मनोबल एक प्रेरणा...
मनोबल एक प्रेरणा...
उसकी शांत आंखों के पीछे हलचल होनी बन्द हो चुकी है। बहुत बोलने वाली वह लड़की अब सबके बीच चुप रह कर सबको सुनती है। जैसे किसी अहम जबाब का इंतजार हो उसे और वह रोज किसी होनी न होनी का इंतजार करती है। आखिर किसी बात ने उसके मन में घर कर लिया था। महज़ 21 वर्ष कि ही तो थी वह फिर ऐसी क्या विपदा आन पड़ी की वह इतनी नाजुक उम्र में खुद से हार बैठी। जी हाँ वह मासूम सी जान उम्र के इस पड़ाव में रक्त कैंसर से पीड़ित थी और कैंसर भी अंतिम अवस्था के दौर पर था।
वह काफी दिनों से बिमार सी पड़ी रहती थी। बुखार ने जैसे उसके देह में घर कर लिया था। उसकी माँ ने जब उसे लेकर डाक्टर के पास गई तो डाक्टर ने संगिता को केबिन से बाहर जाकर इंतजार करने को कहा।
संगिता थोड़ी घबराई सी थी कि डाक्टर को माँ से आखिर क्या चर्चा करनी है। वह डाक्टर के कक्ष के पास ही वाले चैयर पर बैठी थी। जब माँ कक्ष से बाहर आयी तो वह काफी दुखी और परेशान सी लग रही थी। संगिता के बहुत बार पूछने पर भी माँ ने उसकी बातों का उत्तर नहीं दिया। वे घर आ गये संगिता की माँ संगिता की बहुत परवाह करने लगी। इस प्रकार हर दिन दवाइयां खा-खा कर संगिता परेशान हो चुकी थी और प्रत्येक सप्ताह डाक्टर को जांच कराते हुए भी। इन सब से परेशान एक दिन जब संगिता ने डाक्टर से पूछा की मुझे क्या हंआ है। डाक्टर आप बताते क्यों नही तब डाक्टर ने संगिता को बताया की वह रक्त कैसंर से पीडी़त है और अंतिम अवस्था पर है।
कुछ ही दिनों की मेहमान है, यह सुनकर संगिता को बहुत दुख हुआ किन्तु डाक्टर ने उसे हौसला देते हुए कहा कि यदि भगवान ने चाहा तो सब ठीक होगा। तुम फीकर मत करो और अपनी बाकी की जिंदगी को बिंदास जी लो।
कुछ दिनों संगिता बहुत उदास सी रही। मगर वक्त बीतता रहा और एक दिन उसने फैसला किया कि वह इस बिमारी पर जीत पाकर रहेगी। कुछ दिनों बाद उसकी माँ ने कहा कि घर में रह-रह कर तुम बोर हो जाती होगी। अपनी मंझली वाली मौसी के यहां ही होकर आ जा। संगिता ने थोड़ा समय देना चाहा और दुख की इस पाबन्दी से आजाद होने के लिए उसकी मौसी के यहां चली गई।
उसकी मौसी के घर के पास ही एक विकलांग बच्चों का विघालय था। एक दिन अचानक उसकी नजर उस विघालय की ओर पड़ी। मन नहीं माना तो वह एक दिन उस विघालय के अंदर चली गई। उसने देखा कि महज वहां हर बच्चा किसी न किसी विकृति का शिकार था। मगर वे फिर भी जिंदगी को इतनी खुशी से मिलजुल कर हँसी खुशी उमंग में जीते थे। उन्हें देखकर संगीता कहने लगी की इनके आगे तो मेरी बिमारी कुछ भी नही है। उन बच्चों को देखकर संगिता बहुत प्रेरित हुई और कहने लगी कि ज्रिदगी में उतार चढ़ाव तो आते ही रहते हैं। इसका तात्पर्य यह नही की हम अपने दुखों के आगे हार मान जाये।
अब से मैं जिन्दगी को अपने अंदाज से खुलकर हँसी-खुशीं जिऊँगी। महज बहुत खिल उठी थी वह संगिता ने निर्णय लिया कि वह इस तरह के पीड़ित बच्चों का सहारा बनेगी।
तू अपनी ख्वाहिशों को
यूँ गवारा न कर
उठ जरा झांक सूरज के प्रकाश को
यूँ हारा न कर
बन किसी मजबूर का हौंसला
खुद को यूँ बेसहारा न कर
जिदंगी खिल उठेगी तेरी
किसी मासूम का हाथ थामा तो कर।