर्द।
"क्या समझू मैं, बोलो।"
कुछ देर अंधेरे के साये में, चुप्पी साधे रही उन दोनों के दरमिया।
"सुनो, मैं जो कह रहा हूँ, शांति से सुनो और समझने की कोशिश करो।" वह धीरे-धीरे फुसफुसा रहा था।
"जिस तरह से यह चार साल बीते, वैसे ही आगे के दिन भी गुजरते रहेंगे। मैं अब तक जैसे आता था, वैसे ही बीच-बीच आता रहूँगा। कोई दिक्कत ना होगी हमें, शादी ना भी करे तो !"
"क्या ? क्या कहा तुमने ? कोइ दिक्कत ना होगी, शादी ना करे तो। और ये ? ये जो मेरी कोख में है, इसका क्या ? लोगोंको क्या जवाब दूँ, बगैर मर्द के ये कहाँ से लायी ? क्या कहूँ लोगों को, किसकी औलाद है ये ?" तिलमिला उठी थी, निम्मो की माँ उस रात
"लोगों से क्या कहना। इसका बंदोबस्त कर दो।" मर्द
"बंदोबस्त ? कैसा बंदोबस्त ? क्या कहना चाहते हो तुम ?"
"गिरा दो अस्पताल में जाकर।" वह नजरें चुराते हुये बोला।.
"क्या कहा तुमने ? शर्म नहीं आती तुम्हें ?" निम्मो की माँ।
"इसमे शर्म कैसी। वैसे भी क्या जरूरत है इस बच्चे की।"
"बच्चे की क्या जरूरत है। अच्छा तो बच्चे सिर्फ जरूरत के लिये ही पैदा किये जाते हैं ? यही बात अपनी बीवी से कहो तो।" निम्मो की माँ।
"बकवास बंद करो। इस बच्चे की बराबरी उस बच्चे के साथ कर रही हो ? ये नामुमकिन है। इसकी बराबरी उसके साथ नहीं हो सकती।" मर्द।
"क्यों ? क्यों नहीं हो सकती ? वह तुम्हारा बच्चा है, और यह तुम्हारा बच्चा नहीं ?"
"वो बच्चा मेरी बीवी की कोख से जन्म लेगा। शादीशुदा बीवी, जो जायज औलाद होगा हमारी और ये ? ये बच्चा जिसे तुम जन्म दोगी, वो नाजायज बच्चा होगा।" मर्द।
"ओहो। तो अब याद आ रहा है तुम्हें कि तुम्हारी शादी हो चुकी है। शादीशुदा बीवी है तुम्हारी और शादीशुदा बीवी से जायज बच्चे के बाप बनने वाले हो। यह बात पिछले चार साल से याद नहीं आ रही थी जब रात के अंधेरे में अपनी मर्दानगी दिखाने मेरे पास सोने आते थे.और सोते वक्त शादी करने का वचन देते थे।" निम्मो की माँ झल्ला उठी।
"चुप हो जा।" गुस्से से वह चिल्ला उठा।
"तुम बात समझने की कोशिश क्यों नहीं करती,. देखो बहस मत करो।. जो कह रहा हूँ चुपचाप मान लो। मेरी बीवी है, मैं तुमसे शादी नहीं कर सकता। कल ही इस बच्चे को गिरवा दो। हम जैसे आज तक मिलते रहे, वैसे ही मिलते रहेंगे।" मर्द उसे समझाने की कोशुिश कर रहा था।.
"नहीं, मैं नहीं गिरवाऊँगी अपना बच्चा। मैं जन्म दूंगी इसे।" निम्मो की माँ।
"क्या ये तुम्हारा आखिरी फैसला है।"
"हाँ।"
"ठीक है। तुम्हें जो करना है करो, इस बच्चे से मेरा कोई वास्ता नहीं। ना इसका कोइ खर्चा दूंगा..और हाँ, एक और बात, अगर तुमने इस बच्चे को जन्म दिया तो तुम्हारे साथ भी मेरा कोइ रिश्ता नहीं।"
"रिश्ता ? वैसे अब भी कौनसा रिश्ता है हमारा ?" उपहास पर हँसते हुये निम्मो की माँ बोली।
"ठीक है, तो आज के बाद इस दरवाजे पर कभी नहीं आऊँगा !"
"मत आना। वैसे भी, सिर्फ सोने भर के लिये, अपने आप को मर्द समझने वाले इन्सान के साथ कोइ रिश्ता रखने के बजाय, मैं अपनी संतान को जन्म देना पसंद करूँगी। इस बच्चे के जन्म के लिये तुम्हारी और से, फरेब जिम्मेदार हो सकता है, लेकिन मैंने तो तुम्हारे फरेब पर विश्वास किया था इसलिये इसका कोई कसूर नहीं।" बहुत ही सख्त जुबान हो चली थी निम्मो की माँ की।
"निकल जा यहाँ से. आइन्दा कभी अपनी सूरत ना दिखाना. मैं पाल लूंगी अपने बच्चों को। तुम्हारे जैसे नामर्द की मेरे बच्चों को जरूरत नहीं।" शेरनी की दहाड मारते हुये निम्मो की माँ बोली।
और वह उस रात, रात के अंधियारे में जिस तरह आया, उसी तरह रात के अंधियारे में निकल गया।
उसके बाद निम्मो ने उस आदमी को कभी भी घर आते नहीं देखा और न ही उसकी कोई खबर, न ही उस आदमी ने निम्मो की माँ की, या उन बहन-भाई की कोई खबर ली।
हर महीने निम्मो की माँ का पेट बढ़ता जा रहा था, साथ ही साथ उसकी थकावन भी बढ़ती जा रही थी, निम्मो की माँ से ज्यादा काम धंदा ना होता और उसकी जगह, वह निम्मो को बर्तन, छाड़ू, पोंछा लगाने काम पर भेजती. उसकी सहायता के लिये छोटी बेटी को भी भेजती।
आखिरकार, वह भी एक दिन आया, जब उसकी माँ को प्रसव पीड़ा होने लगी।
छोटी बेटी को घर रखकर, निम्मो को साथ ले,वह जैसे-तैसे अस्पताल पहुँची।
दर्द को संभालते,ओपिडी कार्ड बनवाने लंबी कतार में खड़ी हुयी।
दो कतारें लगी थी।
जब उसका नंबर आया तो, रजिस्टर पर नाम लिखवाने वाला-
"क्या नाम"
उसने अपना नाम बताया-
"अरे पूरा नाम बताओ।" चिठ्ठीवाला।
"इतना ही नाम है मेरा।" निम्मो की माँ।
"क्यों मर्द का नाम नहीं।"
"नहीं है मर्द।" दबे ओठों से दर्द को दबाते हुये, वह कुछ कहारती बोली।
"मर्द नहीं तो ये बच्चा कहाँ से आया ? बगैर मर्द का, आसमान से गिरा क्या ?" उपहास करते हुये उस आदमी ने पर्ची हाथ में थमा दी।
दर्द और शर्म से गर्दन झुकाये निम्मो की माँ ने पर्ची को थामा और आगे बढ़ने लगी, कुछ कदम चलते ही दूसरी कतार मे एक आदमी को देख, कुछ पल वहीं रुक गयी, वह आदमी वहीं था, जो रात के अंधियारे में उसके घर दबे पाँव आता था और आज दिन के उजियारे में शायद वह भी अपनी गर्भवती बीवी को प्रसव के लिये अस्पताल लाया था। दोनों की नजरें मिली, तो निम्मो की माँ ने उपहास से मुँह मोड़ते हुये अपनी राह पकडी।
निम्मो तब इतनी बड़ी ना थी कि उसे माँ के मुख पर जो उपहास की हँसी आयी थी, उसका अर्थ समझताी और न ही उसे दुनियादारी का तजुर्बा था।
लेबर रुम पे दो पलंग थे और दोनो पर दो औरतें लेटी थी, एक पर निम्मो की माँ और दूसरे पर, उसे माँ बनाने वाले, रात के अंधेरे के मर्द की शादीशुदा बीवी।
दोनो दर्द से कहार रही थी। फर्क इतना था कि निम्मो की माँ के साथ, उसके दर्द मे उसे हिम्मत, ढांडस बंधाने वाला उसका साथी ना था।,
तो दुसरी ओर, दूसरे पलंग पर लेटी औरत के पास उसका बीच बीच में उसका पति आता और हाथ पकड़कर दो शब्द बोल के चला जाता।.
उस वक्त निम्मो की माँ, दीवार की तरफ मुँह फेर कर अपने गले में ही आँसू के घोंट निगल लेती।
सिस्टर उसके पास आयी।
"अरे कैसे हैं तेरे घर के लोग, एक बेटी के साथ तुझे ही अकेली अस्पताल भेज दिया। तुम दोनों माँ बेटी अकेली कैसा करोगी। कम से कम एक आदमी तो भी साथ चाहिये था। बाहर से दवाई मंगवानी पड़ी तो कौन लाकर देगा।"
उस वक्त बाजु के पलंग पर लेटी औरत के पास उसका पति खड़ा था।
"हमारे घर में कोई आदमी नहीं सिस्टर।" निम्मो की माँ ने जवाब दिया।.
"अरे तो कम से कम तुम्हारा मर्द तो होगा, इस बच्चे का बाप।" सिस्टर।
"नहीं सिस्टर। मुझे कोइ मर्द नहीं। इस बच्चे का बाप, नामर्द बनकर, कहीं मुँह छिपाये बैठा है। भाग गया नामर्द, मेरी झोली में अपनी मर्दानगी डालकर, मुझे हालातों से अकेली लड़ने के लिये।" उपहास, गुस्सा, ताना ना जाने कितने अनगिनत भाव भरे थे निम्मो की माँ के उन शब्दो में, जिसे सुनते ही वह पाँव पटकते कमरे से बाहर चला गया।
वक्त ना कभी रुका है और न ही रुकेगा. वक्त भी बीत चुका और हालात भी..
आज निम्मो जवान हो चुकी है।
तीनों माँ बेटियाँ मेहनत मजदूरी करके अपना घर चलाती है, और बेटे को स्कूल भेजती है......