मनहूस
मनहूस
कीर्ति को उसकी दूसरी माँ हमेशा मनहूस कहती। कीर्ति माँ के प्यार लिए तरस गई थी इसलिए वह कुछ ऐसा करना चाहती थी कि माँ उसे प्यार करे पर हमेशा कीर्ति जो सोचती उसका उल्टा होता, वह किचन में माँ की सहायता के लिए जाती, कुछ कहती इधर माँ का हाथ कभी कड़ाही में कभी तवे पर लग जाये तो वह कीर्ति को मनहूस की उपाधि से नवाज कर अपना जलन कुछ कम कर लेती और कीर्ति नौ-दस साल की लड़की समझ नहीं पाती कि दूसरी माँ के जलने में वह मनहूस क्यों हुई। घर में सत्यनारायण की पूजा थी कीर्ति दौड़-दौड़कर पूजा की तैयारी में माँ की मदद कर रही थी, मन ही मन खुश थी आज माँ ने एक भी बार उसे मनहूस नहीं कहा उसकी यह खुशी ज्यादा समय तक कायम नहीं रह पाई वह पूजा का सामान लेकर आ रही थी कि उसके हाथ से अगरबत्ती का पैकेट गिर गया और माँ तो जैसे इसी पल का इंतजार कर रही थी वह गुस्से से बोली अरे मनहूस कोई काम ठीक से करती!सहमी कीर्ति कोने में जाकर बैठ गई। पंडितजी सारा माजरा देख रहे थे उनकी अनुभवी आंखों से कुछ भी छुपा ना रहा वह कीर्ति को बग़ीचे से फूल लाने भेजकर उसकी नई माँ से बोले, तुमको पता था कि शादी के बाद मुंह दिखाई में यह बिन माँ की बच्ची मिलेगी तो सब कुछ जानकर भी तुमने शादी की। अब शादी हो गई तो उस बच्ची पर तुम अपना गुस्सा निकालती हो, तुम उसे माँ का प्यार दो उसके प्रति अपने नजरिये को बदलो। उसे तुम मन से स्वीकार नहीं कर पायी इसलिए उसके आस-पास होने से तुम्हारा काम बिगड़ता है और तुम सारा दोष उस मासूम को मनहूस कह उसके ऊपर डाल देती हो, तुम्हारे डर से उस मासूम से कोई ना कोई गलती हो जाती है अब तुम बताओ मनहूस कौन है वह बच्ची जो माँ का प्यार पाने की कोशिश कर रही है या तुम जो मनहूस कहकर उसका बचपन छीन रही हो। दूसरी माँ को अपनी गलती का एहसास हो गया वह कीर्ति के लाये हुए फूल भगवान में चढ़ाते हुए बोली आ बेटी मेरे पास बैठकर पूजा करना और कीर्ति के सर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोली पूजा से घर मे सुख-शांति आती है। पंडितजी मन ही मन मुस्कुराते हुए सोच रहे थे हाँ शांति तो आएगी ही मनहूसियत जो दूर हो गई।