मन का कीड़ा
मन का कीड़ा


पति आँफिस जा चुके थे। बच्चे भी स्कूल जा चुके थे। राशी अपना सारा काम निपटा के थोड़ा सुसताने बैठ गई। उसका मन अतित के पन्नों में खो गया। राशि सोचने लगी कैसे मैं जब छोटी थी कितने ही अजीबोगरीब सवाल उसके मन में चलते थे।
बचपन में जब माँ को देखती थी वो हमेशा खाना नहाने के बाद पूजा करके ही खाती थी। राशी की समझ से बाहर था। बहुत पूछने पर मां सिर्फ इतना कहती कि भगवान हमें पुण्य देगा। "पर कैसे" इस पर मां कुछ न बोलती। राशी सोचती थी "भगवान क्या देखता है कौन नहा के आया है और कौन बिना नहाए? क्या भगवान सब से यही देख के खुश होता है।" बहुत देर तक भूखे रहने के कारण मां की हालत खराब रहने लगी और मां को लाईलाज बीमारी ने घेर लिया। नतीजा उस परिवार की शांति भंग हो गई। उनके मन के कीड़े ने उनको अपनी जिंदगी जीने नहीं दी।
फिर राशी ने सोचा कि कैसे जब उसके ससुराल में भी यही दवाब डाला जाता था। अपने सीधे सादे स्वभाव के कारण सब के मन में घर बना लिया था। वहां सास का यही कहना था कि "बहु सब को नाश्ता करा के बाद में नहा के भगवान को भोग लगा के फिर खाना, पुण्य मिलेगा।" यहाँ भी वही कहना। राशी समय पे भोजन न करने के कारण चिड़चिड़ी और गुस्सेल होती जा रही थी राशी की तबियत बिगड़ने लगी। तब राशी ने फैसला किया कि जान है तो जहान है। अगर मैं खुश रहूँगी तो ही मेरा परिवार खुश रहेगा। और उसने अपने मन में चल रहे कीड़े को मारने का फैसला कर लिया। उसने सोचा लोग पुण्य के चक्कर में मन में कीड़ा लगा के बैठे हैं। पुण्य क्या सिर्फ औरतों को ही चाहिए। अकेले मेरे भूखे रहने से सबको कैसे पुण्य प्राप्त होगा या कि उसके व्रत रखने से उसके पति की आयु लम्बी कैसे हो जाएगी। पति को जरुरत नहीं क्या अपनी पत्नी की लम्बी आयु की। बचपन से जवानी तक क्यों सारे संस्कार लड़कियों पर ही थोपे जाते हैं। बस अब बहुत हुआ। अपने से ही शुरूआत करनी होगी। ये रुढ़िवादी विचारों को खत्म करना होगा।
उसने अपनी प्राथमिकता बदल दी। सुबह जल्दी उठ के मेडीटेशन करने लगी फिर घर की सफाई करती फिर नहा के सब के लिए चाय और नाश्ता बनाती। अब सब साथ में नाश्ता करते। कभी नहाने में देर हो भी जाती तो नाश्ता हाथ मुँह धो के कर लेती। पहले उसकी सास को अच्छा नहीं लगता था पर जब उन्हें ये बात समझ आई तो फिर तो कहने ही क्या। अब राशी का घर किसी स्वर्ग से कम न था। राशी ने अपने मन के कीड़े को हमेशा के लिए मार दिया था।
दोस्तों आज भी समाज में ये मन का कीड़ा है कि पत्नी ही भूखी रह कर सब के लिए पुण्य इकट्ठा करे। इस किड़े ने कई परिवारों की खुशी छीन ली है। खुद का ध्यान रख कर दूसरे का ध्यान रखना मतलबी होना नहीं कहलाता। मन सवस्थ तो तन सवस्थ।
और रही बात पुण्य की तो सब के अपने कर्मों से उनके पुण्य बनते हैं न कि किसी एक के भूखे रहने से। भगवान सिर्फ पवित्र और सच्चा मन, बोल और कर्म पढ़ते हैं।
क्या आपके मन में भी इस तरह का कीड़ा है? यदि है तो जल्द ही खत्म करें। आपको पुण्य कमाने से कोई नहीं रोक सकता।